कुछ विशिष्ट वन समुदायों तक ही सीमित नहीं वन अधिकारी द्वारा वनवासियों के दावों को सुनने का अधिकार: सुप्रीम कोर्ट

अदालत का कहना है कि ऐसे दावों पर सुनवाई का अधिकार केवल कुछ समुदायों तक ही कैसे सीमित किया जा सकता है जब जमीन पर रहने का अधिकार उन्हीं तक सीमित नहीं है
कुछ विशिष्ट वन समुदायों तक ही सीमित नहीं वन अधिकारी द्वारा वनवासियों के दावों को सुनने का अधिकार: सुप्रीम कोर्ट
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पांच जुलाई, 2023 को दिए सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में स्पष्ट कर दिया है कि वन अधिकारी द्वारा वनवासियों के दावों को सुनने का अधिकार कुछ विशिष्ट मान्यता प्राप्त वन समुदायों तक ही सीमित नहीं है।

इस मामले में न्यायमूर्ति कृष्ण मुरारी और अहसानुद्दीन अमानुल्लाह की पीठ का कहना है कि, "वन अधिनियम की धारा चार के तहत अधिसूचित भूमि पर कब्जा प्राप्त करने का अधिकार केवल आदिवासी समुदायों और अन्य वनवासी समुदायों तक सीमित नहीं है। यह निवास के प्रमाण और मूल कब्जे की तारीख जैसे कारकों पर भी आधारित है।" अदालत का कहना है कि ऐसे दावों पर सुनवाई का अधिकार केवल कुछ समुदायों तक ही कैसे सीमित किया जा सकता है जब जमीन पर रहने का अधिकार उन्हीं तक सीमित नहीं है।

इसका मतलब है कि सभी वनवासी चाहे वे किसी भी समुदाय के हों, उनके पास वन भूमि पर उनके दावों से संबंधित मामलों में सुनवाई का अधिकार होना चाहिए। इस मामले में पीठ ने चार फरवरी, 2013 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा पारित आदेश को रद्द कर दिया है।

अपीलकर्ता, विचाराधीन भूमि के भूस्वामी होने का दावा करते हैं। वो 1952 में जमींदार द्वारा उन्हें स्थाई पट्टा दिए जाने के बाद से वे कृषि उद्देश्यों के लिए इस भूमि का उपयोग कर रहे हैं। उनका आगे कहना है कि भूमि का एक हिस्सा, जिसमें वो टुकड़ा भी शामिल है, जिस पर वे वर्तमान में काबिज हैं, उसको आरक्षित वन क्षेत्र के रूप में नामित किया गया है। वहीं भूमि के शेष हिस्से को आरक्षित वन घोषित करने के लिए वन अधिनियम की धारा 4 के अंतर्गत अधिसूचित किया गया है।

उन्होंने आगे बताया कि भूमि का एक हिस्सा, जिसमें वह हिस्सा भी शामिल है जिस पर वे वर्तमान में कब्जा करते हैं, को आरक्षित वन के रूप में नामित किया गया है। भूमि के शेष भाग को आरक्षित वन घोषित करने हेतु वन अधिनियम की धारा 4 के अंतर्गत अधिसूचित किया गया है।

जब इस विचाराधीन भूमि को आरक्षित वन घोषित किया गया, तो स्थानीय निवासियों को वहां से हटाया जाने लगा। इसके जवाब में स्थानीय निवासियों के अधिकारों की वकालत करते हुए बनवासी सेवा आश्रम से प्राप्त एक पत्र के आधार पर सुप्रीम कोर्ट में एक रिट याचिका दायर की गई। वहीं 20 नवंबर, 1986 को सुप्रीम कोर्ट ने एक आदेश जारी कर विवादित भूमि के संबंध में लोगों के दावों पर निर्णय लेने के उद्देश्य से एक उच्चाधिकार प्राप्त समिति के गठन का निर्देश दिया। अदालत ने यह भी निर्देश दिया था कि इन दावों की सुनवाई वन निपटान अधिकारी अधिकारी द्वारा की जानी चाहिए।

वन बंदोबस्त अधिकारी ने माना कि अपीलकर्ताओं का 1385 फसली (एक फसल-आधारित कैलेंडर) से पहले भी विचाराधीन भूमि पर कब्जा रहा है, जो भूमि पर उनके दावों को सही साबित करता है। हालांकि प्रतिवादी के रूप में वन विभाग ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में एक रिट याचिका दायर की थी। इसके बाद, उच्च न्यायालय ने वन विभाग के पक्ष में फैसला लेते हुए, अपीलकर्ताओं को जमीन से बेदखल करने का आदेश दिया था।

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