जैव विविधता (संशोधन) अधिनियम 2021: सरकार की मंशा और जन सरोकार

केंद्र सरकार जैव विविधता कानून में संशोधन करने जा रही है, इसके लिए संसद की संयुक्त समिति ने लोगों से आपत्तियां या सुझाव मांगे हैं
जैव विविधता (संशोधन) अधिनियम 2021: सरकार की मंशा और जन सरोकार
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संसद के शीत कालीन सत्र में 9 दिसंबर 2021 को देश के वन, पर्यावारन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के मंत्री भूपेन्द्र यादव में जैव विविधतता कानून, 2001 में संशोधन के लिए एक अधिनियम का मसौदा पेश किया। हालांकि इस संशोधन को ‘पापड़ी चाट’ की तरह कानून पारित करने के मौजूदा तौर तरीकों से अलग रखते हुए इस अधिनियम पर विपक्ष की मांग को सुना गया और इसे संसद की संयुक्त समिति के समक्ष भेजा गया।

हर बार की तरह विपक्ष ने यही कहा कि इतने महत्वपूर्ण कानून में बहुमत के जोर पर बलात संशोधन नहीं किए जा सकते, बल्कि सघन सार्वजनिक चर्चा की जरूरत है। 9 दिसंबर 2021 यानी अधिनियम के पटल पर रखे जाने तक किसी को इस बात का अंदेशा भी नहीं था कि मंत्रालय किन मंसूबों के साथ इस कानून में आमूल चूल परिवर्तन करना चाहता है। 

संसद की संयुक्त समिति ने 16 दिसंबर 2021 को एक सार्वजनिक सूचना के तहत लोगों से इन संशोधनों 15 कार्य दिवस के अंदर पर राय मांगी है। यानी लोगों को 31 जनवरी 2022 तक इन संशोधनों पर राय, आपत्तियां दर्ज  करानी है। हालांकि ये सवाल अभी भी विभिन्न हलकों में पूछा जा रहा है कि इस महत्वपूर्ण संशोधन को संयुक्त समिति के बजाय संसद की विज्ञान और पर्यावरण की स्थायी समिति के पास क्यों नहीं भेजा गया?

एक कानून जिसकी जरूरत नब्बे के दशक से ही महसूस की जाने लगी और अंतत: एक दशक तक देश भर में चले गहन विचार विमर्श के बाद 2002 में कानून की शक्ल में आया, उसमें इतने आमूल चूल संशोधनों के लिए क्या महज 15 दिन काफी हैं? हालांकि मौजूदा सरकार के रवैये को देखते हुए इसे भी एक ‘ब्रीदिंग स्पेस’ की तरह देखा जा रहा है। 

इस संशोधन की पुरजोर खिलाफत हो रही है क्योंकि अपनी तरह के एकमात्र कानून के बारे में है जो देश की नैसर्गिक संपदा को संरक्षित करता है। यह एक छतनार (अम्ब्रेला) कानून है जिसके तहत यह भारत के प्राकृतिक संसाधन, वनस्पति और जन्तु समूह (फ्लोरा और फ़ौना) और इससे जुड़ी परंपरागत ज्ञान की व्यवस्था को संरक्षण प्रदान करता है।

यह इस तरह से बनाया गया है ताकि जैव विविधतता का संरक्षण, उसका टिकाऊ उपयोग और हितग्राहियों में लाभ का समान बंटवारा सुनिश्चित किया जा सके। इसके अलावा यह कानून संयुक्त राष्ट्र के उन सम्मेलनों की उपज भी है जो जैविक संसाधनों को लेकर हुए हैं।

भारत इन अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों और विशेष रूप से ‘नयोगा प्रोटोकॉल’ के उद्देश्यों को मानता है। यह कानून भारत के पेटेंट, बौद्धिक संपदा अधिकार और संप्रभुता से भी सीधे तौर पर जुड़ा है।  

इस संशोधन अधिनियम में केंद्रीय पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव ने अपने मंत्रालय की तरफ से इस मसौदे के अंतिम भाग में कुल 7 बिन्दुओं में इसके उद्देश्य बताए हैं। शुरू के 4 बिन्दुओं में भूपेंद्र यादव ने इस कानून के महत्व और इसकी प्रासंगिकता को समझाया है और पांचवें बिन्दु पर आकर वो कहते हैं “लेकिन इन्हीं सारी खूबियों के कारण इस कानून के मौजूदा स्वरूप को लेकर जैविक संसाधनों से जुड़े चिकित्सा क्षेत्र, बीज-उत्पादन क्षेत्र, उद्योग क्षेत्र,और शोध क्षेत्र आदि विभिन्न हितग्राहियों की तरफ से बार बार यह कहा जा रहा है कि इस कानून को आसान बनाने और इसमें निहित शर्तों को कम किये जाने की जरूरत है, ताकि संयुक्त शोध और निवेश के लिए, स्थानीय समुदायों के साथ इसमें निहित लाभ के बँटवारे का दायरा बढ़ाया जा सके और जैविक संसाधनों के संरक्षण को और भी प्रोत्साहित किया जा सके”। 

उल्लेखनीय है कि उन्होंने इस मसौदे में यह नहीं लिखा कि मौजूदा कानून से स्थानीय समुदायों, परंपरागत रूप से इन जैविक संसाधनों को बरतते आए आदिवासियों और जंगल में निवासरत अन्य समुदायों या ग्राम सभाओं आदि को कोई समस्या है। देश की भू-राजनीति जहां पहुंच गयी है वहां संगठित क्षेत्रों और स्थानीय समुदायों के हित हर मामले में एक-दूसरे के विरोधी बनाए जा चुके हैं। ऐसे में इन संशोधनों को इस नजरिये से भी देखा जाना चाहिए। 

हालांकि मंत्रालय ने केवल इन विशेष क्षेत्रों के हितग्राहियों के निवेदन पर संशोधनों का यह मसौदा पेश किया है जिसके घोषित मुख्य उद्देश्य बिन्दु 6 में दिये गए हैं, जो इस प्रकार हैं- , 

(i) वन्य औषधीय वनस्पति (वाइल्ड मेडिकल प्लांट्स) पर दबाव और निर्भरता कम करना और इसके लिए औषधीय वनस्पति की खेती (उत्पादन) को प्रोत्साहित करना जरूरी है। 

(ii) भारतीय चिकित्सा पद्धति को बढ़ावा देना। 

(iii) जैव विविधतता पर हुए संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन और इसके नयोगा (NAYOGA) प्रोटोकॉल से कोई समझौता किए बगैर भारत में मौजूद जैविक संसाधनों का इस तरह से इस्तेमाल करना ताकि शोध, पेटेंट आवेदन प्रक्रिया, शोध परिणामों के ट्रांसफर से जुड़े मामलों में तेजी लायी जा सके।  

(iv) कुछ निश्चित प्रावधानों में निहित अपराधों से मुक्त करना 

(v) देश के हितों से समझौता किए बगैर जैविक संसाधनों की श्रंखला जिनमें शोध, पेटेंट और व्यावसायिक हितों को ध्यान में रखते हुए ज्यादा से ज्यादा विदेशी निवेश लाना। 

हिंदुस्तान में जंगल के प्रबंधन की भाषा में ‘जैव विविधतता’ जैसे शब्द को स्वीकार करने में हालांकि बहुत लंबा वक्त लगा और वन प्रबंधन के औपनिवेशिक नजरिये और नियंत्रण के कारण देश के प्राकृतिक जंगलों को हीन दृष्टि से देखा गया। बहुत लंबे समय तक जैव विविधता के नजरिये से देखा ही नहीं गया। अगर ऐसा न होता तो आज भी देश के नैसर्गिक जंगल वन विभाग के ‘वर्किंग प्लान’ में ‘मिश्रित प्रजाति के जंगल’ (मिक्स्ड फॉरेस्ट) के रूप में दर्ज न होकर ‘जैव विविधता’ से सम्पन्न वनों के रूप में दर्ज होते। खैर। 

1852 में देश के शुरुआती वर्किंग प्लान में इन्हीं जंगलों को ‘शूद्र वन’ के रूप में दर्ज किया गया। वन प्रबंधन में ‘शूद्र’ शब्द के कोई वैज्ञानिक मायने नहीं हैं बल्कि भारत की वर्ण-व्यवस्था की अभिव्यक्ति के रूप में देखा गया था। बाद में इन्हें ‘निम्न वन’ (डीग्रेडेड फॉरेस्ट) फिर ‘बिगड़े हुए वन’ के तौर पर दर्ज किया जाता रहा।

1992 के बाद जब से संयुक्त राष्ट्र ने जैविक संसाधनों और इससे जुड़े पारंपरिक ज्ञान को अहमियत दी और इसके लेकर ठोस कदम उठाने जाने की जरूरत पर बल दिया तबसे हिंदुस्तान के वन प्रबंधन को भी एक नयी भाषा और शब्दावली मिली। 2002 के बाद से वन विभाग ने अपने वर्किंग प्लान में इन्हीं जंगलों को ‘मिश्रित वन’ के तौर पर दर्ज करना शुरू किया।  

दो दशक पहले 2002 में जब जैव विविधतता कानून वजूद में आया तब इसे एक युगांतरकारी कानून कहा गया जिसने जंगल, जंगल में निवासरत समुदायों के बीच अन्योन्यश्रित (सिम्बोयोटिक) सम्बन्धों को मान्यता देने की नींव रखी। इस कानून ने ऐसे समुदायों के पारंपरिक ज्ञान और उनकी ज्ञान-व्यवस्था को जैव विविधतता के संरक्षण और उनमें लाभ की दावेदारी के लिए प्रगतिशील कदम उठाया।

बाद में वन अधिकार मान्यता कानून, 2006 में भी जंगलों और समुदायों के बीच अन्योन्यश्रित संबंधों और परंपरागत ज्ञान -व्यवस्था को अधिकार के रूप में मान्य किया। इस कानून के प्रशासनिक पक्ष को देखा जाए तो यह 73 वें और 74वें संविधान संशोधन और इनके फलस्वरूप संविधान में जोड़ी गईं 11वीं और 12वीं अनुसूचियों के मुताबिक स्थानीय स्व-शासन के लिए वजूद में आयीं जो देश में ‘तीसरी सरकार’ के अधिकार क्षेत्र को तवज्जो देते हुए एक ऐसा प्रशासनिक ढांचा बनाती हैं जिसमें देश की संघीय सरकार, राज्य सरकारों और स्थानीय सरकारों की स्वायत्त लेकिन परपस्पर सहयोगी भूमिका रही है। 

चेन्नई में स्थित राष्ट्रीय जैव विविधतता प्राधिकरण (NBA), देश के 29 राज्यों में गठित राज्य जैव विविधतता बोर्ड्स (SBDSs) और 2,50,000 जैव विविधतता प्रबंधन समितियां इसी विकेंद्रीकृत व्यवस्था से प्रेरित संरचना ही है। 

हालांकि इन बीते दो दशकों में स्थानीय स्तरों पर बहुत ठोस असर नहीं दिखलाई देता है जिसकी एक बड़ी वजह तो यही रही कि 2008 में वन अधिकार कानून लागू होने से पहले तक जंगलों पर वन विभाग का सम्पूर्ण नियंत्रण रहा। इसलिए इन स्थानीय समितियों ने 2002 से 2008 के 6 वर्षों में सैद्धान्तिक और व्यावहारिक रूप से कोई भूमिका नहीं निभा पायीं।

इन समितियों का गठन बहुत हद तक सरकारी प्रयासों से हुआ इसलिए यह देखा गया कि स्थानीय समुदायों की भागीदारी उतनी उत्साहजनक नहीं हो पायी जो 2008 के बाद विशेष रूप से उन ग्रामसभाओं ने दिखलाई जिन्हें वन अधिकार कानून, 2006 के तहत सामुदायिक वन संसाधनों के अधिकारों की मान्यता मिली।

इन ग्राम सभाओं ने वनधिकार कानून के अनुच्छेद 5 के तहत मिली शक्ति का इस्तेमाल किया, जिसके तहत यह लिखा गया कि “ग्राम सभा अपने अधिकार क्षेत्र में मौजूद सामुदायिक वन संसाधनों का इसेतमाल और उनका नियंत्रण करेंगीं ताकि वन्य जीवों, वन और जैव विविधतता को किसी प्रकार से क्षति न पहुंचे”। 

हालांकि वन अधिकार मान्यता कानून के क्रियान्वयन को लेकर तमाम राज्य सरकारों ने जिस तरह से राजनैतिक अनिच्छा दिखलाई है और बार-बार इसके मूल उद्देश्यों और मंशा के खिलाफ जाकर अन्य क़ानूनों को इसके ऊपर तरजीह दी है उससे इन स्थानीय समितियों की भूमिका और जैव विविधतता के संरक्षण और संबर्द्धन की दिशा में इनमें निहित संभावनाओं का एक अंश भी सामने नहीं आ सका है। 

वनाधिकार मान्यता कानून का जिक्र किए जाने के साथ साथ ग्यारहवीं(11)वीं और बारहवीं (12) वीं अनुसूची पर बात करना भी जरूरी है जिसका पालन पंचायती राज कानून, 1992 और पेसा कानून,2006 जैसे कानूनों के माध्यम से होना था और जो स्थानीय संसाधनों पर स्थानीय समुदायों को परंपरागत ज्ञान व्यवस्था के मुताबिक, उपयोग  संरक्षण और संबर्द्धन के अधिकार देते हैं। 

क्या हैं मुख्य आपत्तियाँ और शंकाएँ 

जैसा कि भूपेंद्र यादव ने इस कानून में बदलाव की जरूरतों के बारे में बताते हुए कहा है कि इस कानून के मौजूदा स्वरूप से चिकित्सा क्षेत्र, बीज-उत्पादन क्षेत्र, उद्योग क्षेत्र,और शोध क्षेत्र से जुड़ी संस्थाओं और एजेंसियों को आपत्ति है। अत: यह तो तय है कि ये प्रस्तावित संशोधन इन चार क्षेत्रों के हितों को ध्यान में रखते हुए ही लाये जा रहे हैं। 

चिकित्सा क्षेत्र-  इसके लिए भारतीय चिकित्सा पद्धति और सरकार के आयुष (AYUSH)का हवाला दिया गया है, लेकिन असल मे इस आयुर्वेद के बहाने देश की जैविक संपदा पर किस एक अ-लाभकारी ट्रस्ट ने बहुत कम समय मे देश के बाजार पर कब्जा स्थापित किया है यह बात किसी से छिपी नहीं है। आयुष विभाग का प्रदर्शन और उपयोगिता अभी भी स्थापित नहीं हो पायी है।

दिलचस्प है कि इस एक अ-लाभकारी ट्रस्ट जिसे पतंजलि (दिव्या फार्मेसी केस) के नाम से जाना जाता है, जैविक संपदा के दोहन और स्थानीय समुदायों के साथ लाभ के बंटवारे के मामले में इस कानून की वजह से आरोपी पाया गया है। ये मौजूदा कानून स्थानीय परंपरागत ज्ञान को विशिष्ट महत्व देता है और उनके हितों को सर्वोपरि मानता है जो इस तरह के व्यावसायिक लेकिन खुद को अलाभकारी कहे जाने वाले प्रतिष्ठानों के लिए जैविक संपदा की लूट के रास्ते में मुश्किलें खड़ी करता है। इसलिए इन आशंकाओं को बल मिलता है कि ये संशोधन अंतत: चिकित्सा क्षेत्र में किसके लिए रास्ता बनाने की कोशिश है। 

बीज-उत्पादन क्षेत्र- कृषि एवं कृषक कल्याण मंत्रालय के तहत काम करने वाली पौधा किस्म और कृषक अधिकार संरक्षण प्राधिकरण (प्रोटेक्शन ऑफ प्लांट्स वैराइटी एंड फार्मर्स राइट्स अथॉरिटी) की वार्षिक रिपोर्ट में यह बतलाया गया है कि पीपीवीएफआर प्राधिकरण की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार सन 2021 में प्राधिकरण के पास कुल 602 आवेदन प्राप्त हुए, जिनमें 237 आवेदन निजी क्षेत्र से, 193 सार्वजनिक क्षेत्र से और 172 आवेदन किसानों के हैं। इन आवेदनों में भी 242 आवेदन ऐसी फसल के लिए प्राप्त हुए जो विलुप्त (साझा ज्ञान पर आधारित) हो रही हैं, 186 आवेदान नयी फसलों के बीजों के लिए हैं और 2 आवेदन जीन उत्पादन के लिए हैं।

इन आंकड़ों से यह तस्वीर बनती है कि निजी क्षेत्र या कल निजी हाथों में जाने को तत्पर सार्वजनिक क्षेत्र जैविक संपदा के क्षेत्र में अपना भविष्य देख रही हैं। निस्संदेह यहीं आकर इन संशोधनों के महत्वपूर्ण उद्देश्य विदेशी निवेश को प्रोत्साहन दिया जाना भी निहित है। 

इस अधिनियम में एक विशेष प्रावधान यह भी है कि अगर किसानों के किसी समूह की ‘बीज कंपनी’ ने प्रोटेक्शन ऑफ प्लांट वैरायटी एंड फार्मर्स राइट्स, 2001 के तहत अधिकार या अनुमति हासिल की है तो उस समूह को जैव विविधतता कानून के तहत दोबारा लाइसेन्स लेने की जरूरत नहीं होगी। 

उल्लेखनीय है कि प्रोटेक्शन ऑफ प्लांट वैरायटी एंड फार्मर्स राइट्स, 2001 बीज कंपनियों को उन बीजों के लिए जिन्हें उन्होंने विकसित किया है, बौद्धिक संपदा अधिकार देता है और किसानों को भी उनके द्वारा परंपरागत रूप से संरक्षित किए गए बीजों पर ये अधिकार देता है। 

यह भी महज एक इत्तेफाक नहीं है कि पौधा किस्म और कृषक अधिकार संरक्षण प्राधिकरण के एक काबिल अफसर कुछ समय से वन, पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय में अपनी सेवाए दे रहे हैं। 

उद्योग क्षेत्र- विवादित कृषि क़ानूनों के खिलाफ देश में एक आम राय तो बनी ही है कि खेती और किसानी पर उद्योगपतियों के अबाध कब्जे के लिए ही इन्हें लाया गया है। इस आरोप का कोई ठोस जवाब देश की सरकार नहीं दे पायी। व्यावहारिक राजनीति और आसन्न चुनाओं को देखते हुए भले ही इन्हें ठंडे बस्ते में डाल दिया गया हो लेकिन सरकार की मंशा में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है।

इस संशोधन को इस नजरिये से भी देखा जाना चाहिए। जंगल आधारित खाद्य वस्तुओं और और कृषि उत्पाद (एग्री-कमोडिटी) के क्षेत्र में निवेश को आतुर बड़े बड़े बहुराष्ट्रीय कॉर्पोरेट्स घरानों के लिए इस कानून में संशोधन जरूरी हैं।

हाल ही में जारी हुए ग्लोबल कैनोपी की रिपोर्ट फॉरेस्ट 500 हमें ऐसे ही बड़े व्यापार के बारे में बताती है जो पूरी तरह से जंगलों के विनाश पर आधारित है और जो हमारी खाद्य जरूरतों को पूरा करने के लिए हमारी रोज की जिंदगियों में हमेशा के लिए शामिल हो चुके हैं। अभी तक पूरी दुनिया में ऐसे उद्योगों/ कंपनियों का कारोबार 500 ट्रिलियन डॉलर का हो चुका है जो यूनाइटेड किंग्डम की समूल जीडीपी से दोगुना है।

हालांकि यह कारोबार मुख्य रूप से पाम ऑइल, सोया, डेयरी और इमारती लकड़ी पर केन्द्रित है लेकिन अंतत: प्रकृतिक जंगलों पर अबाध नियंत्रण इसकी मूल जरूरत है। इत्तेफाक नहीं है कि बीज और जींस बनाने में औद्योगिक पहल भी हो रहीं हैं जिनकी निगाहें भी इन नैसर्गिक जंगलों पर हैं। 

शोध क्षेत्र -  शोध और अनुसंधान का दायरा बहुत व्यापक है। सवाल इन शोधों और अनुसंधानों के उद्देश्य  क्या हैं और इनमें निवेश कौन कर रहा है? शोध परिणामों को अलग अलग एजेंसियों के बीच साझा करने को लेकर मौजूदा कानून में एक जटिल प्रक्रिया है बल्कि कई मामलों में कानून के उल्लंघन को आपराधिक भी माना जाता है।

ऐसे तमाम संयुक्त शोधों को बढ़ावा देना अंतत: किसके हित साधता है समझना मुश्किल नहीं है। यहां भारत के मौजूदा पेटेंट कानून, बौद्धिक संपदा अधिकारों और बायोपाइरेसी के क्षेत्र में जबरदस्त ढिलाई दिये जाने की मंशा भी दिखलाई जा रही है। जाहिर है इस राह से भी विदेशी निवेश को आकर्षित किए जाने की संभावनाएं शायद मंत्रालय देख रहा है। 

इन आशंकाओं के अलावा, राष्ट्रीय जैव विविधतता प्राधिकरण में बड़े पैमाने पर फेर-बदल से भी इसके लोकतान्त्रिक स्वरूप पर मंडराते खतरे के रूप में देखा जा रहा है लेकिन इसमें कृषि शोध और शिक्षा, कृषि और कृषक कल्याण मंत्रालय, आयुष, बायो-टेक्नोलोजी, वन, पर्यावरण और जलवायु मंत्रालय, फॉरेस्ट व वन्य जीव, वानिकी शोध संस्थान, धरती विज्ञान, पंचायती राज, विज्ञान व तकनीकी, वैज्ञानिक व औद्योगिक अनुसंधान, जनजाति कार्य मंत्रालय आदि के प्रतिनिधियों को शामिल करना एक बहुउद्देशीय पहल हो सकती है जिसे लेकर मिली जुली प्रतिक्रियाएँ देखने को मिल रही हैं। 

हालांकि इस संरचनात्मक रद्दोबदल से यह तो स्पष्ट हो रहा है कि वन, पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय इस प्राधिकरण पर अपनी पकड़ मजबूत करने की कोशिश कर रहा है। जिसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के मेम्बर सेक्रेटरी के तौर पर इस प्राधिकरण में उसकी अहमियत कहीं ज्यादा होगी। 

बहरहाल, अब मामला संसद की संयुक्त समिति के पाले में है। उम्मीद की जाना चाहिए कि समिति इन संशोधनों पर गहन विचार विमर्श करते हुए इसके तमाम संदर्भों की पारदर्शिता के साथ विवेचना करे और इसे उनके हितों में बनाए रखने का प्रयास करे जिन उद्देश्यों के लिए यह कानून वजूद में आया था। 

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