पिघलते ग्लेशियर, टूटती झीलें: 609 घटनाएं, 13000 मौतें, क्या सिक्किम जैसी त्रासदी हो सकती हैं आम

रिसर्च से पता चलता है कि 1981 से 1990 के बीच दुनिया भर में ग्लेशियर झीलों के टूटने से हर साल बाढ़ की औसतन पांच घटनाएं सामने आती थीं, जबकि 2011 से 2020 के बीच यह आंकड़ा बढ़कर 15 पर पहुंच गया। यानी बढ़ते तापमान के साथ यह खतरा करीब तीन गुणा तक बढ़ चुका है।
आंकड़ें दर्शाते हैं कि ग्लेशियर झीलों के टूटने से आई बाढ़ अब तक दुनिया भर में 13,000 से अधिक जिंदगियां निगल चुकी हैं। चिंता की बात है कि सबसे ज्यादा नुकसान हिमालय और ट्रॉपिकल एंडीज क्षेत्रों में हुआ है; प्रतीकात्मक तस्वीर
आंकड़ें दर्शाते हैं कि ग्लेशियर झीलों के टूटने से आई बाढ़ अब तक दुनिया भर में 13,000 से अधिक जिंदगियां निगल चुकी हैं। चिंता की बात है कि सबसे ज्यादा नुकसान हिमालय और ट्रॉपिकल एंडीज क्षेत्रों में हुआ है; प्रतीकात्मक तस्वीर
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अक्टूबर 2023 में सिक्किम की तीस्ता घाटी में आई विनाशकारी बाढ़ ने 55 जिंदगियां छीन लीं। इसके साथ ही 1,200 मेगावाट क्षमता का हाइड्रोपावर डैम भी बह गया था। यह इस बात का सबूत है कि हिमालय की शांत दिखने वाली बर्फ के नीचे एक खामोश खतरा पल रहा है।

दरअसल, सिक्किम में दक्षिण ल्होनक झील के टूटने से आई यह बाढ़, जिसे 'ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट फ्लड (जीएलओएफ)' कहा जाता है, कोई अकेली घटना नहीं है। पिछले 120 वर्षों के आंकड़ों के विश्लेषण में वैज्ञानिकों ने दुनिया भर में ऐसी 609 घटनाएं दर्ज की हैं, जब ग्लेशियर झीलों के फटने से विनाशकारी बाढ़ आई। इनमें सबसे ज्यादा घटनाएं हिमालयी क्षेत्र में हुई हैं।

ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यह है, क्या सिक्किम में आई त्रासदी भविष्य की एक झलक थी? इस बारे में किया नया अध्ययन भी इसी ओर इशारा करता है कि पिघलते ग्लेशियरों से बनने वाली झीलें आगे और ज्यादा बार टूटेंगी, और भारत जैसे पहाड़ी देशों को ऐसी घातक बाढ़ों के लिए अभी से तैयार रहना होगा।

सच यही है कि पिघलते ग्लेशियर अब सिर्फ जलवायु परिवर्तन का संकेत नहीं रहे, बल्कि एक बड़े खतरे में बदलते जा रहे हैं। वैज्ञानिकों ने भी चेताया है कि ग्लेशियरों से बनने वाली झीलों के फटने से आने वाली विनाशकारी बाढ़ की घटनाएं आने वाले वर्षों में और तेजी से बढ़ेंगी।

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अपने इस अध्ययन में अंतरराष्ट्रीय शोधकर्ताओं के एक दल ने जिसमें ब्रिटेन की डंडी यूनिवर्सिटी के ग्लेशियर विशेषज्ञ डॉक्टर साइमन कुक भी शामिल हैं, 120 वर्षों के आंकड़ों का विश्लेषण किया। सैटेलाइट से प्राप्त तस्वीरों और पुराने रिकॉर्ड के आधार पर वैज्ञानिकों ने ऐसी 609 घटनाओं की पहचान की है, जब ग्लेशियर झीलें फटने से बाढ़ आई।

हालांकि पहले के वैश्विक रिकॉर्ड में 1900 से 2020 के बीच ऐसी सिर्फ 400 घटनाएं दर्ज थीं। यानी खतरा हमारी सोच से कहीं ज्यादा बड़ा है।

जलवायु परिवर्तन से जुड़ा सीधा रिश्ता

आंकड़ें दर्शाते हैं कि बाढ़ की यह घटनाएं अब तक दुनिया भर में 13,000 से अधिक जिंदगियां निगल चुकी हैं। चिंता की बात है कि सबसे ज्यादा नुकसान हिमालय और ट्रॉपिकल एंडीज क्षेत्रों में हुआ है।

डॉक्टर कुक ने इस पर प्रकाश डालते हुए प्रेस विज्ञप्ति में बताया, “1900 से 1970 के बीच ऐसी घटनाएं लगभग स्थिर रहीं। लेकिन 1970 के बाद, जब धरती का तापमान तेजी से बढ़ने लगा तो बाढ़ की यह घटनाएं भी चिंताजनक रूप से बढ़ने लगी। 2011 से 2020 के बीच तो इनमें तीन गुणा उछाल देखा गया।“

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अध्ययन के मुताबिक, तापमान बढ़ने के पांच से 20 साल बाद इसका असर बाढ़ के रूप में दिखता है। यानी जो गर्मी आज बढ़ रही है, उसका खतरनाक नतीजा आने वाले सालों में सामने आएगा। मतलब कि आने वाले समय में इस तरह की बाढ़ की कई घटनाएं देखने को मिलेंगी। हालांकि डॉक्टर कुक का यह भी कहना है कि “हमारे पास इन्हें रोकने के लिए अभी समय तो है, लेकिन इसके लिए तेजी से कदम उठाने होंगे।”

इस अध्ययन के नतीजे अंतराष्ट्रीय जर्नल नेचर कम्युनिकेशन्स में प्रकाशित हुए हैं।

कैसे बनता है यह खतरा?

अध्ययन के मुताबिक जब ग्लेशियर पीछे हटते हैं, तो उनके छोड़े गड्ढों में पिघला पानी जमा होकर झील बना लेता है। ये झीलें मिट्टी, रेत और पत्थरों से बनी कमजोर दीवारों से रुकी होती हैं। इन्हें मोरीन-डैम्ड झीलें कहा जाता है।

लेकिन ये प्राकृतिक ‘बांध’ अक्सर कमजोर और अस्थिर होते हैं। ऐसे में जैसे ही ये कमजोर दीवारें टूटती हैं, नीचे बसे इलाकों में अचानक भयानक बाढ़ आ जाती है। अध्ययन के मुताबिक इनमें से करीब 70 फीसदी घटनाएं तब होती हैं, जब बर्फ के हिमस्खलन या पहाड़ों से गिरे पत्थर झील में गिरते हैं और तेज लहर उठाकर बांध को तोड़ देते हैं।

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बढ़ती गर्मी, बढ़ता जोखिम

डॉक्टर कुक के मुताबिक बढ़ते तापमान के साथ ग्लेशियर सिकुड़ रहे हैं, झीलें बन रही हैं और पहाड़ी ढलानें अस्थिर हो रही हैं। पहाड़ों की चट्टानें और मिट्टी भी कमजोर हो रही हैं, क्योंकि यहां की जमी हुई जमीन (पर्माफ्रॉस्ट) पिघल रही है। इससे झीलों में भूस्खलन बढ़ रहा है। ये सब मिलकर गर्म होती दुनिया में बाढ़ के खतरे को और बढ़ा रहे हैं।

आंकड़े दर्शाते हैं कि 1980 के दशक के बाद से बाढ़ की ऐसी घटनाएं तेजी से बढ़ी हैं। 1981 से 1990 के बीच हर साल ग्लेशियर झीलों के टूटने से बाढ़ की औसतन पांच घटनाएं सामने आती थी, जो 2011 से 2020 के बीच बढ़कर 15 प्रति वर्ष हो गई हैं।

देखा जाए तो इस दौरान दुनिया का तापमान भी तेजी से बढ़ा है। अध्ययन में पाया गया कि तापमान और इन बाढ़ों के बीच गहरा संबंध है, यानी तापमान बढ़ने के पांच से 20 साल बाद ग्लेशियर झील टूटने से आने वाली बाढ़ की घटनाएं भी बढ़ जाती हैं।

वैज्ञानिकों का कहना है कि अभी हमारे पास तैयारी और बचाव के लिए समय है, लेकिन बहुत ज्यादा नहीं। डॉक्टर कुक चेताते हैं, “जब वैश्विक तापमान लगातार बढ़ रहा है और जलवायु संकट से निपटने की कोशिशें भी हाल में कॉप30 जैसी बैठकों में सुस्त पड़ी हैं, तो ऊंचे पर्वतीय इलाकों में रहने वाले लोगों और वहां के बुनियादी ढांचे पर यह खतरा बना रहेगा।”

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कुल मिलाकर संदेश साफ है, हिमालय सहित दुनिया भर के ऊंचे पहाड़ों पर बर्फ पिघल रही है और उसके साथ बढ़ रहा है एक ऐसा खतरा, जो किसी भी पल तबाही में बदल सकता है।

अगर समय रहते ग्लेशियर झीलों की निगरानी, जोखिम आकलन और चेतावनी प्रणालियों को मजबूत न किया गया, तो सिक्किम जैसी त्रासदियां अपवाद नहीं, बल्कि आम हकीकत बन सकती हैं।

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