
क्या आप जानते हैं कि जिन पौधों को लोगों का पेट भरने के लिए बोया जाता है, आज उनकी विविधता खतरे में है। भले ही दुनिया में पौधों की 6,000 से ज्यादा प्रजातियां बोई जाती हैं, लेकिन इसके बावजूद वैश्विक कृषि उत्पादन का 60 फीसदी हिस्सा महज नौ फसलों पर निर्भर है। इस बात का खुलासा संयुक्त राष्ट्र खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) ने 24 मार्च 2025 को जारी अपनी नई रिपोर्ट में किया है।
इन नौ फसलों में गन्ना, मक्का, धान, गेहूं, आलू, सोयाबीन, ताड़, चुकंदर और कसावा शामिल हैं।
“थर्ड रिपोर्ट ऑन द स्टेट ऑफ द वर्ल्डस प्लांट जेनेटिक रिसोर्सेज फॉर फूड एंड एग्रीकल्चर” नामक यह रिपोर्ट मुख्य रूप से 128 देशों और चार क्षेत्रीय एवं 13 अंतर्राष्ट्रीय अनुसंधान केंद्रों द्वारा साझा की गई जानकारी पर आधारित है।
एफएओ रिपोर्ट में यह भी सामने आया है कि दुनिया भर में किसानों द्वारा बोई जाने वाली फसलों को छह फीसदी विविधता खतरे में है। इस बारे में सर्वे किए गए 18 में से आधे क्षेत्रों में स्थिति कहीं ज्यादा चिंताजनक है। इन क्षेत्रों में फसलों की 18 फीसदी या उससे अधिक विविधता खतरे में है।
बता दें कि यह वे फसलें हैं जिन्हें किसानों ने पीढ़ियों से बोया, परखा और जांचा है। देखा जाए तो यह फसलें स्थानीय परिस्थितियों के अनुकूल होती हैं और खाद्य सुरक्षा के लिए बेहद मायने रखती हैं। इन फसलों को किसानों द्वारा उनके अनोखे गुणों, जैसे स्वाद, मौसम या उपज के लिहाज से चुना और सहेजा जाता है। साथ ही इसमें वे फसलें भी शामिल हैं जो स्थानीय रूप से समय के साथ स्वाभाविक रूप से विकसित हुई हैं।
रिपोर्ट में यह भी सामने आया है कि दक्षिणी अफ्रीका में फसलों की विविधता का सबसे अधिक नुकसान हुआ है। इसके बाद कैरिबियन और पश्चिमी एशिया देशों में स्थिति गंभीर है। वहीं दूसरी तरफ दक्षिणी एशिया, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड में किसानों द्वारा उगाई जा रही फसलों की विविधता पर सबसे कम खतरा देखा गया।
रिपोर्ट में यह भी पाया गया कि 2011 से 2022 के बीच 51 देशों में करीब साढ़े तीन करोड़ हेक्टेयर भूमि पर किसानों द्वारा संजोई किस्मों और स्थानीय प्रजातियों (एफवी/एलआर) को बोया गया। यह उच्च विविधता वाले क्षेत्रों में कुल फसल क्षेत्र के 44 फीसदी के बराबर है।
खेतों में संरक्षण की स्थिति के बारे में बात करते हुए रिपोर्ट में जिक्र किया गया है कि अध्ययन किए गए पौधों के करीब 42 फीसदी समूहों की या तो पूरी प्रजाति या उसकी विशिष्ट किस्मों पर उन खेतों में विलुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है, जहां वे प्राकृतिक रूप से उगाई जाती हैं।
भारत में भी संरक्षण के प्रयासों की है जरूरत
भारत में भी बड़े पैमाने पर फसलों की विविधता को रोकने के लिए संरक्षण के प्रयासों की आवश्यकता है। अध्ययन में सामने आया है कि देश के पांच कृषि-पारिस्थितिक क्षेत्रों में किसानों द्वारा बोई जाने वाली फसलों की 50 फीसदी किस्में और स्थानीय प्रजातियां खतरे में हैं। यह वो प्रजातियां हैं जिनके रिकॉर्ड मौजूद हैं।
हालांकि पिछले 10 वर्षों में अपने प्राकृतिक आवासों से बाहर बीजों के भंडारण और संरक्षण में प्रगति हुई है, फिर भी पौधों की विविधता को सुरक्षित रखने के लिए अभी भी कई समस्याओं का समाधान किया जाना बाकी है।
रिपोर्ट में यह भी कहा गया है, "कई देश में अभी भी प्राकृतिक आवासों से बाहर संरक्षण के लिए पर्याप्त राजनीतिक और वित्तीय सहायता का अभाव है। इसकी वजह से अक्सर सीमित या अनियमित वित्तपोषण, पर्याप्त प्रशिक्षित कर्मचारी की कमी तथा अपर्याप्त बुनियादी ढांचे जैसी समस्याएं पैदा होती हैं।“
रिपोर्ट में स्थानीय दालों के उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए बीज हब बनाने की भारत की 2016 की परियोजना पर भी प्रकाश डाला गया है। इसका उद्देश्य छोटे किसानों को अधिक उपज देने वाले दालों की किस्मों के नए बेहतर बीज उपलब्ध कराना है। इस परियोजना का ही नतीजा था कि देश में 2007-08 के दौरान जो दलहन उत्पादन 1.48 करोड़ टन था, वो 2020-21 में बढ़कर 2.44 करोड़ टन पर पहुंच गया।
फसलों की विविधता के लिए खतरा बन रहा जलवायु परिवर्तन
रिपोर्ट में यह भी सामने आया है कि एक तरफ जहां दुनिया में चरम मौसमी घटनाओं का कहर बढ़ रहा है। न केवल इन घटनाओं की संख्या बढ़ रही है साथ ही यह पहले से कहीं ज्यादा गंभीर होती जा रही हैं। वहीं दूसरी ओर कई देश फसलों की विविधता पर इन घटनाओं के प्रभाव को मापने में संघर्ष कर रहे हैं।
रिपोर्ट का कहना है आपदाओं के बाद, कृषि संबंधी नुकसान को आमतौर पर धन और पोषण के रूप में मापा जाता है, लेकिन कई देशों ने फसलों की विविधता पर आपदाओं के प्रभावों का आकलन करने में अंतर की सूचना दी है।
रिपोर्ट में अन्य चुनौतियों का भी जिक्र किया गया है, जैसे अच्छी गुणवत्ता वाले बीजों को खोजना तथा यह सुनिश्चित करना कि आपदाओं के बाद किसानों को दिए जाने वाले बीज स्थानीय परिस्थितियों और सांस्कृतिक वातावरण के अनुकूल हों, क्योंकि किसानों को दिए जाने वाले बीज हमेशा स्थानीय परिवेश के अनुकूल नहीं होते।