वैज्ञानिकों ने सुझाई राह: वनों पर निर्भर उद्योगों के कार्बन से बन सकेगा पर्यावरण-अनुकूल प्लास्टिक

वैज्ञानिकों ने दिखाया है कि वनों पर निर्भर उद्योग और कचरा जलाने से निकलने वाले कार्बन डाइऑक्साइड को कैप्चर कर पॉलीप्रोपाइलीन और पॉलीइथिलीन जैसे प्लास्टिक में बदला जा सकता है
धुआं उगलती चिमनियां; प्रतीकात्मक तस्वीर: आईस्टॉक
धुआं उगलती चिमनियां; प्रतीकात्मक तस्वीर: आईस्टॉक
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फिनलैंड के वीटीटी तकनीकी अनुसंधान केंद्र और लैपिनरांटा विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों के सामने एक बड़ा सवाल था—क्या वनों पर निर्भर उद्योगों और कचरा जलाने से पैदा हो रहे कार्बन डाइऑक्साइड (सीओ2) को किसी उपयोगी चीज में बदला जा सकता है? उन्होंने तीन वर्षों तक इस पर अध्ययन किया और आखिरकार, एक रोमांचक समाधान ढूंढ निकाला है।

अपने इस अध्ययन में वैज्ञानिकों ने दर्शाया है कि कैसे वन उद्योग और कचरे को जलाने से पैदा होने कार्बन डाइऑक्साइड कैप्चर किया जा सकता है और इसे पॉलीप्रोपाइलीन और पॉलीइथिलीन जैसे प्लास्टिक में बदला जा सकता है।  

बता दें कि पॉलीप्रोपाइलीन और पॉलीइथिलीन प्लास्टिक के ही रूप हैं, जिनका उपयोग रोजमर्रा की वस्तुओं को बनाने के लिए किया जाता है। हालांकि अभी ज्यादातर प्लास्टिक जीवाश्म ईंधन से बनाया जा रहा है, जो पर्यावरण के साथ-साथ जलवायु के लिए भी खतरा है। वहीं इस नए शोध में इसे पर्यावरण अनुकूल तरीके से बनाने की राह सुझाई गई है।

मतलब की इससे जहां एक तरफ कार्बन डाइऑक्साइड को बढ़ने से रोका जा सकेगा, साथ ही उसका उपयोग एक ऐसे प्लास्टिक के निर्माण में भी किया जा सकेगा जो पर्यावरण के भी अनुकूल होगा।

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परियोजना के दौरान वैज्ञानिकों ने तीन वर्षों तक इस बात का अध्ययन किया कि कैसे इस कार्बन डाइऑक्साइड को कैप्चर किया जा सकता है और उसे प्लास्टिक तैयार करने के लिए कच्चे माल के रूप में उपयोग किया जा सकता है। उन्होंने पर्यावरण अनुकूल प्लास्टिक को तैयार करने के लिए कार्बन डाइऑक्साइड और ग्रीन हाइड्रोजन का उपयोग करने के नए तरीकों की खोज की है।

वैज्ञानिकों को भरोसा है कि यह शोध उद्योग के लिए स्वच्छ और पर्यवरण अनुकूल भविष्य की राह प्रशस्त कर सकता है।

मौजूदा संयंत्रों में ही बन सकेगा ‘नया प्लास्टिक’

वीटीटी में रिसर्च प्रोफेसर जुहा लेहटोनन ने अपने अध्ययन के बारे में प्रेस विज्ञप्ति में जानकारी देते हुए कहा, "हमने प्राकृतिक स्रोतों से कार्बन डाइऑक्साइड को कैसे कैप्चर किया जाए और प्लास्टिक बनाने के लिए मौजूदा पेट्रोकेमिकल संयंत्रों में इसका इस्तेमाल कैसे किया जाए, इसका अध्ययन किया है।"

इसके लिए उन्होंने पायलट गतिविधियों और मॉडलिंग की मदद ली है। उनका यह भी कहना है कि, "जीवाश्म आधारित फीडस्टॉक्स को अक्षय सामग्रियों से जल्द से जल्द बदलने के लिए, हमें तकनीकों को मौजूदा उत्पादन सुविधाओं के अनुकूल बनाने की आवश्यकता है।"

उदाहरण के लिए, हाइड्रोकार्बन को अलग करने वाले उपकरण महंगे होने के साथ-साथ दीर्घकालिक निवेश हैं। ऐसे में कारखानों में पहले से मौजूद उपकरणों में अक्षय सामग्रियों का उपयोग बेहतर और समझदारी भरा विकल्प है।

यही कारण है कि उन्होंने "कम तापमान वाली फिशर-ट्रॉप्स प्रक्रिया" पर काम किया। यह एक ऐसी तकनीक है जिससे कार्बन डाइऑक्साइड और ग्रीन हाइड्रोजन को मिलाकर पॉलीइथिलीन और पॉलीप्रोपाइलीन जैसे टिकाऊ प्लास्टिक बनाए जा सकते हैं।

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जूहा लेहटोनन ने प्रेस विज्ञप्ति में जानकारी देते हुए कहा है कि, "कम तापमान वाली फिशर-ट्रॉप्स प्रक्रिया पॉलीइथिलीन और पॉलीप्रोपाइलीन जैसे पॉलिमर के उत्पादन के लिए तकनीकी और आर्थिक रूप से एक आशाजनक विकल्प है।"

उनके मुताबिक हम मौजूदा पेट्रोकेमिकल प्रक्रियाओं में बड़े नए निवेश के बिना फिशर-ट्रॉप्स नेफ्था का उपयोग कर सकते हैं। वहीं मेथनॉल या उच्च तापमान वाले फिशर-ट्रॉप्स का उपयोग करने जैसी अन्य विधियों से आवश्यक हाइड्रोकार्बन का उत्पादन करने के लिए नए महंगे उपकरणों की आवश्यकता होगी।

यह शोध साबित करता है कि भविष्य में प्लास्टिक को तैयार करने का तरीका पूरी तरह बदल सकता है। यह खोज सिर्फ एक वैज्ञानिक उपलब्धि नहीं, बल्कि एक नई उम्मीद भी है—एक ऐसा भविष्य जहां जंगलों से निकलने वाला कार्बन, प्रदूषण के बजाय, उपयोगी और पर्यावरण अनुकूल प्लास्टिक में बदला जा सकेगा।

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