डाउन टू अर्थ खास: सहूलियत के नाम पर आदिवासियों से छीना जा रहा है वनाधिकार

मध्य प्रदेश में खारिज किए जा चुके वन अधिकारों के दावों की समीक्षा के लिए वेब पोर्टल लॉन्च किया गया। लेकिन, इससे दावेदारों को तो सुविधा नहीं मिली, बल्कि उनके दावों को खारिज करने की प्रक्रिया जरूर तेज हो गई
एमपी वनमित्र वेब पोर्टल पर गैर-लाभकारी जागृत आदिवासी दलित संगठन द्वारा आयोजित एक सत्र में चैनपुरा गांव के निवासी (फोटो: शुचिता झा / सीएसई)
एमपी वनमित्र वेब पोर्टल पर गैर-लाभकारी जागृत आदिवासी दलित संगठन द्वारा आयोजित एक सत्र में चैनपुरा गांव के निवासी (फोटो: शुचिता झा / सीएसई)
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मध्य प्रदेश के सुनोद गांव में भिलाला जनजाति के 75 वर्षीय अनर सिंह तुलसिया अब तक तीन बार वन अधिकार अधिनियम (एफआरए), 2006 के तहत वनभूमि के अधिकार के लिए आवेदन दे चुके हैं। तुलसिया ने इससे पहले 2010 और 2013 में भी आवेदन किए थे, जिन्हें बिना कारण बताए खारिज कर दिया गया। वर्ष 2020 में एमपी वनमित्र पोर्टल के माध्यम से ऑनलाइन दाखिल किए गए उनके तीसरे आवेदन का हश्र भी पहले जैसा रहा।

अनुसूचित जनजाति के सदस्यों और 13 दिसंबर, 2005 के पहले से कथित क्षेत्र में रह रहे और जमीन की जुताई कर रहे अन्य पारंपरिक वनवासियों को एफआरए भूमि पर व्यक्तिगत वन अधिकार (आईएफआर) दाखिल करने का अधिकार देता है। एफआरए की संवैधानिकता पर एक मामले की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 13 फरवरी, 2019 को सभी राज्यों को निर्देश दिया कि जिन दावेदारों के आईएफआर खारिज कर दिए गए हैं, उन्हें बेदखल किया जाए। इसका मतलब 16 राज्यों में 11,91,324 लोगों को जमीन से बेदखल किया जाना था।

इस फैसले के खिलाफ बड़े पैमाने पर आक्रोश को देखते हुए केंद्रीय जनजातीय कार्य मंत्रालय (एमओटीए) ने आदेश में संशोधन के लिए सुप्रीम कोर्ट के समक्ष एक आवेदन दायर किया। इस आवेदन में ऐसे उदाहरणों का जिक्र था जहां संबंधित राज्यों ने नामंजूरी की प्रक्रिया का सख्ती से पालन नहीं किया था। 28 फरवरी, 2019 को सुप्रीम कोर्ट ने बेदखली के आदेश पर रोक लगा दी। एमओटीए ने तब संबंधित राज्यों के साथ आदेश पर चर्चा की, जिसमें खारिज किए गए दावों की समीक्षा करने का निर्णय लिया।

सबसे अधिक आदिवासी आबादी वाले राज्य, मध्य प्रदेश ने सितंबर 2019 में एमपी वनमित्र वेब पोर्टल लॉन्च किया। इस वेब पोर्टल का मकसद था कि खारिज कर दिए गए दावों के लिए दावेदारों को फिर से आवेदन करने की अनुमति मिल सके और साथ ही नए दावेदारों के लिए आईएफआर जमा करने की प्रक्रिया को आसान बनाया जा सके।

वेबसाइट पर आवेदक अपना यूजर लॉगिन आईडी और पासवर्ड बनाकर दावा दायर कर सकते हैं। अधिकारियों के पास भी अपने लॉगिन आईडी और पासवर्ड होते हैं, जिसका इस्तेमाल करके वे दावेदारों द्वारा अपलोड किए गए दस्तावेजों की समीक्षा करते हैं और फिर उनके क्लेम को ऑनलाइन प्रोसेस करते हैं। लेकिन, ऐसा लगता है कि पोर्टल ने अधिकारियों को इन दावों को एकतरफा खारिज करने की सुविधा दे दी है।

2008 में एफआरए के लागू होने से लेकर जनवरी 2019 तक, मध्य प्रदेश को 5,79,411 आईएफआर के दावे प्राप्त हुए थे। सुप्रीम कोर्ट के 2019 के आदेश के अनुसार, इनमें से 2,24,624 दावों को मंजूरी मिली और 3,54,787 को खारिज किया गया। यानी 61.2 प्रतिशत दावों को नामंजूर कर दिया गया।

लेकिन सुप्रीम कोर्ट के 2019 के आदेश के बाद राज्य को एमपी वनमित्र पोर्टल के माध्यम से जिला स्तर पर 1,74,525 आईएफआर दावे मिले। मध्य प्रदेश के एक शोधकर्ता को सूचना के अधिकार अधिनियम, 2005 के माध्यम से जो आंकड़े मिले, उनसे पता चलता है कि इनमें से अक्टूबर 2022 तक 1,51,929 दावों को प्रोसेस किया गया, जिनमें से 1,16,758 को खारिज कर दिया गया। ये शोधकर्ता अपनी पहचान जाहिर नहीं करना चाहते। डाउन टू अर्थ के पास इस डेटा की एक कॉपी है।


बुरहानपुर में आदिवासी अधिकारों के लिए काम करने वाले एक अनौपचारिक नेटवर्क, जागृत आदिवासी दलित संगठन के एक कार्यकर्ता नितिन वर्गीज कहते हैं, “यह पोर्टल आईएफआर की समीक्षा के दावों को खारिज करने के लिए धोखाधड़ी का आधार बन गया है।

वनवासी तो अक्सर लिख-पढ़ भी नहीं सकते, ऑनलाइन आवेदन प्रारूप से वाकिफ होना तो दूर की बात है। आईएफआर का दावा दायर करने के लिए वे पंजीकृत इंटरनेट कियोस्क ऑपरेटरों के पास जाते हैं, जो अक्सर अलग-अलग व्यक्तियों के दस्तावेजों को आपस में मिला देते हैं और फिर गलत दस्तावेज अपलोड कर देते हैं।”

बुरहानपुर के सिवले गांव की वन अधिकार समिति (आईएफआर के दावों की भौतिक जांच करने वाली समिति का पहला स्तर) के सचिव अंतराम अवासे एक अन्य मुद्दे पर प्रकाश डालते हैं, “पंचायत सचिव, जो ग्राम सभा द्वारा निर्वाचित वन अधिकार समिति के सदस्य होते हैं, उन्हें तालुकदार और वन विभाग के बीट गार्ड के साथ क्लेम किए गए क्षेत्र का दौरा और उसका सत्यापन करना होता है। वे अक्सर खुद उस क्षेत्र में गए बगैर ही दावे को खारिज कर देते हैं।” वह आगे बताते हैं, “मुख्य रूप से

इसके दो कारण हैं- पहला, वे वन विभाग की जमीन नहीं छोड़ना चाहते और दूसरा, जाति का फैक्टर। वे नहीं चाहते कि आदिवासी लाखों-करोड़ों रुपए की संपत्ति के मालिक बनें और उन्हें सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त हो। वे अपनी आधिकारिक यूजर आईडी के माध्यम से पोर्टल पर लॉगिन कर ग्रामसभा को जानकारी दिए बिना नकली प्रस्तावों और ग्रामसभा की पुरानी तस्वीरों को अपलोड करते हैं और दावों को खारिज कर देते हैं।”

बुरहानपुर में सरकार ने जिले के लिए पोर्टल बंद करने से पहले केवल 10,173 मामले दर्ज किए थे, क्योंकि ऑनलाइन आवेदनों की संख्या ऑफलाइन अस्वीकृत दावों की संख्या से लगभग दोगुनी थी। लखन अग्रवाल, सहायक आयुक्त, आदिवासी कल्याण विभाग, बुरहानपुर द्वारा डाउन टू अर्थ को उपलब्ध कराए गए आंकड़ों के अनुसार, कुल 5,944 आवेदन खारिज किए गए थे।

अग्रवाल कहते हैं, “जून 2020 से बुरहानपुर के लिए पोर्टल बंद कर दिया गया है क्योंकि नए दावेदारों ने भी पोर्टल पर अपने दावे दर्ज करने शुरू कर दिए, जिसकी वजह से असमंजस की स्थिति बन गई। हम अब एमपी वनमित्र पर दायर इन दावों की समीक्षा कर रहे हैं, लेकिन दावों की संख्या बढ़ गई है, इसलिए इसमें अब समय लगेगा।” पोर्टल पर आवेदन करने के लिए दावेदारों के लिए आधार कार्ड होना भी आवश्यक है, जबकि एफआरए के अनुसार इसकी अनिवार्यता नहीं है।

अखिल भारतीय परिदृश्य

24 फरवरी, 2020 को एमओटीए की बैठक के विवरण के अनुसार, कुल 14 राज्यों ने 5,43,432 आईएफआर की समीक्षा के दावों को खारिज किया था। इसका मतलब है कि लगभग 50 प्रतिशत दावे दोबारा नामंजूर हो गए। और यह इन दावों पर अंतिम निर्णय है। इन निवासियों को अब कभी भी बेदखल किया जा सकता है। समीक्षा दावों को खारिज करने में राज्यों की सूची में छत्तीसगढ़ शीर्ष पर है। 2019 में इस राज्य ने सभी 4.5 लाख खारिज किए गए आईएफआर के दावों की समीक्षा करने का फैसला किया। एमओटीए वेबसाइट के अनुसार, 3,94,851 आईएफआर की समीक्षा के दावे फरवरी 2020 तक खारिज कर दिए गए।

डाउन टू अर्थ के पास मौजूद अक्टूबर 2022 की एक मीटिंग के मिनट्स (जिसमें जनजातीय मामलों के केंद्रीय मंत्री अर्जुन मुंडा शामिल थे) के अनुसार, राज्य ने लगभग 34,000 दावों को खारिज करने के फैसले को वापस लिया है। इसका मतलब है कि 10 प्रतिशत से भी कम समीक्षाओं को ही मंजूरी दी गई। उल्लेखनीय जनजातीय आबादी वाले एक अन्य राज्य ओडिशा ने जिला स्तरीय समिति (डीएलसी) के स्तर पर 1,48,870 खारिज किए गए आईएफआर के दावों की समीक्षा की है और उनमें से 1,40,504 को फिर से खारिज कर दिया है। यानी 94 प्रतिशत दावों दोबारा नामंजूर कर दिया गया।

ओडिशा स्थित एक गैर-लाभकारी संस्था वसुंधरा के कार्यकारी निदेशक वाई गिरी राव का कहना है कि 2019 से पहले डीएलसी ने दावों को खारिज नहीं किया, क्योंकि इसका निर्णय बाध्यकारी है और आवेदकों के पास अदालत जाने के लिए पर्याप्त संसाधन नहीं हैं। लेकिन 2019 के सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद ओडिशा में डीएलसी ने बड़ी संख्या में दावों को खारिज करना शुरू कर दिया। राव कहते हैं, “जिनके दावों को खारिज कर दिया गया है, वे वहां रह सकते हैं। विभाग कोर्ट केस दायर कर सकता है। पर दावेदारों के पास तब यह साबित करने का एक और मौका होगा कि वो जमीन पीढ़ियों से उनके कब्जे में रही है।”

बेदखली का खतरा

16 राज्यों में 5 लाख से अधिक आदिवासियों पर उनके व्यक्तिगत वन अधिकारों (आईएफआर) की नामंजूरी की वजह से उनकी वनभूमि से बेदखल होने का खतरा मंडरा रहा है

  • 13 फरवरी, 2019 को दिए अपने आदेश में सुप्रीम कोर्ट ने 16 राज्यों को उन आदिवासियों को बेदखल करने का निर्देश दिया, जिनके व्यक्तिगत वन अधिकार खारिज कर दिए गए थे। इन आदिवासियों की संख्या 10 लाख से अधिक है
  • केंद्रीय जनजातीय कार्य मंत्रालय (एमओटीए) के द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में दायर किए गए एक आवेदन में दावा किया गया है कि राज्यों के द्वारा वन अधिकार अधिनियम, 2006 के तहत प्रक्रियाओं का सख्ती से पालन किए बिना ही कई दावों को नामंजूर कर दिया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने 28 फरवरी, 2019 को बेदखली के आदेश पर रोक लगा दी
  • एमओटीए ने 6 मार्च, 2019 को खारिज किए गए दावे की समीक्षा के मुद्दे पर राज्यों के साथ बैठक की
  • मध्य प्रदेश ने सितंबर 2019 में समीक्षा के दावों को दर्ज करने और नए दावों को प्रस्तुत करने में आसानी के लिए एमपी वनमित्र वेब पोर्टल लॉन्च किया
  • मध्य प्रदेश के अलावा, देश के 14 अन्य राज्यों ने 24 फरवरी, 2020 तक समीक्षा के 5,43,432 से अधिक ऑफलाइन दावों को खारिज कर दिया
  • अंतिम आदेश तक बेदखली पर रोक के आदेश के साथ सुप्रीम कोर्ट में मामला चल रहा है

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