जैव विविधता संरक्षण और जलवायु में बदलाव को कम करना एक दूसरे से गहनता से जुड़े हुए हैं, लेकिन ऐतिहासिक रूप से उन्हें अलग-अलग चुनौतियों के रूप में देखा गया है। हालांकि, दुनिया भर में जैव विविधता में हो रही गिरावट और जलवायु परिवर्तन के बढ़ते प्रभावों की तीव्र गति को देखते हुए इन उद्देश्यों को हासिल करने के लिए दोनों लक्ष्यों को शामिल करना अति आवश्यक है।
अब एक नए अध्ययन में कहा गया है कि भारत के अपने लुप्तप्राय बाघों की रक्षा के प्रयासों से जलवायु परिवर्तन को कम किया है। इस प्रयास ने अनजाने में ही सही, पेड़ों की कटाई को रोककर बड़ी मात्रा में जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाले कार्बन उत्सर्जन को रोकने में मदद की है।
दुनिया के तीन-चौथाई जंगलों में रहने वाले बाघ भारत में रहते हैं, लेकिन उनके प्राकृतिक आवास के विनाश के कारण उनकी संख्या में गिरावट देखी जा रही है। देश के जंगलों में घूमने वाले बाघों की संख्या 1947 में 40,000 से गिरकर 2006 में केवल 1,500 रह गई थी।
हालांकि नवीनतम आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक, इस साल उनकी संख्या 3,000 के पार हो गई है। उनकी संख्या को फिर से बढ़ाने में मदद करने के लिए, भारत ने 52 बाघ अभयारण्यों को नामित किया है जहां लॉगिंग और वनों की कटाई को कठोर तरीके से नियंत्रित किया जा रहा है।
नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ सिंगापुर के एक शोधकर्ता और नए अध्ययन के प्रमुख अध्ययनकर्ता आकाश लांबा ने बताया कि बाघ एक अम्ब्रेला प्रजाति हैं। उन्होंने बताया कि, इसका मतलब है कि उनकी रक्षा करके हम उन जंगलों की भी रक्षा करते हैं जिनमें वे रहते हैं, जो वन्यजीवों की भारी विविधता का घर हैं।
यहां बताते चलें कि, अम्ब्रेला प्रजातियां संरक्षण-संबंधी निर्णय लेने के लिए चुनी गई प्रजातियां हैं, आमतौर पर इन प्रजातियों की रक्षा से अप्रत्यक्ष रूप से कई अन्य प्रजातियों की रक्षा होती है जो उनके निवास स्थान के पारिस्थितिकी तंत्र को बनाती हैं।
जंगल एक तरह से कार्बन ग्रहण या सिंक के रूप में काम करते हैं, जिसका अर्थ है कि वे जितना कार्बन डाइऑक्साइड छोड़ते हैं उससे अधिक वातावरण से अवशोषित करते हैं, जिससे वे जलवायु परिवर्तन के खिलाफ मुकाबले में अति महत्वपूर्ण हो जाते हैं।
दुनिया में ग्रीन हाउस गैसों के तीसरे सबसे बड़े उत्सर्जक भारत ने अपने उत्सर्जन को कम करने का संकल्प लिया है।
बाघ संरक्षण और कार्बन उत्सर्जन के बीच संबंध
लांबा ने कहा कि शोधकर्ताओं की टीम ने बाघ संरक्षण और कार्बन उत्सर्जन के बीच एक अनुभव के आधार पर संबंध स्थापित करने की कोशिश की है।
उन्होंने विशेष बाघ अभयारण्यों में पेड़ों की कटाई की दर की तुलना उन क्षेत्रों से की जहां बाघ भी रहते हैं, लेकिन बहुत ज्यादा संरक्षित नहीं हैं। अध्ययन के अनुसार, 2001 से 2020 के बीच 162 विभिन्न क्षेत्रों में 61,000 हेक्टेयर से अधिक जंगल नष्ट हो गए थे। इन इलाकों में, जंगलों की कटाई का तीन चौथाई से अधिक बाघ अभयारण्यों के बाहर के इलाके थे।
2007 से 2020 के बीच टाइगर रिजर्व के अंदर, लगभग 6,000 हेक्टेयर में उगे पेड़ों को काटे जाने से बचाया गया। यह 10 लाख मीट्रिक टन से अधिक कार्बन उत्सर्जन से बचने के बराबर है, जैसा कि अध्ययन में अनुमान लगाया गया है।
एक अन्य अध्ययन में यह निष्कर्ष सामने आया है कि व्हेल, भेड़िये और ऊदबिलाव जैसे मुट्ठी भर जंगली जानवरों को बचाने या बहाल करने से हर साल 6.4 अरब टन कार्बन डाइऑक्साइड को कैप्चर करने या लगाम लगाने में मदद मिल सकती है।
लांबा ने उस देश में बचाए गए उत्सर्जन के आर्थिक प्रभाव पर जोर दिया जो जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से बुरी तरह प्रभावित हुआ है, विशेष रूप से कृषि उद्योग।
शोधकर्ताओं ने गणना करके बताया कि, उन उत्सर्जनों की सामाजिक लागत को ध्यान में रखते हुए, 92 मिलियन डॉलर से अधिक की बचत की गई थी।
उन्होंने कहा कि अगर कार्बन ऑफसेट योजना के हिस्से के रूप में गिना जाता है, तो वनों की कटाई से छह मिलियन डॉलर से अधिक की राशि का फायदा होता है।
लांबा ने कहा, कार्बन उत्सर्जन से बचने का वित्तीय लाभ भारत में बाघ संरक्षण पर वार्षिक खर्च के एक चौथाई से अधिक है।
उन्होंने कहा, यह महत्वपूर्ण परिणाम इस बात पर प्रकाश डालते हैं कि वन्यजीव संरक्षण में निवेश न केवल पारिस्थितिकी तंत्र और वन्यजीवन की रक्षा करता है बल्कि समाजों और अर्थव्यवस्थाओं को भी फायदा पहुंचाता है। यह अध्ययन नेचर इकोलॉजी एंड इवोल्यूशन पत्रिका में प्रकाशित हुआ है।