बढ़ते तापमान के साथ दुनिया में पहले से अधिक बार दस्तक देंगी लू की गंभीर घटनाएं

रिसर्च से पता चला है लू की वो घटनाएं जो लम्बे समय तक कहर ढाती थी, उनके पहले से ज्यादा बार आने की आशंका ज्यादा बढ़ गई है
बढ़ते तापमान के साथ दुनिया में पहले से अधिक बार दस्तक देंगी लू की गंभीर घटनाएं
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धरती के तापमान में हर छोटा बदलाव भी बड़ा असर डाल रहा है। देखा जाए तो जलवायु परिवर्तन अब भविष्य नहीं वर्तमान बन चुका है, जिसका असर अब साफ तौर पर हमारी रोजमर्रा की जिंदगी पर दिखने लगा है।

इसके प्रभावों को लेकर किए एक नए अंतरराष्ट्रीय अध्ययन से पता चला है कि जलवायु परिवर्तन के साथ लू की घटनाएं (हीटवेव्स) न केवल ज्यादा गर्म और लंबी होंगी, बल्कि तापमान में थोड़ी सी भी वृद्धि के साथ उनकी अवधि भी पहले से कहीं तेजी से बढ़ेगी।

चिंता की बात है कि अब ये बदलाव पहले से तेज हो गए हैं। वैज्ञानिकों ने आशंका जताई है कि यह वृद्धि ग्लोबल वार्मिंग की गति से भी तेज हो सकती है। खासकर लू की ऐसी घटनाएं जिनका असर हफ्तों तक महसूस किया जाता है, उनपर बढ़ते तापमान का सबसे ज्यादा असर होगा और उनकी अवधि और गंभीरता तेजी से बढ़ेगी।   

यह अध्ययन यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया और चिली की यूनिवर्सिडाड अडोल्फो इबनेज से जुड़े वैज्ञानिकों द्वारा किया गया है। इस अध्ययन के नतीजे अंतराष्ट्रीय जर्नल नेचर जियोसाइंस में प्रकाशित हुए हैं।

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अध्ययन में इस बात का भी खुलासा हुआ है कि पृथ्वी के तापमान में हल्की सी भी बढ़ोतरी के साथ सबसे लम्बे समय तक चलने वाले लू की घटनाएं सबसे तेजी से बढ़ेंगी। इसके साथ ही सबसे गंभीर लू की घटनाएं पहले से अधिक बार दस्तक देंगी। मतलब कि ऐसी घटनाओं का आना बढ़ते तापमान के साथ सामान्य होता जाएगा। गौरतलब है कि लू की यह घटनाएं जितनी लंबी होती है, उसका असर इंसानों, जानवरों, कृषि और पर्यावरण पर उतना ज्यादा होता है।

यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया में मौसम और जलवायु के विशेषज्ञ और अध्ययन से जुड़े शोधकर्ता प्रोफेसर जे डेविड नीलिन का कहना है कि “तापमान में हर छोटी वृद्धि का असर पिछली बढ़ोतरी से ज्यादा होगा।“

उन्होंने चेताया है कि "अगर गर्मी इसी रफ्तार से बढ़ती रही, तो हमें अपने आप को तेजी से बदलना होगा, खासकर सबसे लू की सबसे भीषण घटनाओं के लिए, जो सबसे जल्दी बदल रही हैं।"

अध्ययन में वैज्ञानिकों ने ऐसे जलवायु मॉडल तैयार किए हैं, जो दिखाते हैं कि हर दिन का तापमान अगले दिन के तापमान को कैसे प्रभावित करता है। इससे पता चला है कि लू की घटनाओं की अवधि वैश्विक स्तर बढ़ रही है।

वैज्ञानिकों के अनुसार, यह मॉडल एक इलाके या कई इलाकों को मिलाकर पूरे क्षेत्र का विश्लेषण करने में भी सक्षम है।

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इन क्षेत्रों को है सबसे ज्यादा खतरा

अध्ययन से जुड़े प्रमुख शोधकर्ता क्रिस्टियन मार्टिनेज-विलालोबोस ने इस बारे में प्रेस विज्ञप्ति में जानकारी दी है, "हर क्षेत्र में सबसे लंबी और सबसे कम होने वाली लू की दुर्लभ घटनाएं, जो हफ्तों चलती हैं, उनकी संख्या सबसे ज्यादा बढ़ रही है।" वैज्ञानिकों के मुताबिक इसका सबसे ज्यादा असर उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों पर पड़ रहा है।

अध्ययन में पाया गया कि जिन क्षेत्रों में मौसम में कम उतार-चढ़ाव होता है, जैसे दक्षिण पूर्व एशिया, अफ्रीका और अमेजन क्षेत्र में वहां लू की घटनाओं में सबसे अधिक बदलाव होगा और यह क्षेत्र सबसे ज्यादा प्रभावित हो सकते हैं।

उदाहरण के लिए, भूमध्यरेखीय अफ्रीका में 35 दिनों से अधिक चलने वाली लू की घटनाएं भविष्य में (2020 से 2044 के बीच) 60 गुना ज्यादा हो सकती हैं।

प्रोफेसर नीलिन के मुताबिक अगर किसी जगह का मौसम पहले से ही बहुत बदलता रहता है, तो वहां तापमान में थोड़ी-सी बढ़ोतरी का असर कम होगा। लेकिन जहां मौसम ज्यादा स्थिर होता है, वहां थोड़ी सी गर्मी भी बड़ा असर डालती है। इसलिए उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में ज्यादा बदलाव होते हैं, जबकि समशीतोष्ण इलाकों में कम। साथ ही, ठंड की तुलना में गर्मियों में बदलाव ज्यादा नजर आते हैं क्योंकि गर्मियों में मौसम ज्यादा स्थिर रहता है।

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तैयारियां जरूरी, लेकिन संसाधनों की कमी बड़ी चुनौती

अध्ययन के मुताबिक पिछले कुछ दशकों में गर्मी का कहर बढ़ गया है और लोग लम्बे समय तक चलने वाली लू की घटनाओं का सामना करने को मजबूर हो रहे हैं। ऐसा ही कुछ अमेरिका में देखने को मिला जब जून में भीषण गर्मी पड़ी, जिससे तापमान के कई रिकॉर्ड टूट गए। स्थिति यह रही कि एक हाई स्कूल के ग्रेजुएशन प्रोग्राम में दर्जनों लोग गर्मी से बीमार हो गए।

यूरोप में भी जुलाई के पहले हफ्ते में बेहद गर्मी पड़ी, जिससे एफिल टॉवर को बंद करना पड़ गया और विंबलडन में गर्मी को देखते हुए 'ऑपरेशन आइस टॉवल' शुरू करना पड़ा।

वैज्ञानिकों के मुताबिक यह अध्ययन एक ऐसा फार्मूला देता है जो विभिन्न क्षेत्रों में जलवायु परिवर्तन के असर को समझने में मदद कर सकता है।

इसका इस्तेमाल कृषि योजनाओं, ऊर्जा प्रबंधन, और शहरी डिजाइन जैसे क्षेत्रों में किया जा सकता है। हालांकि साथ ही वैज्ञानिक अमेरिका में जलवायु और वैज्ञानिक अनुसंधान को दिए जा रहे बजट में कटौती को लेकर चिंतित हैं। प्रोफेसर नीलिन का कहना है कि “अगर हम जलवायु मॉडलिंग को गंभीरता से नहीं लेंगे, तो आने वाले समय में खतरे का अनुमान और अनुकूलन दोनों ही मुश्किल हो जाएगा।”

उनके मुताबिक लू का असर सिर्फ तापमान पर नहीं होगा, इससे कृषि, जल उपलब्धता, बिजली आपूर्ति और जंगल की आग का खतरा भी बढ़ जाएगा। देखा जाए तो यह शोध सरकारों और नीति-निर्माताओं के लिए एक सख्त चेतावनी है कि अब जलवायु अनुकूलन की योजनाओं में देरी बर्दाश्त नहीं की जा सकती।

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