8000 वर्षों से भी ज्यादा पुराना है सूअरों का जंगलों से खेतों तक का सफर

भोजन, कचरा और व्यवहार में बदलाव ने शुरू की सूअरों के पालतू होने की कहानी
वैज्ञानिक खुलासे में सामने आया है कि इंसानों ने सबसे पहले दक्षिण चीन में जंगली सूअरों को पालतू बनाया था; फोटो:आईस्टॉक
वैज्ञानिक खुलासे में सामने आया है कि इंसानों ने सबसे पहले दक्षिण चीन में जंगली सूअरों को पालतू बनाया था; फोटो:आईस्टॉक
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सूअर एक ऐसा जीव जिसको लेकर दुनिया भर में तरह-तरह की धारणाएं हैंकुछ लोग इन्हें गंदा और आलसी मानते हैं, तो कुछ इनकी बुद्धिमत्ता और कृषि में ऐतिहासिक भूमिका की सराहना करते हैं। लेकिन क्या आप जानतें हैं कि इस जीव का जंगलों से खेतों तक पहुंचने का सफर बेहद लम्बा है।

एक चौंकाने वाले वैज्ञानिक खुलासे में सामने आया है कि इंसानों ने सबसे पहले दक्षिण चीन में जंगली सूअरों को पालतू बनाया था। यही नहीं, ये सूअर उस समय इंसानों का बचा-पका खाना खाते थे, यहां तक कि इंसानों की गंदगी में भी अपना भोजन तलाश रहे थे।

यह खुलासा दक्षिणी चीन में मिले 8,000 साल पुराने सूअरों के दांतों के अध्ययन से हुआ है।

दांतों में छिपी जंगली से पालतू बनने की कहानी

इस अध्ययन के नतीजे इस महीने जर्नल प्रोसीडिंग्स ऑफ द नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज (पनास) में प्रकाशित हुए हैं।

कई वर्षों से पुरातत्वविद और मानवविज्ञानी यह मानते रहे हैं कि सूअरों को सबसे पहले पालतू बनाने की शुरुआत मौजूदा चीन में हुई थी। यह सबकुछ करीब 10,000 साल पहले नवपाषाण काल में शुरू हुआ, जब इंसान शिकार और जंगलों से भोजन जुटाने के बजाय खेती करने लगे थे।

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गौरतलब है कि 10,000 साल पहले भी जंगली सूअर बड़े और आक्रामक थे, जो अकेले रहना पसंद करते थे। ये मूल रूप से एशिया, उत्तरी अफ्रीका और यूरोप के कई हिस्सों में पाए जाते हैं, लेकिन अब उत्तर और दक्षिण अमेरिका के साथ-साथ ओशिनिया में भी मिलते हैं। ये आमतौर पर जंगलों में रहते हैं और जमीन खोदकर खाना तलाशते हैं। पालतू सूअरों के मुकाबले इनके सिर, मुंह और दांत काफी बड़े होते हैं।

वैज्ञानिक जब यह जानना चाहते हैं कि सूअर और दूसरे जानवर कब और कैसे पालतू बने, तो वे उनकी हड्डियों का अध्ययन करते हैं। वे देखते हैं कि हड्डियों का आकार पहले कैसा था और बाद में कैसे बदला। लेकिन वैज्ञानिक वांग कहती हैं कि जानवरों का शरीर तो बहुत बाद में छोटा हुआ, असली बदलाव तो उनके स्वभाव में पहले आया था।

अध्ययन से जुड़ी शोधकर्ता और मानवविज्ञानी जियाजिंग वांग का कहना है, “ज्यादातर जंगली सूअर स्वभाव से आक्रामक होते हैं, लेकिन कुछ थोड़े शांत और इंसानों से डरते नहीं हैं। यही सूअर इंसानों के पास रहने लगे, क्योंकि इंसानों के साथ रहने से उन्हें आसानी से खाना मिलने लगा, इसलिए उन्हें अपने मजबूत शरीर की जरूरत नहीं रही। समय के साथ उनका शरीर छोटा होता गया और दिमाग का आकार भी करीब एक-तिहाई तक घट गया।“

इंसानों से दोस्ती का पहला कदम था खाना!

अपने इस नए अध्ययन में वैज्ञानिकों ने एक अलग तरीका अपनाया है। उन्होंने सूअरों के दांतों पर माइक्रोफॉसिल जांच की है जिससे यह पता लगाया जा सके कि इन सूअरों ने अपने जीवन में क्या-क्या खाया था।

इसके लिए उन्होंने दक्षिण चीन की यांग्त्से नदी घाटी की 8,000 साल पुरानी दो मानव बस्तियों जिंगतौशान और कुआहुकियाओ से मिले 32 सूअरों के दांत की जांच की है। यह क्षेत्र दलदली था, जिससे सूअरों के दांतों पर जमी जैविक परत (डेंटल कैल्कुलस) भी सुरक्षित रह गई।

जब इन दांतों का माइक्रोफॉसिल विश्लेषण किया गया, तो उनके अंदर से स्टार्च के 240 कण मिले, जो पकाए गए चावल, याम, अज्ञात कंद, बलूत और जंगली घासों से संबंधित थे। साफ था कि ये जानवर इंसानों का पका हुआ खाना और खेतीबाड़ी का कचरा खा रहे थे।

इससे पहले के अध्ययनों में इन दोनों जगहों पर चावल के पाए जाने के सबूत मिले हैं, खासकर कुआहुकियाओ में जहां बड़े पैमाने पर धान की खेती होती थी। यह जगह समुद्र से दूर है और यहां मीठे पानी की ज्यादा उपलब्धता थी, जबकि जिंगतौशान समुद्र के पास है। दूसरी खोजों में कुआहुकियाओ से पीसने के पत्थरों और बर्तनों में भी स्टार्च के निशान मिले हैं।

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वांग के मुताबिक हमें पता है कि सूअर खुद खाना नहीं पकाते, तो जाहिर है कि उन्हें यह खाना इंसानों से मिल रहा था। ऐसे में या तो इंसान उन्हें खिला रहे थे या वे इंसानों का बचा-खुचा खाना खा रहे थे।

जानवरों को पालतू बनाने की यह प्रक्रिया "कॉमेंसल पाथवे" कहलाती है, जब कोई जानवर खुद इंसानी बस्तियों की तरफ आकर्षित होता है, बजाय इसके कि इंसान उसे पकड़कर पालतू बनाएं। यह वही तरीका है जिससे बिल्लियां और कुछ अन्य जानवर भी पालतू बने थे।

सबूत यह भी दिखाते हैं कि उस समय कुछ सूअर इंसानों की निगरानी में रह रहे थे। यानी पालतू बनाए जाने की प्रक्रिया में सिर्फ कॉमेंसल रास्ता ही नहीं था, बल्कि एक दूसरा तरीका भी था, जिसे "प्रे पाथवे" कहते हैं—जहां इंसान जानवरों को पकड़कर अपने नियंत्रण में रखते हैं।

एक और अहम सुराग इंसानों की मौजूदगी का पता देता है। सूअरों के दांतों में इंसानों के पेट में पाए जाने वाले परजीवी व्हिपवर्म के अंडे मिले। ये अंडे आमतौर पर इंसानों की आंतों में पनपते हैं। सूअरों के 16 दांतों में भूरे-पीले, फुटबॉल जैसे आकार वाले ये परजीवी अंडे पाए गए। इसका मतलब है कि सूअर या तो इंसानी मल खा रहे थे, या ऐसा पानी या खाना जो इंसानी गंदगी से दूषित था।

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वैज्ञानिकों ने सूअरों के दांतों की बनावट का सांख्यिकीय विश्लेषण भी किया। कुछ सूअरों के दांत छोटे पाए गए, जो आज के पालतू सूअरों से मेल खाते हैं और चीन में अब भी देखे जाते हैं।

अब तक वैज्ञानिक पालतू जानवरों के कंकाल की बनावट से पालतू होने का अनुमान लगाते रहे हैं। लेकिन वांग कहती हैं कि आकार में छोटा होना पालतूपन का आखिरी चरण होता है, असली बदलाव व्यवहार में पहले आता है जैसे इंसानों को सहन करना, आक्रामकता छोड़ना। दांतों में छिपी इस जानकारी से पहली बार पालतू बनने की शुरुआत का पता चला है कि कैसे जंगली सूअर धीरे-धीरे इंसानी जीवन का हिस्सा बन गए।

जैसे-जैसे इंसान शिकारी से किसान बनने लगे, गांव बसने लगे और खाना पकाया जाने लगा, वहां भोजन और कचरा एकत्र होने लगा। यह कचरा जंगली जानवरों को आकर्षित करने लगा, और यही बना उनके पालतू बनने का आधार। शोधकर्ताओं के मुताबिक यह अध्ययन न सिर्फ इन जीवों के पालतू होने की शुरुआत को उजागर करता है, बल्कि यह भी दिखाता है कि किस तरह परजीवी रोग इंसान और जानवर के घनिष्ठ संबंध से फैल सकते हैं। 

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