सामुदायिक जमीन को लेकर चल रहे हैं भारत के तीन-चौथाई भूमि संबंधी विवाद

41 फीसदी मामलों में, समुदायों का आरोप है कि अधिकारियों या परियोजना प्रस्तावकों ने भूमि अधिग्रहण के लिए उचित प्रक्रियाओं का पालन नहीं किया।
फोटो: सायंतन बेरा/ सीएसई
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एक नई रिपोर्ट के हवाले से पता चला है कि देश में तीन-चौथाई यानी करीब 76 फीसदी भूमि संबंधी विवादों में सामुदायिक जमीन मुद्दा रही है। यह जानकारी दिल्ली स्थित रिसर्च एजेंसी, लैंड कॉन्फ्लिक्ट वॉच (एलसीडब्लू) द्वारा जारी नई रिपोर्ट “लैंड लॉक्ड: इन्वेस्टमेंट्स एंड लाइव्स इन लैंड कॉन्फ्लिक्ट्स” में सामने आई है।

इस रिपोर्ट में देश में हुए करीब 607 भूमि संबंधी संघर्षों का विश्लेषण किया गया है। यह संघर्ष 15 लाख हेक्टेयर से ज्यादा भूमि को लेकर हुए थे। साथ ही इनकी वजह से करीब 63.8 लाख लोग प्रभावित हुए हैं।  

12 दिसंबर, 2022 को जारी इस रिपोर्ट में कहा गया है कि देश में हुए भूमि संबंधी संघर्षों में से करीब एक चौथाई पांचवी अनुसूची में शामिल जिलों में हुए थे। गौरतलब है कि संविधान की पांचवी अनुसूची, अनुसूचित क्षेत्रों को निर्दिष्ट करती है, यह वह क्षेत्र है जिनमें अनुसूचित जनजातियों के हितों की रक्षा की जानी है। रिपोर्ट ने इसके लिए वन अधिकार अधिनियम, 2006 को ठीक से लागू न करने के साथ ऐसी जगहों पर मालिकाना हक के स्पष्ट न होने को जिम्मेवार माना है।

सामुदायिक भूमि के बारे में पर्यावरण वकील पूजा चंद्रन ने अपने एक लेख में लिखा है कि यह भूमि एक समुदाय द्वारा सामूहिक रूप से उपयोग किए जाने वाले प्राकृतिक संसाधन हैं, जैसे कि जंगल, चरागाह, तालाब और 'बंजर भूमि'।

देखा जाए तो यह जमीन बहुत महत्वपूर्ण हैं क्योंकि वे स्थानीय समुदायों को ईंधन के लिए लकड़ी, मवेशियों के लिए चरागाह, पानी, मछली पकड़ने के लिए स्थानीय तालाब, औषधीय जड़ी-बूटियां और अन्य तरह की उपज जैसे प्राकृतिक संसाधन उपलब्ध कराती हैं।

रिपोर्ट में पाया गया कि इन चल रहे संघर्षों में से तीन-चौथाई किसी न किसी रूप में सार्वजनिक भूमि से जुड़े थे। इनमें से 41 फीसदी संघर्ष केवल सार्वजनिक भूमि पर हुए थे, जबकि 35 फीसदी निजी और सार्वजनिक दोनों भूमि को लेकर थे। वहीं 23 फीसदी विशेष रूप से निजी भूमि से जुड़े थे।

इतना ही नहीं रिपोर्ट से पता चला है कि सार्वजनिक भूमि से जुड़े संघर्षों का एक बड़ा हिस्सा करीब 37.3 फीसदी उन क्षेत्रों में हो रहा है जहां जंगल नहीं हैं। वहीं इनमें से 23.4 फीसदी संघर्ष उन जमीनों पर हुए थे जहां जंगल मौजूद हैं जबकि 36.7 फीसदी संघर्षों में यह दोनों तरह के भू-क्षेत्र शामिल थे।

इस रिपोर्ट में 2016 के बाद से हुए संघर्षों के आंकड़ों का विश्लेषण किया गया है। इससे पता चला है कि सार्वजनिक भूमि पर हुए ज्यादातर भूमि विवाद खनन से संबंधित थे। इनमें 94 फीसदी खनन या तो हो रहा है या प्रस्तावित है।

इन जमीनों पर वानिकी और संरक्षण से संबंधित संघर्ष भी केंद्रित पाए गए थे। भूमि के लिए कानूनी सुरक्षा का अभाव और एफआरए को कार्यान्वित न किया जाना सबसे आम खामियों के रूप में सामने आया है, जिसने सार्वजनिक भूमि पर इस तरह के संघर्षों को जन्म दिया है। वहीं वन रहित सार्वजनिक भूमि पर हुए संघर्षों के  सबसे आम मुद्दे जबरन बेदखली से जुड़े थे।

689 में से अब तक केवल 82 विवादों का हुआ है निपटारा

पता चला है कि 41 फीसदी मामलों में, समुदायों का आरोप है कि अधिकारियों या परियोजना समर्थकों ने भूमि अधिग्रहण के लिए उचित प्रक्रियाओं का पालन नहीं किया था। कम से कम 34 फीसदी मामलों में, समुदाय सार्वजनिक भूमि और संसाधनों पर अपने अधिकारों को बनाए रखने और उनकी रक्षा के लिए लड़ रहे हैं। 28 फीसदी मामलों में वो अपने भूमि अधिकारों की कानूनी मान्यता देने की मांग कर रहे हैं।

स्वतंत्र कानूनी विशेषज्ञ उषा रामनाथन का कहना है कि, “गांधीजी के दृष्टिकोण से, जब राज्य के उद्देश्य को पूरा करने के लिए कानून बनाए जाते हैं, तो वो न्यायपूर्ण नहीं हो सकते। जब लोगों ने कानूनों की मांग की है, तो वो बेहतर रहे हैं, और न्यायपूर्ण होने के करीब हैं।" उन्होंने जन-केंद्रित कानूनों की आवश्यकता के महत्व पर बल दिया है।

देखा जाए तो देश के कुल जिलों में पांचवीं अनुसूची में शामिल जिलों का आंकड़ा केवल 15 फीसदी है, वहीं सभी भूमि संघर्षों में से करीब 25 प्रतिशत इन्हीं जिलों में दर्ज किए जाते हैं। इसी तरह संघर्ष प्रभावित आबादी का 23.7 फीसदी भी इन्हीं जिलों में हैं। देश के बाकी हिस्सों की तुलना में सबसे ज्यादा भूमि संघर्षों इन्हें जिलों में केन्दित हैं।

इसी तरह खनन से जुड़े 34 फीसदी संघर्ष इन्हीं पांचवी अनुसूची में शामिल जिलों के वनक्षेत्रों में दर्ज किए गए थे। इसके अलावा सबसे ज्यादा रोके जा सकने वाले संघर्ष बुनियादी ढांचे, संरक्षण और वानिकी से संबंधित थे।

पता चला है कि एफआरए को कार्यान्वित न किया जाना, उसका उल्लंघन और पहले से बन चुकी मुद्दों पर सहमति का उल्लंघन इन जिलों में सबसे आम कानूनी खामियां और संघर्ष की प्रमुख वजहें थी। विश्लेषण से पता चला है कि निजी भूमि पर चल रहे करीब 21 फीसदी विवादों का निपटारा हो गया है जबकि औपचारिक अधिकारों की कमी के चलते सार्वजनिक भूमि पर चल रहे केवल 13 फीसदी मामलों का अब तक निपटारा हुआ है।

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