वायरस ही बनेंगे इलाज का हथियार: आईआईटी मद्रास और अमेरिकी वैज्ञानिकों की बड़ी रिसर्च

वायरस सिर्फ बीमारियां ही नहीं फैलाते, बल्कि प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र की सेहत और संतुलन बनाए रखने में भी अहम भूमिका निभाते हैं
झील में वायरस पर रिसर्च करते वैज्ञानिक; फोटो: भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी), मद्रास
झील में वायरस पर रिसर्च करते वैज्ञानिक; फोटो: भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी), मद्रास
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भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) मद्रास और अमेरिकी वैज्ञानिकों ने ताजे पानी की झीलों में मौजूद वायरसों का गहराई से अध्ययन किया है। इस अध्ययन का उद्देश्य इन वायरसों की प्रकृति, विकास और उनके पर्यावरण से संबंधों को समझना है। सबसे खास बात यह है कि ये वायरस जानलेवा बैक्टीरिया को खत्म करने की क्षमता रखते हैं — मतलब की इनकी मदद से बीमारियों से लड़ने के लिए भविष्य की नई दवा बन सकती हैं।

इस अध्ययन के नतीजे प्रतिष्ठित जर्नल नेचर माइक्रोबायोलॉजी में प्रकाशित हुए हैं। यह अपनी तरह का अब तक का सबसे बड़ा अध्ययन है जिसमें वैज्ञानिकों ने झीलों से मिले 13 लाख से अधिक वायरस जीनोम को दोबारा जोड़ा है।

अपने इस अध्ययन में वैज्ञानिकों के अंतरराष्ट्रीय दल ने मशीन लर्निंग तकनीकों की मदद से वायरसों की इस छुपी दुनिया को सामने लाने का काम किया। उन्होंने अमेरिका के मैडिसन, विस्कॉन्सिन की एक झील से 20 साल में एकत्र किए गए 465 सैंपल्स का अध्ययन किया है। यह शोध पृथ्वी पर सबसे लंबे समय तक डीएनए आधारित निगरानी में से एक है।

इस खास तरीके से वैज्ञानिक यह समझ पाए कि समय और पर्यावरण में बदलाव के साथ वायरस कैसे प्रतिक्रिया करते हैं।

झीलों से प्राप्त डीएनए और मेटाजीनोमिक्स नामक तकनीक से उसका विश्लेषण करके वैज्ञानिकों ने कई अहम जानकारियां जुटाई हैं।

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वायरस मौसम और साल के हिसाब से एक तय चक्र में आते-जाते हैं। कई वायरस हर साल दोबारा दिखाई देते हैं, जो दर्शाता है कि उनका व्यवहार काफी अनुमानित होता है। हैरानी की बात है कि वायरस अपने होस्ट (जिस पर वे निर्भर होते हैं) उससे जीन चुरा सकते हैं और उन्हें अपने फायदे के लिए इस्तेमाल कर सकते हैं।

शोधकर्ताओं को अध्ययन के दौरान ऐसे 578 वायरस जीन मिले जो प्रकाश संश्लेषण और मीथेन के उपयोग जैसी जरूरी प्रक्रियाओं में मदद करते हैं। शोधकर्ताओं को यह भी पता चला है कि वायरस समय के साथ विकसित होते हैं, इसकी वजह से कुछ जीन प्राकृतिक चयन के कारण ज्यादा प्रभावी और आम हो जाते हैं।

कार्बन और अमोनियम जैसे पर्यावरणीय तत्व, जो अक्सर प्रदूषण से जुड़े होते हैं, वायरस की संख्या और विविधता को प्रभावित करते हैं। यह वैसा ही है जैसे ये बाकी जीवों को प्रभावित करते हैं।

इस शोध में वैज्ञानिकों ने "फेज थेरेपी" की संभावनाओं पर भी ध्यान दिया है। इसमें खास वायरस (फेज) का उपयोग करके बैक्टीरिया को खत्म किया जा सकता है, जो सामान्य एंटीबायोटिक दवाओं से नहीं मरते। यह तकनीक उन एंटीबायोटिक-प्रतिरोधी संक्रमणों के इलाज में क्रांतिकारी बदलाव ला सकती है, जो भारत समेत पूरी दुनिया के लिए खतरा बनते जा रहे हैं।

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सिर्फ समस्या नहीं समाधान भी हैं वायरस

अध्ययन में शोधकर्ताओं ने पाया है कि वायरस सिर्फ बीमारियां ही नहीं फैलाते, बल्कि प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र की सेहत और संतुलन बनाए रखने में भी अहम भूमिका निभाते हैं। वे न सिर्फ पर्यावरण को प्रभावित करते हैं बल्कि अन्य जीवों को भी सहयोग देते हैं।

इस रिसर्च का नेतृत्व डॉक्टर कार्तिक अनंतरमण ने किया है, जो आईआईटी, मद्रास के वाधवानी स्कूल ऑफ डेटा साइंस एंड एआई में विजिटिंग प्रोफेसर और यूनिवर्सिटी ऑफ विस्कॉन्सिन-मैडिसन (यूएस) में माइक्रोबियल और वायरल इकोलॉजी के प्रोफेसर हैं।

अपनी रिसर्च पर प्रकाश डालते हुए प्रोफेसर कार्तिक अनंतरमण ने प्रेस विज्ञप्ति में कहा, "वायरस हर जगह हैं। वे माइक्रोबायोम और इंसानी स्वास्थ्य को आकार देने में अहम भूमिका निभाते हैं। सभी वायरस हानिकारक नहीं होते — कई तो पारिस्थितिकी तंत्र के स्वास्थ्य को बनाए रखने में सहायक होते हैं।"

शोधकर्ताओं के मुताबिक इसके साथ ही ताजे पानी के स्रोतों (जैसे झीलों और नदियों) में वायरस का अध्ययन करने से हमें जल संसाधनों, प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्रों और जनस्वास्थ्य को बेहतर ढंग से समझने और प्रबंधित करने में मदद मिल सकती है। इस तरह के शोध से पारिस्थितिक तंत्रों के प्रबंधन के नए तरीके भी सामने आ सकते हैं — जैसे वायरस की मदद से प्रदूषित झीलों में बिगड़े संतुलन को दोबारा कायम करना।

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उदाहरण के लिए, वायरस का उपयोग हानिकारक शैवाल (जो झीलों में हरे कीचड़ की तरह दिखते हैं) या बैक्टीरिया के खतरनाक फैलाव को रोकने के लिए किया जा सकता है, जिससे पीने का पानी सुरक्षित और झीलें सेहतमंद बनी रह सकती हैं।

प्रोफेसर कार्तिक का कहना है “कोविड-19 ने यह सिखाया है कि वायरस की निगरानी और उनका गहराई से अध्ययन कितना जरूरी है। यह न केवल महामारी से बचाव में मदद करता है, बल्कि यह भी बताता है कि वायरस धरती की सेहत में कैसे योगदान देते हैं।“

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