पर्यावरण और स्वास्थ्य के लिए खतरा बना ईंधन के रूप में प्लास्टिक का होता उपयोग

प्लास्टिक जलने से डाइऑक्सिन, फ्यूरान और हैवी मेटल्स जैसे हानिकारक केमिकल हवा में फैलते हैं। यह फेफड़ों की बीमारियों सहित स्वास्थ्य से जुड़ी कई समस्याओं का कारण बन सकते हैं
फोटो: कर्टिन विश्वविद्यालय
फोटो: कर्टिन विश्वविद्यालय
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इससे ज्यादा विडम्बना क्या होगी कि विकास का दम्भ भरने वाली दुनिया में आज भी करोड़ों लोग भोजन तैयार करने के लिए ऐसे ईंधन का उपयोग कर रहे हैं जो पर्यावरण के साथ-साथ उनके स्वास्थ्य के लिए भी खतरा है।

लकड़ी, कोयला या केरोसिन के साथ-साथ लाखों घरों में एक और चीज है जिसका ईंधन के रूप में उपयोग हो रहा है और वो है प्लास्टिक। कर्टिन विश्वविद्यालय से जुड़े शोधकर्ताओं ने अपने एक नए अध्ययन में इस उभरते खतरे पर प्रकाश डाला है। शोधकर्ताओं के मुताबिक विकासशील देशों में स्वच्छ ईंधन से दूरी और ऊर्जा के पारम्परिक स्रोतों में आती कमी के चलते ईंधन के रूप में प्लास्टिक का चलन बढ़ा है।

जर्नल नेचर सिटीज में प्रकाशित अपने इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने अफ्रीका, एशिया और दक्षिण अमेरिका के विकासशील देशों में ऊर्जा की खपत का अध्ययन किया है और पाया है कि इनमें से कई देश ऐसे हैं जो गैस या बिजली जैसे साधनों का खर्च नहीं उठा सकते। शोधकर्ताओं के मुताबिक शहरों के विस्तार की वजह से जहां लकड़ी और चारकोल जैसे पारंपरिक साधनों को मिलना कठिन होता जा रहा है, वहीं दूसरी तरफ कचरे का उचित प्रबंधन न होने की वजह से प्लास्टिक कचरे की मात्रा लगातार बढ़ रही है।

गौरतलब है कि दुनिया में 200 करोड़ से ज्यादा लोग ऐसे हैं जिनके पास खाना पकाने के लिए साफ-सुथरा ईंधन नहीं है। ये लोग आज भी भोजन तैयार करने के लिए लकड़ी, कोयला या केरोसिन जैसे साधनों पर निर्भर हैं।

अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (आईईए) के मुताबिक इनके जलने से बहुत ज्यादा धुआं पैदा होता है जो हर साल करीब 37 लाख लोगों की जान ले रहा है। साथ ही उन्हें हर दिन कहीं ज्यादा बीमार बना रहा है।

स्रोत: अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (आईईए)

स्वच्छ ईंधन तक पहुंच क्यों है इतनी महत्वपूर्ण?

कर्टिन इंस्टीट्यूट फॉर एनर्जी ट्रांजिशन (सीआईईटी) और अध्ययन से जुड़े प्रमुख शोधकर्ता डॉक्टर बिशाल भारद्वाज ने इसके गंभीर खतरों को लेकर चेताया है।

उन्होंने प्रेस विज्ञप्ति में कहा कि प्लास्टिक जलने से डाइऑक्सिन, फ्यूरान और हैवी मेटल्स जैसे हानिकारक रसायन हवा में फैलते हैं। यह केमिकल फेफड़ों की बीमारियों सहित स्वास्थ्य से जुड़ी कई समस्याओं का कारण बन सकते हैं।"

उनके मुताबिक महिलाओं और बच्चों को सबसे ज्यादा जोखिम का सामना करना पड़ता है क्योंकि वे दिन का ज्यादा समय घर पर बिताते हैं। हालांकि यह प्रदूषण घर के अन्दर ही सीमित नहीं रहता और आसपास के गली मुहल्लों से लेकर शहर में भी फैल जाता है। इसका सीधा असर यहां रहने वालों के स्वास्थ्य पर पड़ता है।

डॉक्टर भारद्वाज का आगे कहना है कि यह शहरों में रहने वाले उन लाखों लोगों को प्रभावित कर रहा है, जो पहले ही गरीबी और असमानता से जूझ रहे हैं। उनके अनुसार जिस तरह से प्लास्टिक का उपयोग और शहरी विस्तार हो रहा है यह समस्या पहले से कहीं ज्यादा बदतर हो सकती है।

आंकड़ों के मुताबिक जिस तरह से शहरी आबादी में इजाफा हो रहा है, उसको देखते हुए 2050 तक करीब दो तिहाई आबादी शहरों में रही होगी। हालांकि दुनिया के कई शहर अभी भी कचरा एकत्र करने जैसी बुनियादी सेवाओं को लेकर संघर्ष कर रहे हैं।

शोध के मुताबिक यह समस्या आगे चलकर और विकराल रूप ले लेगी, क्योंकि 2060 तक दुनिया में प्लास्टिक का उपयोग बढ़कर तीन गुणा हो जाएगा। दूसरी तरफ विकासशील देशों में तेजी से अनियंत्रित शहरीकरण के चलते असमानता की खाई और गहरा जाएगी।

डॉक्टर भारद्वाज ने एक सर्वेक्षण का हवाला दिया है, जिसके मुताबिक नाइजीरिया के 13 फीसदी घरों में खाना पकाने के लिए कचरे का उपयोग किया जाता है। वहीं इंडोनेशिया में मिट्टी और भोजन के नमूनों में प्लास्टिक जलाने से पैदा हुए हानिकारक पदार्थों के सबूत मिले हैं।

सीआईईटी निदेशक और अध्ययन से जुड़ी प्रोफेसर पेटा एशवर्थ का कहना है समस्या को समझने और व्यावहारिक समाधान खोजने के लिए और अधिक शोध की आवश्यकता है। कई सरकारें इस मुद्दे को अनदेखा कर रही हैं क्योंकि यह ज्यादातर झुग्गी-झोपड़ियों को प्रभावित करता है, जिन्हें अक्सर उपेक्षित कर दिया जाता है।"

ऐसे में उनके मुताबिक अगर लोगों के पास खाना पकाने या गर्म रहने का कोई और विकल्प नहीं है, तो प्लास्टिक जलाने पर प्रतिबंध लगाने से कोई मदद नहीं मिलेगी।

इस समस्या से निपटने के लिए उन्होंने स्वच्छ ईंधन पर सब्सिडी देने की बात कही है। साथ ही शहरी झुग्गी बस्तियों में बढ़ते प्लास्टिक कचरे को कम करे के लिए अपशिष्ट प्रबंधन पर जोर देने की वकालत की है। उनका यह भी कहना है कि लोगों प्लास्टिक जलाने से पैदा हो रहे खतरों को लेकर जागरूक करने की जरूरत है। साथ ही कमजोर परिवारों के लिए सस्ते और किफायती विकल्प इस समस्या को हल करने में काफी मददगार साबित हो सकते हैं।

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