हाल ही में स्टॉकहोम विश्वविद्यालय और यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया के वैज्ञानिकों द्वारा किए अध्ययन से पता चला है कि ग्लेशियरों के लिए बढ़ते तापमान से उबरना अपेक्षा से कहीं ज्यादा कठिन है। वैज्ञानिकों का कहना है कि ग्रीनलैंड की दूसरी सबसे बड़ी बर्फ की चट्टान यदि टूट जाती है, तो वो तब तक पहले जैसी नहीं हो सकती जब तक कि भविष्य में पृथ्वी की जलवायु काफी हद तक ठंडी न हो जाए।
यह समझने के लिए की क्या बर्फ की चट्टान एक बार टूटने के बाद फिर से ठीक हो सकती है, वैज्ञानिकों की एक टीम ने उत्तरी ग्रीनलैंड में पीटरमैन आइस शेल्फ का अध्ययन किया है। इसके लिए शोधकर्ताओं ने एक जटिल कंप्यूटर मॉडल का उपयोग किया है जिससे यह जाना जा सके कि यह जलवायु परिवर्तन के कारण टूटने के बाद इस आइस शेल्फ के दोबारा ठीक होने की क्या संभावनाएं हैं।
इस बारे में अध्ययन का नेतृत्व करने वाले स्टॉकहोम यूनिवर्सिटी के शोधकर्ता हेनिंग एक्सन का कहना है कि, "भले ही पृथ्वी की जलवायु गर्म होना बंद कर दे, इसके बावजूद इस आइस शेल्फ का फिर से दोबारा बनना मुश्किल होगा।" उनके अनुसार यदि पीटरमैन ग्लेशियर की आइस शेल्फ टूटकर अलग हो जाती है, तो हमें वक्त में पीछे जाना होगा, जोकि इस ग्लेशियर को फिर से विकसित करने के लिए औद्योगिक क्रांति से पहले की याद को ताजा करती है, जब तापमान काफी कम था।
अंतराष्ट्रीय जर्नल नेचर कम्युनिकेशन्स में प्रकाशित इस शोध के मुताबिक यह आइस शेल्फ, ध्रुवीय बर्फ की चादरों को बड़े पैमाने पर होने वाले नुकसान को कम करती हैं। इस तरह यह चट्टानें ग्लोबल वार्मिंग के कारण समुद्र के जलस्तर को भी सीमित करने में मदद करती हैं। ऐसे में उनके अनुसार इनकों सुरक्षित रखना कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है।
2018 में इस आइस शेल्फ में खोजी गई थी एक नई दरार
गौरतलब है कि पीटरमैन ग्रीनलैंड की कुछ बची हुई आइस शेल्फ में से एक है। 2010 और 2012 में इस चट्टान से मैनहट्टन के आकार का एक हिमखंड अलग हो गया था, तब से दुनिया भर के वैज्ञानिक इस पर लगातार नजरे गड़ाए हुए हैं। इतना ही नहीं इस हिमखंड के टूटने से इस ग्लेशियर ने अपने आइस शेल्फ का लगभग 40 फीसदी हिस्सा भी खो दिया था।
वैज्ञानिक को डर है कि इस आइस शेल्फ के आगे टूटने या यहां तक कि ढहने से इसकी आंतरिक बर्फ की चादर से बर्फ का प्रवाह तेज हो जाएगा। 2018 में, इस आइस शेल्फ में एक नई दरार की खोजी गई थी, जिसने पीटरमैन को लेकर चिंताओं को और बढ़ा दिया है।
हालांकि यह अध्ययन उत्तर-पश्चिमी ग्रीनलैंड के सबसे बड़े ग्लेशियर पर केंद्रित था, वहीं एक और गंभीर चिंता का विषय यह है कि यदि अंटार्कटिका में पाए जाने वाले बर्फ की बड़ी चट्टानें यदि एक बार टूट जाती हैं, तो उनका वापस बनाना मुश्किल हो सकता है।
शोधकर्ताओं का कहना है कि अध्ययन के जो निष्कर्ष सामने आए हैं वो केवल पीटरमैन ग्लेशियर और ग्रीनलैंड तक ही सीमित नहीं हैं। एक्सन के मुताबिक भविष्य में ध्रुवीय महासागरों के गर्म होने के कारण यह बर्फ की चट्टानें पीछे हट सकती हैं, जिनसे बड़ी मात्रा में बर्फ पिघल सकती है। यदि ऐसा होता है तो इसका उबरना मुश्किल हो सकता है। ऐसे में विशेषज्ञों का कहना है कि हमें इस बारे में पुख्ता जानकारी चाहिए कि यह आइस शेल्फ कैसे टूटती हैं और अलग होने से पहले वो कितने तापमान का सामना कर सकती हैं।
जर्नल नेचर में छपे एक अन्य शोध से पता चला है कि बढ़ते तापमान के चलते हर साल ग्लेशियरों से पहले के मुकाबले 30 फीसदी ज्यादा बर्फ पिघल रही है। शोध के मुताबिक ग्लेशियरों में जमा बर्फ के पिघलने की यह दर 2015 से 2019 के बीच रिकॉर्ड 29,800 करोड़ टन प्रतिवर्ष पर पहुंच गई थी।