उद्योगों की बढ़ती प्यास: दुनिया भर में स्टील-सीमेंट-प्लास्टिक का ‘वाटर फुटप्रिंट’ हुआ दोगुणा

स्टडी रिपोर्ट में इस बात का भी अंदेशा जताया गया है कि 2050 तक प्लास्टिक, सीमेंट, स्टील, रबर, एल्यूमिनियम और कॉपर जैसी सामग्रियों का वाटर फुटप्रिंट 2021 के मुकाबले 179 फीसदी तक बढ़ सकता है
प्रतीकात्मक तस्वीर: आईस्टॉक
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सारांश
  • वैश्विक उद्योगों में स्टील, सीमेंट और प्लास्टिक के उत्पादन के लिए पानी की खपत दोगुनी हो गई है, जिससे जल संकट गहराने का खतरा बढ़ गया है।

  • 1995 से 2021 के बीच इन सामग्रियों का वाटर फुटप्रिंट 2,510 से 5,070 करोड़ घनमीटर तक पहुंच गया है। यह स्थिति जल संसाधनों के सतत प्रबंधन की आवश्यकता को रेखांकित करती है।

  • अध्ययन में इस बात का भी अंदेशा जताया गया है कि 2050 तक प्लास्टिक, सीमेंट, स्टील, एल्यूमिनियम और कॉपर जैसी सामग्रियों का वाटर फुटप्रिंट 2021 के मुकाबले 179 फीसदी तक बढ़ सकता है। इससे वैश्विक स्तर पर साफ पानी के उपयोग में इन सामग्रियों की हिस्सेदारी बढ़कर नौ फीसदी तक पहुंच सकती है।

  • अध्ययन में इस बात पर भी प्रकाश डाला गया है कि इन सब मे स्टील सबसे ज्यादा पानी की खपत कर रहा है। 2021 में अकेले स्टील ने सामग्री उत्पादन के वैश्विक ब्लू वाटर फुटप्रिंट का करीब 40 फीसदी हिस्सा लिया था।

  • इसके बाद कागज 18 फीसदी के साथ दूसरे जबकि नौ फीसदी के साथ प्लास्टिक तीसरे पायदान पर रहा।

  • इसके साथ ही एल्यूमिनियम और सीमेंट का उत्पादन भी तेजी से बढ़ा है, लेकिन साफ पानी की कुल खपत में उनकी हिस्सेदारी अभी भी कम है।

क्या आप जानते हैं कि स्टील, सीमेंट, कागज, प्लास्टिक और रबर जैसी रोजमर्रा की चीजों पर इतना साफ पानी खर्च हो रहा है कि बीते 25 वर्षों में उनका ‘वाटर फुटप्रिंट’ बढ़कर दोगुना हो चुका है। यह बढ़ोतरी उन देशों के लिए खतरे की घंटी है, जो पहले ही जल संकट से जूझ रहे हैं।

वैज्ञानिकों ने इस बात का खुलासा अंतराष्ट्रीय जर्नल नेचर सस्टेनेबिलिटी में प्रकाशित एक नए अध्ययन में किया है।

एंथ्रोपोसीन में बढ़ती पानी की किल्लत

गौरतलब है आज हम एक ऐसे दौर में जी रहे हैं जिसे वैज्ञानिकों ने एंथ्रोपोसीन यानी मानव युग नाम दिया है। यह समय इंसानों की शानदार सफलता को दर्शाता है, लेकिन इसके पीछे एक कड़वी सच्चाई भी है, जिसे हम चाह कर भी नहीं झुठला सकते।

इसका एक जीवंत उदाहरण है नदियों, झीलों, तालाबों और भूजल का बढ़ता दोहन। इस साफ जल को 'ब्लू वाटर' भी कहा जाता है।

वैश्विक स्तर पर भले ही कृषि सबसे ज्यादा साफ पानी का इस्तेमाल कर रही है, लेकिन हाल के दशकों में उद्योगों का जल-खर्च भी तेजी से बढ़ा है, खासकर उन उभरती अर्थव्यवस्थाओं में जो पहले ही जल-संकट से जूझ रही हैं।

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ऐसे में यह समझना बेहद जरूरी हो गया है कि प्लास्टिक, सीमेंट जैसी चीजों को बनाने में कितना 'वर्चुअल वाटर' खर्च होता है, यानी उनके उत्पादन में छिपे साफ पानी के उपयोग को समझना बेहद महत्वपूर्ण है। यह जानकारी दुनिया के सीमित जल संसाधनों के सुरक्षित उपयोग और सतत प्रबंधन के लिए बेहद अहम है।

देखा जाए तो अब तक वैज्ञानिकों का ज्यादातर ध्यान फसल उत्पादन, चारा और फाइबर पर ही रहा है। इसी वजह से स्टील, सीमेंट, कागज, प्लास्टिक और रबर जैसी चीजों के उत्पादन पर खर्च होने वाले पानी पर दुनिया में बहुत सीमित शोध हुए हैं।

यही वजह है कि अपने इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने इस छिपी चुनौती के असल पैमाने को दुनिया के सामने रखा है और यह दिखाया है कि अब इस दिशा में तत्काल कदम उठाने की कितनी जरूरत है।

5,070 करोड़ घनमीटर पर पहुंचा वाटर-फुटप्रिंट

अपने इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने 1995 से 2021 के बीच 164 देशों और क्षेत्रों में 16 प्रमुख धातु और गैर-धातु पदार्थों जैसे प्लास्टिक, सीमेंट, रबर, स्टील आदि द्वारा किए जा रहे साफ पानी के उपयोग का आकलन किया है।

इस अध्ययन के जो नतीजे सामने आए हैं, वे बेहद चौंकाने वाले हैं। स्टडी से पता चला है कि 1995 से 2021 के बीच दुनिया में रबर, प्लास्टिक, सीमेंट आदि के उत्पादन का वैश्विक वाटर फुटप्रिंट बढ़कर दोगुना हो गया।

आंकड़ों के मुताबिक जहां 1995 में यह फुटप्रिंट 2,510 करोड़ घनमीटर था, जो 2021 में बढ़कर 5,070 करोड़ घनमीटर पर पहुंच गया। इसके साथ ही वैश्विक स्तर पर मीठे पानी की खपत में इन सामग्रियों की हिस्सेदारी 2.8 फीसदी से बढ़कर 4.7 फीसदी पर पहुंच गई।

इस मामले में सबसे तेज बढ़ोतरी पूर्वी एशिया, दक्षिण एशिया और ओशिनिया में दर्ज हुई है, जहां इनके वाटर-फुटप्रिंट में 267 फीसदी का उछाल देखा गया है।

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अध्ययन में इस बात पर भी प्रकाश डाला गया है कि इन सबमे स्टील सबसे ज्यादा पानी की खपत कर रहा है। 2021 में अकेले स्टील ने सामग्री उत्पादन के वैश्विक ब्लू वाटर फुटप्रिंट का करीब 40 फीसदी हिस्सा लिया था। इसके बाद कागज 18 फीसदी के साथ दूसरे जबकि नौ फीसदी के साथ प्लास्टिक तीसरे पायदान पर रहा।

इसके साथ ही एल्यूमिनियम और सीमेंट का उत्पादन भी तेजी से बढ़ा है, लेकिन साफ पानी की कुल खपत में उनकी हिस्सेदारी अभी भी कम है।

साफ झलकती है क्षेत्रीय असमानता

इस बारे में अपनी राय व्यक्त करते हुए अध्ययन से जुड़े प्रमुख शोधकर्ता डॉक्टर असाफ ने प्रेस विज्ञप्ति में कहा है, ये नतीजे उद्योगों और नीति-निर्माताओं, दोनों के लिए बड़े संकेत हैं। वे कहते हैं, "आबादी, शहरीकरण और बढ़ती सुविधाओं के साथ दुनिया में सामग्री का उत्पादन लगातार बढ़ रहा। ऐसे में साफ पानी पर दबाव और बढ़ जाएगा। हमें पानी और उद्योग दोनों को साथ जोड़कर सोचना होगा, वर्ना जल संकट गहराता जाएगा। खासकर उन देशों में जो पहले ही गंभीर जल-संकट से जूझ रहे हैं, वहां समस्याएं और बढ़ जाएंगी।“

शोधकर्ताओं ने जोर दिया है कि पानी की बचत सिर्फ पर्यावरण के लिए ही नहीं, बल्कि उद्योगों की आर्थिक सेहत के लिए भी जरूरी है। उत्पादन प्रक्रिया में पानी की दक्षता बढ़ाने से पर्यावरण और अर्थव्यवस्था दोनों को फायदे मिलेंगे।

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स्टडी रिपोर्ट से पता चला है कि इस दौरान जहां ओईसीडी देशों ने अपने औद्योगिक वाटर फुटप्रिंट में 11 फीसदी की कमी की है, वहीं एशिया-ओशिनिया क्षेत्र ने 2021 तक दुनिया की कुल खपत का दो-तिहाई हिस्सा लिया है।

2050 तक और बिगड़ सकते हैं हालात

अध्ययन में इस बात का भी अंदेशा जताया गया है कि 2050 तक प्लास्टिक, सीमेंट, स्टील, एल्यूमिनियम और कॉपर जैसी सामग्रियों का वाटर फुटप्रिंट 2021 के मुकाबले 179 फीसदी तक बढ़ सकता है। इससे वैश्विक स्तर पर साफ पानी के उपयोग में इन सामग्रियों की हिस्सेदारी बढ़कर नौ फीसदी तक पहुंच सकती है।

शोधकर्ताओं ने अध्ययन में सरकारों और उद्योगों से तत्काल कदम उठाने की अपील की है। उनका कहना है कि भारत, कजाखस्तान और तुर्की जैसे हॉटस्पॉट देशों की औद्योगिक प्रक्रियाओं में पानी की दक्षता को बढ़ाकर बड़े पैमाने पर जल-संघर्ष कम किए जा सकते हैं।

रिपोर्ट में दीर्घकालिक उपायों पर जोर दिया गया है, जैसे जल संसाधन बचाने वाली तकनीकों को बढ़ावा देना। साथ ही उद्योगों की उत्पादन प्रक्रियाओं को नए सिरे से डिजाइन करना। इसमें सब्सिडी, कर छूट और वित्तीय सहायता जैसी नीतियां महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं।

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रिपोर्ट के मुताबिक, आधुनिक अर्थव्यवस्थाएं जिन सामग्रियों पर टिकी हैं, उनके पीछे पानी के छिपे भारी भरकम खर्च को दुनिया अब तक गंभीरता से नहीं देख पा रही।

स्पष्ट है विकास की दौड़ में उद्योगों की प्यास लगातार बढ़ रही है, लेकिन जल भंडार नहीं। यदि दुनिया ने अब भी इस ‘अदृश्य जल-खर्च’ को गंभीरता से नहीं लिया, तो आने वाले दशकों में पानी को लेकर संघर्ष और गहरा सकते हैं। ऐसे में समय रहते कदम उठाना ही एकमात्र रास्ता है, ताकि विकास और जल संसाधनों के बीच सामंजस्य बनाया जा सके।

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