
दुनिया में फंगी यानी कवकों की 25 लाख से ज्यादा प्रजातियां हैं, जिनमें 90 फीसदी से भी ज्यादा से दुनिया अनजान है। चिंता की बात यह है कि इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर (आईयूसीएन) ने पुष्टि की है कि कवकों की हजार से ज्यादा प्रजातियों पर खतरा मंडरा रहा है।
गौरतलब है कि आईयूसीएन रेड लिस्ट में अब तक 169,420 प्रजातियों को शामिल किया जा चुका है, इनमें से 47,187 प्रजातियों पर विलुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है। इस लिस्ट में हाल ही में कवकों की 482 प्रजातियों को ओर जोड़ा गया है।
इस तरह लिस्ट में शामिल कवकों की कुल प्रजातियों की संख्या बढ़कर 1,300 पर पहुंच गई है। इनमें से 411 प्रजातियां ऐसी हैं जिनके यदि संरक्षण के प्रयास न किए गए तो वो जल्द ही विलुप्त हो सकती हैं।
इसके कारणों को उजागर करते हुए आईयूसीएन ने 27 मार्च 2025 को जारी अपडेट में कहा है कि दुनिया में जिस तरह जंगलों का विनाश हो रहा है, कृषि के लिए भूमि साफ की जा रही है और शहर तेजी से अपने पैर पसार रहे हैं, उसकी वजह से कवकों की संख्या में गिरावट आ रही है।
खेतों, शहरों के विस्तार से सिकुड़ रहे हैं इनके प्राकृतिक आवास
आईयूसीएन के मुताबिक खेतों और शहरों के तेजी से होते विस्तार ने कवकों के प्राकृतिक आवासों को नष्ट कर दिया है। इसकी वजह से 279 प्रजातियां खतरे में पड़ गई हैं।
इसी तरह उर्वरक और इंजन से हो रहे प्रदूषण से नाइट्रोजन और अमोनिया का रिसाव हो रहा है, जिसने कवकों की 91 प्रजातियों को खतरे में डाल दिया है। यूरोप में स्थिति विशेष रूप से गंभीर है, जहां सुप्रसिद्ध पारम्परिक कवकों, जैसे कि वल्नरेबल फाइबरस वैक्सकैप (हाइग्रोसाइब इंटरमीडिया) जैसी प्रजाति खतरे में पड़ गई है।
लकड़ी के लिए काटे जा रहे पेड़, वनों की अवैध कटाई और कृषि से कम से कम कवकों की 198 प्रजातियों को खतरा है। दुनिया में जिस तरह पुरातन जंगलों को काटा जा रहा है, वो विशेष रूप से इनके लिए खतरा है। इसकी वजह से कवक फिर जल्दी से दोबारा पनप नहीं पा रहे हैं।
आंकड़ों पर नजर डालें तो 1975 से, फिनलैंड, स्वीडन और रूस में पुराने देवदार के 30 फीसदी जंगल काटे जा चुके हैं। इसकी वजह से विशालकाय नाइट (ट्राइकोलोमा कोलोसस) जैसी प्रजातियां खतरे में पड़ गई हैं।
आईयूसीएन के अनुसार जलवायु में आता बदलाव भी कवकों पर भारी पड़ रहा है। अमेरिका में, आग लगने के पैटर्न में आते बदलावों ने जंगलों को काफी हद तक बदल दिया है। इससे कवकों की 50 से अधिक प्रजातियां खतरे में पड़ गई हैं। 1980 के बाद से, सिएरा नेवादा के उंचें पहाड़ों पर देवदार के पेड़ हावी हो गए हैं। नतीजन खतरे में पड़े कवक गैस्ट्रोबोलेटस सिट्रिनोब्रुनियस के आवास सिकुड़ गए हैं।
देखा जाए तो कवक अपना खुद का एक अलग साम्राज्य बनाते हैं, जो जानवरों के बाद दूसरा सबसे विशाल है। इसमें कवकों की करीब 25 लाख प्रजातियां शामिल हैं। हालांकि अब तक इनमें से केवल 155,000 की पहचान हो पाई है और उन्हें नाम दिया गया है।
90 फीसदी प्रजातियों से अनजान दुनिया
यदि 2020 से देखें तो अब तक कवकों की केवल 10,200 प्रजातियों को लिस्ट किया जा सका है। मतलब की हम हर साल औसतन 2,500 प्रजातियों को ही दर्ज कर रहे हैं। इस लिहाज से यदि हिसाब लगाएं तो उनकी पूरी विविधता के बारे में जानकारी एकत्र करने में हमें कई सदियां लग जाएंगी। विडम्बना देखिए कि जब तक उनके बारे में पता चलेगा तब तक कई प्रजातियां तो विलुप्त भी हो चुकी होंगी।
इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर (आईयूसीएन) की रेड लिस्ट को देखें तो इसमें कवकों की ज्ञात प्रजातियों में से केवल 0.4 फीसदी का ही मूल्यांकन किया गया है, जो उनकी कुल प्रजातियों का केवल 0.02 फीसदी ही है।
भले ही हमें यह कवक उतने महत्वपूर्ण न लगें लेकिन यह प्रजातियां हमारे इकोसिस्टम के लिए पौथों की तरह ही महत्वपूर्ण हैं। ये पारिस्थितिकी तंत्र के लिए आवश्यक हैं और पौधों को पोषक तत्वों को अवशोषित करने और अपघटन को सक्षम बनाने में मदद करती हैं। इंसानों द्वारा इनका उपयोग भोजन, दवा और प्रदूषित स्थानों की सफाई में भी किया जाता है।
आईयूसीएन के महानिदेशक डॉक्टर ग्रेथेल एगुइलर का कहना है कि कवक पृथ्वी पर जीवन के गुमनाम नायक हैं। यह स्वस्थ पारिस्थितिकी तंत्र की नींव रखते हैं, फिर भी लंबे समय से इन्हें अनदेखा किया गया है।" उनका आगे कहना है कि "अब कवकों के साम्राज्य की रक्षा करने का समय आ गया है, जिसके विशाल भूमिगत नेटवर्क जीवन और प्रकृति को बनाए रखने में मदद करते हैं।"
बता दें कि यह कवक पेड़-पौधों के अस्तित्व को बनाए रखने के साथ कार्बन को नियंत्रित करने में भी अहम भूमिका निभाते हैं। अध्ययन से पता चला है कि मिट्टी में मौजूद यह कवक वैश्विक स्तर पर करीब 1,312 करोड़ टन कार्बन को स्टोर करने में भी मदद करते हैं। सोखे गए कार्बन की यह मात्रा कितनी बड़ी है इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि यह हर साल जीवाश्म ईंधन द्वारा उत्सर्जित हो रहे कार्बन के करीब 36 फीसदी हिस्से के बराबर है।
ऐसे में वैज्ञानिकों का मानना है कि यह कवक शुद्ध शून्य उत्सर्जन के लक्ष्यों को हासिल करने में काफी मददगार साबित हो सकते हैं।
अपडेट में यह भी सामने आया है कि यमन के सोकोट्रा द्वीप पर लोहबान (बोसवेलिया) की पांच प्रजातियों पर गंभीर खतरा मंडरा रहा है। आईयूसीएन के मुताबिक बकरियों की चराई और लंबे समय तक सूखे के चलते युवा पेड़ बढ़ने के लिए संघर्ष करते हैं।
बकरियां हजारों वर्षों से सोकोट्रा की चरवाही परंपरा का हिस्सा रही हैं, लेकिन पारंपरिक चराई में कमी और पिछली सदी में झुंडों के बढ़ते आकार ने चारागाह पर दबाव बढ़ा दिया है। 2015 और 2018 जैसे मजबूत चक्रवात, अचानक बाढ़ और भूस्खलन ने भी कई पेड़ों को नुकसान पहुंचाया है।
भारत में संरक्षण के प्रयास हो रहे हैं सफल
आईयूसीएन रेड लिस्ट में 100 से ज्यादा ग्रीन स्टेटस आकलन शामिल हैं, जो प्रजातियों की रिकवरी और संरक्षण की सफलता को ट्रैक करते हैं। इस नए ग्रीन स्टेटस आकलन से पता चला है कि कैसे संरक्षण के लिए किए जा रहे प्रयासों से शेरों जैसी प्रजातियों को बचाने में मदद मिल रही है।
शेरों की पहली ग्रीन स्टेटस जांच से पता चला था कि वे कई जगहों से गायब हो चुके हैं। वे अभी भी खतरे में हैं और आईयूसीएन रेड लिस्ट में उन्हें संवेदनशील के रूप में लिस्ट किया गया है।
वहीं आज जारी ग्रीन स्टेटस से पता चला है कि इंसानी गतिविधियां पारिस्थितिकी तंत्र में इसकी भूमिका को सीमित कर रही हैं। शेर कई क्षेत्रों से गायब हो रहे हैं और उत्तरी अफ्रीका और दक्षिण-पश्चिम एशिया में विलुप्त हो रहे हैं।
हालांकि, संरक्षण के लिए किए जा रहे प्रयासों ने अफ्रीका और भारत के कुछ हिस्सों में उन्हें बचाने में मदद की है।