हिमाचल में किसानों पर जलवायु परिवर्तन की मार, मक्के की पैदावार में आई गिरावट

जलवायु परिवर्तन की वजह से हिमाचल प्रदेश में तापमान और बारिश में आता बदलाव किसानों पर भारी पड़ रहा है
हिमाचल प्रदेश में गेहूं की फसल काटती महिलाएं; फोटो: आईस्टॉक
हिमाचल प्रदेश में गेहूं की फसल काटती महिलाएं; फोटो: आईस्टॉक
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जलवायु परिवर्तन देश भर में कृषि पर गहरा असर डाल रहा है, जिसका सबसे ज्यादा खामियाजा किसानों को भुगतना पड़ रहा है। एक तरफ बढ़ता तापमान, ऊपर से बारिश के पैटर्न में आता बदलाव और फिर चरम मौसमी घटनाओं की वजह से ज्यादातर क्षेत्रों में कृषि पैदावार को अच्छा-खासा नुकसान हो रहा है।

हिमाचल प्रदेश भी इन प्रभावों से सुरक्षित नहीं है। इसकी पुष्टि राष्ट्रीय कृषि अर्थशास्त्र एवं नीति अनुसंधान संस्थान (एनआईएपी),पंजाब कृषि विश्वविद्यालय, और डॉक्टर वाईएस परमार बागवानी एवं वानिकी विश्वविद्यालय से जुड़े शोधकर्ताओं ने अपने नए अध्ययन में भी की है। इस अध्ययन के नतीजे भारतीय मौसम विभाग के जर्नल मौसम में प्रकाशित हुए हैं।

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अपने इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने 1985 से 2021 के बीच हिमाचल के सात जिलों में बारिश और तापमान में आए बदलावों का अध्ययन किया है। साथ ही जलवायु में आते यह बदलाव मक्का और गेहूं की पैदावार को किस तरह प्रभावित कर रहे हैं उसकी जांच की है।

इस अध्ययन के जो नतीजे सामने आए हैं उनके मुताबिक खरीफ मौसम में अधिकतम तापमान को छोड़ दें तो सभी सात जिलों में अध्ययन के दौरान खरीफ और रबी दोनों सीजनों में अधिकतम और न्यूनतम तापमान में अच्छी खासी वृद्धि दर्ज की गई है।

 इतना ही नहीं यदि वार्षिक आंकड़ों पर भी नजर डालें तो तापमान में होती वृद्धि बेहद स्पष्ट है, जो इस बात का पुख्ता सबूत है कि जलवायु में आता बदलाव पहाड़ों पर भी तेजी से बढ़ते तापमान का सबब बन रहा है।

अध्ययन के दौरान सर्वाधिक अधिकतम तापमान 1988 में हिमाचल प्रदेश के मंडी जिले में दर्ज किया गया जो, 38.2 डिग्री सेल्सियस था। जबकि सबसे कम अधिकतम तापमान 2008 में सिरमौर जिले में रिकॉर्ड (21.6 डिग्री सेल्सियस) किया गया। वहीं पूरे खरीफ सीजन में न्यूनतम तापमान 19.72 डिग्री सेल्सियस से 31.11 डिग्री सेल्सियस के बीच रहा।

अध्ययन के मुताबिक इस अवधि के दौरान न्यूनतम तापमान में सबसे अधिक वृद्धि कांगड़ा में रबी सीजन के दौरान दर्ज की गई, जब तापमान में होती वृद्धि 2.12 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच गई थी। इसी तरह अधिकतम तापमान में सबसे ज्यादा वृद्धि खरीफ सीजन के दौरान सिरमौर में दर्ज की गई थी, जब बढ़ता तापमान 1.22 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच गया।

इसी तरह सोलन में भी खरीफ सीजन के दौरान अधिकतम तापमान में 1.21 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि दर्ज की गई है। वहीं रबी सीजन में अधिकतम तापमान में इस अवधि के दौरान बिलासपुर में 1.21 डिग्री सेल्सियस की उल्लेखनीय वृद्धि देखी गई।

किसानों को महंगी पड़ रही जलवायु की मार

इस दौरान बिलासपुर, हमीरपुर, सिरमौर और ऊना में रबी सीजन के दौरान अधिकतम तापमान में उल्लेखनीय वृद्धि दर्ज की गई है। इसी तरह वार्षिक न्यूनतम तापमान में भी महत्वपूर्ण वृद्धि देखी गई है।

वहीं खरीफ सीजन के दौरान सबसे कम अंतर कांगड़ा में दर्ज किया गया, जब न्यूनतम तापमान में 0.5 डिग्री सेल्सियस का इजाफा दर्ज किया गया। कुल मिलकर देखें तो 1985 से 2021 के बीच हिमाचल के इन सातों जिलों में तापमान में अच्छी खासी वृद्धि दर्ज की गई है। जलवायु परिवर्तन का यह असर बारिश के पैटर्न पर भी साफ तौर पर देखा जा सकता है।

इस अध्ययन के जो निष्कर्ष सामने आए हैं वो पहले किए शोधों से भी मेल खाते हैं। इन अध्ययनों में भी हिमाचल प्रदेश के विभिन्न जिलों में न्यूनतम तापमान में इजाफा दर्ज किया था। हिमाचल प्रदेश अपने बर्फ से ढंके पहाड़ों के लिए जाना जाता है। सतलुज, रावी, व्यास, चिनाब, बस्पा, पार्वती, स्पीति और यमुना जैसी नदियां न केवल जल विद्युत बल्कि कृषि उत्पादन के लिए भी बेहद महत्वर्पूण हैं।

जैसे-जैसे इस क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन का असर बढ़ रहा है, उसकी वजह से बारिश का पैटर्न प्रभावित हो रहा है। इन बदलावों की वजह से भारी बारिश पहले से कहीं भीषण रूप ले चुकी है और इस तरह की बारिश कहीं ज्यादा होने लगी है।

गौरतलब है कि 1998 के बाद से सभी जिलों में रबी और खरीफ दोनों मौसमों में औसत बारिश में इजाफा हुआ है। आंकड़ों के मुताबिक जहां इस अवधि के दौरान कांगड़ा में खरीफ सीजन (जून से सितम्बर) के दौरान औसत बारिश में सबसे ज्यादा 1,053.24 मिलीमीटर का इजाफा रिकॉर्ड किया गया है।

वहीं रबी सीजन में यह बदलाव 189.96 मिलीमीटर था। यदि वार्षिक तौर पर देखें तो कांगड़ा में होने वाली बारिश में इस अवधि के दौरान 808.35 मिलीमीटर का इजाफा हुआ है।

अध्ययन के दौरान सबसे अधिक औसत वर्षा कांगड़ा जिले में दर्ज की गई जो 1445.89 मिलीमीटर रही। इसके बाद सिरमौर में 966.77, मंडी में 798.87 मिलीमीटर, बिलासपुर में 727.42, ऊना में 702.39 और सोलन में 642.79 मिलीमीटर बारश दर्ज की गई। गौरतलब है कि पिछले 37 वर्षों में खरीफ सीजन के दौरान बारिश में सबसे अधिक इजाफा कांगड़ा में दर्ज किया गया जो 1053.24 मिलीमीटर रहा। वहीं बारिश में सबसे कम वृद्धि सोलन में 177.59 मिलीमीटर दर्ज की गई।

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रबी सीजन के दौरान ऊना में 150.81 मिलीमीटर से कांगड़ा में 267.14 मिलीमीटर के बीच बारिश दर्ज की गई। वहीं हमीरपुर में रबी सीजन के दौरान औसतन 182.19 मिलीमीटर बारिश हुई।

कैसे किसानों को बदलावों के लिए किया जा सकता है तैयार

यदि फसलों पर इन बदलावों के प्रभावों की बात करें तो अध्ययन के मुताबिक अधिकतम तापमान में होती वृद्धि से मक्के की फसल को नुकसान हो रहा है। वहीं दूसरी तरफ रबी सीजन में इसकी वजह से गेहूं की पैदावार को फायदा हुआ है।

हालांकि यदि बारिश के पैटर्न में आते बदलावों को देखें तो इससे गेहूं और मक्का दोनों फसलों को फायदा पहुंचा है। रिसर्च के मुताबिक अधिकतम और न्यूनतम तापमान के साथ बारिश में इजाफे ने मंडी और सोलन में मक्का उत्त्पादन को फायदा पहुंचाया है। वहीं दूसरी तरफ इन बदलावों की वजह से कांगड़ा और ऊना में मक्का की उत्पादकता को काफी नुकसान हुआ है।

रिसर्च में यह भी सामने आया है कि सर्दियों के दौरान अधिकतम तापमान और बारिश में लम्बी अवधि के दौरान हुए इजाफे से गेहूं की उपज में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। वहीं दूसरी तरफ न्यूनतम तापमान ने इस पर कोई खास असर नहीं डाला है।

इस दौरान कांगड़ा और सिरमौर में गेहूं की उपज पर काफी सकारात्मक प्रभाव पड़ा है, जो दर्शाता है कि तापमान और बारिश में हुई वृद्धि ने इन जिलों में गेहूं के उत्पादन को बढ़ावा दिया है। वहीं जलवायु परिवर्तन की वजह से हमीरपुर, सोलन और ऊना जिलों में गेहूं की पैदावार में उल्लेखनीय कमी आई है।

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शोधकर्ताओं के मुताबिक जलवायु परिवर्तन की वजह से फसलों की पैदावार पर असर पड़ेगा, जिससे इसकी उपलब्धता और कीमतें भी प्रभावित होंगी। कई क्षेत्रों में अधिकतम और न्यूनतम तापमान में आते बदलाव मक्का और गेहूं दोनों फसलों में गिरावट की वजह बनेंगे।

ऐसे में इनसे निपटने के लिए सही रणनीतियों की जरूरत है। इनसे निपटने के लिए विभिन्न प्रकार की फसलों को एक साथ उगाना, वृक्षारोपण के साथ ऐसी फसलें लगाना जो कम पानी में जीवित रह सकती हैं। इसके साथ ही फसलों की बुवाई के समय में बदलाव करना और बदलते मौसम को ध्यान में रखते हुए फसलों का चयन करना जैसे उपाय किसानों के लिए फायदेमंद साबित हो सकते हैं।

2009 में किए एक अन्य अध्ययन के मुताबिक गेहूं की बुआई के समय में बदलाव करने से जलवायु परिवर्तन की वजह से होने वाले नुकसान को 60 से 75 फीसदी तक कम किया जा सकता है। इसी तरह सिंचाई पर ध्यान, जलग्रहण क्षेत्रों का प्रबंधन और बीमे की मदद से सूखे से होने वाले 70 फीसदी नुकसान को टाला जा सकता है।

इसके साथ ही शोधकर्ताओं ने किसानों को ऋण और फसल बीमा दिलाने में मदद करने पर जोर दिया है, ताकि वे जलवायु परिवर्तनों के प्रति अनुकूलन और सुरक्षा से जुड़ी रणनीतियों का उपयोग कर सकें।

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