भले ही वैज्ञानिक रूप से हम अपने पुरखों से कहीं आगे हैं लेकिन समय के साथ उन्होंने जो समझ विकसित की थी, वो आने वाले भविष्य में भी जलवायु परिवर्तन से निपटने में हमारे लिए मददगार साबित हो सकती है।
ऐतिहासिक साक्ष्य भी इस बात की पुष्टि करते हैं कि हमारे पूर्वजों ने जलवायु में आते बदलावों से निपटने के लिए फसलों और जल प्रबंधन को लेकर रणनीतियां बनाई थी। यही वजह है कि वो बारिश की कमी के बावजूद बाजरा जैसे छोटे अनाज की पैदावार हासिल करने में कामयाब रहे और उनकी सभ्यता हजारों वर्षों तक फलती-फूलती रही।
इस बारे में बीरबल साहनी इंस्टीट्यूट ऑफ पैलियोसाइंसेज (बीएसआईपी) के नेतृत्व में शोधकर्ताओं ने एक नया अध्ययन किया है, जिसके नतीजे जर्नल क्वाटरनेरी साइंस एडवांसेज में प्रकाशित हुए हैं। अपने इस शोध में वैज्ञानिकों ने गुजरात के वडनगर का पुरातात्विक अध्ययन किया है। यह एक अर्ध-शुष्क क्षेत्र है। बता दें कि वडनगर एक अत्यंत प्राचीन शहर है, जहां हजारों वर्ष पहले भी खेती की जाती थी।
वैज्ञानिकों को भी वहां 2500 वर्षों तक मानव सभ्यता के फलने-फूलने के साक्ष्य मिले हैं। वैज्ञानिकों ने इस बात की भी जांच की है कि वहां इस दौरान पर्यावरण और जलवायु में कैसे बदलाव आए थे। इन्हें समझने के लिए उन्होंने ने पुरातात्विक निष्कर्षों, पौधों और वनस्पति से जुड़े आंकड़ों और आइसोटोप का उपयोग किया है।
अध्ययन में पिछले करीब 2000 वर्षों के दौरान बारिश में आए बदलावों और उनके प्रभावों को समझने का प्रयास किया गया है। वहां बारिश में आए इन बदलावों के साथ फसलों, वनस्पति और संस्कृति में भी किस तरह बदलाव आया था, वैज्ञानिकों ने इसको भी उजागर किया है, ताकि यह समझा जा सके कि अतीत में लोग जलवायु में आते बदलावों का किस तरह सामना किया करते थे।
इस रिसर्च के जो नतीजे सामने आए हैं उनके मुताबिक जलवायु में बदलाव के बावजूद, लोगों ने अपने द्वारा उगाई जाने वाली फसलों में फेर बदल करके जलवायु में आते बदलावों के प्रति अनुकूलन किया था।
अध्ययन के मुताबिक इस साइट पर जो चीजे मिली हैं वो ईसा पूर्व पहली शताब्दी से 19वीं शताब्दी के बीच सात अलग संस्कृतियों के क्रमिक इतिहास को दर्शाती हैं। वहां इतिहास में उगाई जाने वाली फसलों के जो साक्ष्य सामने आए हैं उनके मुताबिक प्राचीन और मध्य युग के दौरान पर्याप्त मात्रा में पानी उपलब्ध था, जिस वजह से उस समय बड़े दाने वाले अनाज उगाए जाते थे।
लेकिन मध्यकाल के बाद करीब करीब 1300 से 1850 ईसा पूर्व वहां लोगों ने बाजरा जैसे मोटे अनाज पर ध्यान केंद्रित करना शुरू कर दिया। उनके द्वारा फसलों में किया यह बदलाव जलवायु के प्रति उनके अनुकूलन को दर्शाता है।
वैज्ञानिकों के मुताबिक इस दौरान भले ही लंबे समय से गर्मियों के दौरान नमी की कमी थी, लेकिन वैज्ञानिकों का मानना है कि प्रभावी जल प्रबंधन के साथ-साथ जलवायु अनुकूल कृषि ने वडनगर शहर को इन बदलावों का मजबूती से सामना करने में मदद की थी।
यह इस बात का उदाहरण है कि कमजोर मानसून से निपटने के लिए हमारे पूर्वजों ने कैसे अपनी कृषि पद्धतियों में बदलाव किए थे। देखा जाए तो जिस तरह से जलवायु में बदलाव आ रहा है और देश में मानसून का मिजाज बदल रहा है, उसको देखते हुए हम अपने पूर्वजों से बहुत कुछ सीखने की जरूरत है। जो आने वाले मुश्किल के समय का सामना करने में हमारे लिए मददगार साबित हो सकता है।