दक्षिण एशिया पर मानसून होगा मेहरबान, सामान्य से अधिक बारिश की उम्मीद

दक्षिण एशियाई जलवायु पूर्वानुमान मंच के मुताबिक जून से सितंबर के बीच दक्षिण एशिया के अधिकांश हिस्सों में सामान्य से अधिक बारिश हो सकती है
बारिश के बाद लहलहाती फसल; फोटो: आईस्टॉक
बारिश के बाद लहलहाती फसल; फोटो: आईस्टॉक
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2025 में जून से सितंबर के बीच दक्षिण-पश्चिम मानसून के दौरान दक्षिण एशिया के अधिकांश हिस्सों में सामान्य से अधिक बारिश हो सकती है। मतलब की इन हिस्सों में इस साल मानसून कहीं ज्यादा मेहरबान रह सकती है। यह जानकारी दक्षिण एशियाई जलवायु पूर्वानुमान मंच (साउथ एशिया क्लाइमेट आउटलुक फोरम) ने दी है।

हालांकि, क्षेत्र के उत्तर, पूरब और उत्तर-पूर्व के कुछ हिस्सों में सामान्य से कम बारिश होने का अंदेशा है। वहीं दूसरी तरफ कयास लगाए जा रहे हैं कि क्षेत्र के अधिकांश हिस्सों में तापमान सामान्य से अधिक रह सकता है।

गौरतलब है कि मानसून के संभावित व्यवहार की सही जानकारी मौसम-संवेदनशील क्षेत्रों जैसे कृषि और जलविद्युत के लिए बेहद मायने रखती है। इसकी मदद से न केवल बेहतर योजना बनाई जा सकती है। इससे सही समय पर सही निर्णय भी लिए जा सकते हैं। इसके साथ-साथ यह जानकारी स्वास्थ्य और आपदाओं के जोखिम प्रबंधन की तैयारियों के लिए भी बेहद जरूरी होती है।

मौसम से जुड़ी यह जानकारी लोगों की जान और जीविका की रक्षा करती है। इनकी मदद से वैश्विक अर्थव्यवस्था को अरबों डॉलर का फायदा होता है।

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बारिश के बाद लहलहाती फसल; फोटो: आईस्टॉक

दक्षिण एशियाई जलवायु पूर्वानुमान मंच की शुरुआत 2010 में विश्व मौसम विज्ञान संगठन (डब्ल्यूएमओ) की पहल पर की गई थी। इसका उद्देश्य उन देशों को एक साथ लाना है जो मानसून को समझने और उसका पूर्वानुमान लगाने में रुचि रखते हैं। यह मंच डब्ल्यूएमओ और उसके साझेदारों द्वारा संचालित वैश्विक नेटवर्क का हिस्सा है, जो मौसमी जलवायु पूर्वानुमान और इससे जुड़े मुद्दों पर सहयोग और जानकारी साझा करने को बढ़ावा देता है।

दक्षिण एशिया में कृषि और खाद्य सुरक्षा की रीढ़ है मानसून

जून से सितंबर तक होने वाली यह मानसूनी बारिश दक्षिण एशिया के ज्यादातर हिस्सों में कृषि से लेकर आम लोगों के जीवन तक को प्रभावित करती है। श्रीलंका और दक्षिण-पूर्वी भारत को छोड़ दें तो इस क्षेत्र में सालाना होने वाली बारिश का 75 से 90 फीसद हिस्सा दक्षिण-पश्चिम मानसून पर निर्भर करता है।

मेघों से बरसते इस अमृत से नदियां, झीलें और भूजल दोबारा भर जाते हैं। यह पानी सिंचाई और पीने के लिए बेहद जरूरी है।

यह मानसून जहां एक तरफ दक्षिण एशियाई अर्थव्यवस्थाओं, कृषि और खाद्य सुरक्षा की रीढ़ है। वहीं दूसरी तरफ इस दौरान होने वाली भारी बारिश और बाढ़ जैसी आपदाएं हर साल बड़ी संख्या में जान-माल का नुकसान भी करती है। यही वजह है कि 'अर्ली वार्निंग्स फॉर ऑल' जैसी पहल इस क्षेत्र के लिए प्राथमिकता बनी हुई है।

इस क्षेत्रीय जलवायु पूर्वानुमान को अफगानिस्तान, बांग्लादेश, भूटान, भारत, मालदीव, म्यांमार, नेपाल, पाकिस्तान और श्रीलंका के मौसम विभागों ने मिलकर तैयार किया है। अब ये एजेंसियां इस पूर्वानुमान को स्थानीय स्तर पर लागू करने के लिए जिम्मेवार होंगी, ताकि सही निर्णय लिए जा सकें।

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इस पूर्वानुमान में वैश्विक जलवायु परिस्थितियों का भी विशेषज्ञों द्वारा मूल्यांकन किया गया है। इसके मुताबिक मौजूदा समय में प्रशांत महासागर में अल नीनो या ला नीना जैसी कोई प्रमुख जलवायु स्थिति सक्रिय नहीं है, यानी मौजूदा स्थिति अल नीनो दक्षिणी दोलन के तटस्थ बने रहने की ओर इशारा करती है।

विशेषज्ञों के मुताबिक अल नीनो, ला नीना और हिंद महासागर द्विध्रुव जैसी अन्य जलवायु घटनाएं मानसून पर प्रमुख रूप से प्रभाव डालती हैं।

बता दें कि हिंद महासागर द्विध्रुव जलवायु से जुड़ा एक पैटर्न है। यह हिंद महासागर के पश्चिमी और पूर्वी हिस्सों के बीच समुद्र के तापमान में मौजूद अंतर को दर्शाता है। इसे भारतीय नीनो भी कहा जाता है। यह भारत के साथ-साथ अफ्रीका, दक्षिण पूर्व एशिया, और ऑस्ट्रेलिया के कुछ हिस्सों में भी मौसम पर असर डालता है।

डब्ल्यूएमओ द्वारा साझा जानकारी के मुताबिक उत्तरी गोलार्ध में सर्दी और वसंत के दौरान पड़ने वाली बर्फ का विस्तार, दक्षिण एशिया में होने वाली मानसूनी बारिश पर उलटा प्रभाव डालता है। गौरतलब है कि जनवरी और मार्च में हुए हिमपात का विस्तार इस बार पिछले 59 वर्षों में क्रमशः चौथा और छठा सबसे कम था।

विश्व मौसम विज्ञान संगठन (डब्ल्यूएमओ) ने अप्रैल में जारी अपने आउटलुक में पुष्टि की थी कि भारत में कुछ हिस्से अगले तीन महीने (मई से जुलाई 2025) सामान्य से अधिक गर्म रह सकते हैं, वहीं साथ ही इस दौरान सामान्य से अधिक बारिश हो सकती है।

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