
भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा जारी मासिक बुलेटिन में कहा गया है कि अत्यधिक या अपर्याप्त वर्षा जैसी चरम मौसमीय संबंधी घटनाओं के कारण फसलों को भारी नुकसान पहुंचता है, जिससे उत्पादन में बाधा उत्पन्न होती है और परिणामस्वरूप उपज में कमी आती है। यहां तक कि उपज की गुणवत्ता में भी कमी आती है।
इस बुलेटिन में खरीफ फसलों के उत्पादन पर विभिन्न जिलों में वर्षा की स्थानीय भिन्नता के प्रभाव का विस्तृत रूप से विश्लेषण किया गया है। इसमें यह भी बताया गया है कि किसी विशेष अवधि में कम या अधिक वर्षा किस प्रकार विशिष्ट फसलों के उत्पादन को प्रभावित करती है। रिपोर्ट में कहा गया है कि चरम मौसम की घटनाओं का समय महत्वपूर्ण है क्योंकि फसल उत्पादन चक्र अलग-अलग होते हैं।
जून और जुलाई के महीनों में अपर्याप्त वर्षा से अनाज और दालों के उत्पादन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है जबकि तिलहन फसलें कटाई अवधि (अगस्त-सितंबर) के दौरान अत्यधिक वर्षा से विशेष रूप से प्रभावित होती हैं।
रिपोर्ट के मुताबिक अब भी भारतीय खेती पूरी तरह से मानसून पर ही निर्भर है। तमाम प्रकार की सिंचाई परियोजनाओं के जाल बिछाने और जलवायु परिवर्तन के असर से बचने के लिए तैयार नई किस्म के बीजों के बावजूद मानसूनी बारिश अब भी निर्णयाक बनी हुई है। दक्षिण- पश्चिम मानसून के दौरान होने वाली बारिश खरीफ की फसलों के लिए अब भी बहुत अधिक जरूरी है।
बारिश के पैटर्न बदलने या सूखा आदि पड़ने पर फसल का चक्र बदल जाता है और ऐसे में फसल में कीटों और फसलों से जुड़ी बीमारियां घेर लेती हैं। यह देखा गया है कि पर्याप्त या सामान्य बारिश होने से खेती की उत्पादकता बढ़ जाती है। यह देखा गया है कि मानसूनी की अच्छी बारिश रबी के लिए अच्छी होती है। मिट्टी में पर्याप्त नमी रहने और जलाशय में पानी की पर्याप्त मात्रा में रहने से गेहूं, सरसो और दलहन की बुआई के लिए अनुकूल स्थिति होती है।
यदि खरीफ की फसल के दलहन, तिलहन, चावल और मोटे आनाज के आंकड़ें देखें तो इनकी सालाना वृद्धि दक्षिण-पश्चिम मानसून पर निर्भर रहती है। यदि अच्छा रहा तो वृद्धि अधिक होती है और ठीक नहीं रहा तो कम होती है। अध्ययन में कहा गया है कि उत्पादन इस बात पर निर्भर रहता है कि मानसून कब मेहरबान होता है। यदि जून और जुलाई के माहों में बारिश कम होती है तो सोयाबीन, मक्का और दलहन के लिए मिट्टी की नमी कम रहती है और ऐसे में इन फसलों की बुआई प्रभावित होती है। ऐसे हालात में जब किसान बुआई कर भी देते हैं तो पौधों के बढ़ने की रफ्तार कम हो जाती है।
इसी प्रकार जब कटाई का समय आता है तो यदि अधिक बारिश हुई तो तिलहन का उत्पादन कम हो जाता है। पिछले साल के अच्छी बारिश और सटिक ठंड के कारण इस चालू वित्त वर्ष में उत्पादन के ठीक रहने का अनुमान है। यदि इसे आंकड़ों में देखें तो पिछले साल के खरीफ उत्पादन में 7.9 और रबी का छह प्रतिशत तक बढ़ने का अनुमान है।
ध्यान रहे कि इन सभी अनुमानों के बीच जलवायु परिवर्तन के कारण बारिश के पैटर्न में होने वाले बदलााव से कृषि उत्पादकता बुरी तरह से प्रभावित हो सकती है। अब मौसम की अति कोई अनोखी बात नहीं रह गई है। पिछले साल यानी 2024 के 365 दिन में से 322 दिन मौसम में अति देखी गई जबकि 2023 में 318 दिन ऐसे थे। जब तक इन प्रतिकूल परिस्थितियों से मुकाबला करने के लिए अनुकूल नीतियां नहीं बनेंगी तब तक ऐसी घटनाओं दिनोदिन बढ़ती ही जाएंगी।
जलवायु परिवर्तन के कारण लगातार बाढ़ में हो रही बढ़ोतरी से फसलों के उत्पादन में कमी और पोषक तत्वों में कमी होने का खतरा लगातार बढ़ते जा रहा है। बदलती परिस्थितियों के देखते हुए जलवायु के अनुकूल खेती करनी होगी।