
गोमती में पहाड़ों से पानी नहीं आता है। हिमालय में बर्फ पिघलने से बनी नदियों के विपरीत गोमती हिमालय की तलहटी में ही पीलीभीत के माधोटांडा में फुलहर ताल से निकलती है। यह लगभग 960 किमी का सफर तय करती है और उत्तर प्रदेश के पंद्रह जिलों में बहती है। अपनी यात्रा में यह नदी 40 से अधिक छोटी-बड़ी सहायक नदियों से जल लेती है और आखिर में वाराणसी से 27 किमी की दूरी पर स्थित सैदपुर में कैथी नामक स्थान पर गंगा में विलीन हो जाती है। गोमती के सर्पीले व घुमावदार अंदाज में बहने के कारण अंग्रेज इसे घूमती नदी कह देते थे। गोमती नदी ने कई तालाबों-झीलों और वेटलैंड्स को जन्म दिया, जिसका वजूद आज भी कायम है। बहरहाल आज यह एक भूली-बिसरी नदी है। पीलीभीत से निकलकर गोमती नदी जब लखनऊ में प्रवेश करती है तो वहां उसे नालों के पानी, रिवरफ्रंट और 25 से अधिक पुलों और अवरोधों का सामना करना पड़ता है।
यही कारण है कि गोमती का सबसे बुरा हाल उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में है। यह नदी शहर को दो भागों में बांट देती है- सिस-गोमती और ट्रांस-गोमती। ट्रांस गोमती शहर का वह हिस्सा है जो नदी के दूसरी ओर है और अधिक विकसित व नियोजित है। गोमती नगर यहीं पर बसा है। सिस गोमती क्षेत्र में पुरानी कॉलोनियां हैं जिन्हें “पुराना लखनऊ” कहा जाता है। इसके अलावा लखनऊ में गोमती नदी की कई सहायक नदियां भी बहती हैं जिन्हें हम मात्र सीवेज ढोने वाले नालों के नामों से जानते हैं। सत्तर के दशक में गोमती के अलावा लखनऊ में रैठ, बेहता, कुकरैल, बख, नगवा, अकरद्दी, झींगी, लोनी और सई नाम की नौ छोटी नदियां बहती थीं। इनमें से चार नदियां पिछले पचास वर्षों में गायब हो गई हैं क्योंकि उन पर घर, कॉलोनियां और सड़कें बना दी गई हैं और तीन नदियों को आज नालों के नाम से जाना जाता है। लखनऊ का विकास दरअसल गोमती और उसकी सहायक नदियों के कैचमेंट को खत्म करके किया गया। खादर इलाके में पॉश कॉलोनी बसायी गई और नदी को संकरा करके रिवरफ्रंट बना दिया गया।
कोई 15 साल पहले मेरे घर से लगभग 30 किलोमीटर दूर गोमती नदी के किनारे एक छोटा सा हिस्सा था जहां प्रकृति की खूबसूरती का सुखद एहसास था, लेकिन अफसोस आज वह स्थान भी गंदे नाले के नदी में गिरने से चला गया है और लखनऊ में गोमती नदी का एक सुन्दर और स्वच्छ किनारा या पसंदीदा जगह तलाशने से भी नहीं मिलता।
शहरीकरण और अचल संपत्ति के विस्तार ने वास्तव में प्राकृतिक सौंदर्य और ऐसे दर्शनीय स्थलों को मार डाला है। आजकल कई अन्य शहरों में एक नदी को ढूंढना जो अछूता और सुंदर है, वास्तव में मुश्किल है। पिछले 50 वर्षों में हमने धीरे-धीरे लेकिन निश्चित रूप से अपनी जीवन-धाराओं को जहरीला बना दिया है। हमने प्रकृति के अमूल्य उपहारों की कद्र करना और उनकी रक्षा करना नहीं सीखा है।
लखनऊ शहर में जलापूर्ति के लिए गोमती नदी प्रमुख सतही जल स्रोत है। गोमती नदी के पानी को उपचारित करने के लिए ऐशबाग (265 एमएलडी) और बालागंज (200 एमएलडी) में दो जल संयंत्र उपलब्ध हैं। ब्रिटिश काल में वर्ष 1884 में नगर निगम बोर्ड के गठन के बाद वर्ष 1892 में स्टीम इंजन पंपों के द्वारा पाइप से जलापूर्ति की व्यवस्था शुरू की गई। पहले यह व्यवस्था केवल 2 लाख की आबादी के लिए प्रस्तावित थी। जलापूर्ति का मुख्य स्रोत गोमती नदी ही थी और नदी के दाहिने किनारे गऊघाट पर कच्चे पानी को पंप करने के लिए पहला पंपिंग स्टेशन बनाया गया था और ऐशबाग में ट्रीटमेंट प्लांट (लखनऊ का सबसे पुराना ट्रीटमेंट प्लांट) स्थापित किया गया था। ऐशबाग वाटर वर्क्स में ट्रीटमेंट के बाद फिल्टर किया गया पानी कास्ट आयरन मेन नेटवर्क के माध्यम से वितरण के लिए शहर में पंप किया जाता रहा। इसके बाद 20वीं सदी के पहले हिस्से में पुराने स्टीम इंजन पंपों को बिजली से चलने वाली प्रणाली से बदल दिया गया। 1957 के आसपास जलापूर्ति व्यवस्था का एक बड़ा पुनर्गठन किया गया जहां पूरे शहर को छावनी सहित 11 जोनों में बांट दिया गया। 80 और 90 के दशक में शहर की नगरीय सीमा और आबादी के लिहाज से काफी वृद्धि हुई जिसका नतीजा जल कार्यों के कुप्रबंधन और शहर के विभिन्न इलाकों में जलापूर्ति की भारी कमी के रूप में सामने आया। जलापूर्ति के उचित और न्यायसंगत वितरण के लिए वर्ष 1976 में लखनऊ शहर के लिए जलापूर्ति मास्टर प्लान में लखनऊ शहर को पांच जल जिलों (वाटर डिस्ट्रिक्ट) में विभाजित किया गया था। जिलों को आगे 32 जोनों में विभाजित किया गया।
नगरीय विकास के साथ ही पीने के पानी की मांग बढ़ती चली गई। लखनऊ में दूसरा प्रमुख सतही स्रोत शारदा नदी से निकाली गई शारदा सहायक फीडर नहर है। कुछ साल पहले गोमती नगर के कठौता झील के एक हिस्से को शारदा सहायक फीडर नहर से भरा जाता है जिसे उपचारित करने के बाद इंदिरा नगर, विकास नगर और गोमती नगर के कई हिस्सों में जलापूर्ति (80 एमएलडी) की जाती है। वर्तमान में सतही जल स्रोतों से जल संयंत्रों की कुल जल क्षमता 545 एमएलडी है, जबकि इन संयंत्रों से वास्तविक जल उत्पादन 475 एमएलडी है।
ऐशबाग जल संयंत्र: यह लखनऊ में वर्ष 1892 में स्थापित सबसे पुराना और पहला जल संयंत्र है, जो ऐशबाग में स्थित है। नदी के दाहिनी ओर स्थित गऊघाट से पानी उठाया जाता है। यह जल संयंत्र लखनऊ शहर के पुराने इलाकों में पानी पहुंचाता है, जिसकी वास्तविक उपचार क्षमता 265 एमएलडी है। पुराने शहर के विभिन्न भागों में स्थित पांच पंपिंग स्टेशनों को इस जल संयंत्र से पानी मिलता है। इस जल संयंत्र में 375 एमएलडी की कुल क्षमता वाले तीन अवसादन (सेडिमेंटेशन) टैंक हैं।
बालागंज जल संयंत्र: दूसरा जल संयंत्र वर्ष 1994 में चालू किया गया था, जिसकी वास्तविक उपचार क्षमता 200 एमएलडी है। यह जिले की कुछ पुरानी कॉलोनियों में पानी की मांग को पूरा करता है। गोमती नदी के दाहिनी ओर स्थित गऊघाट से पानी उठाया जाता है। जिले के विभिन्न भागों में स्थित पांच पंपिंग स्टेशनों को इस जल संयंत्र से पानी मिलता है। इस जल संयंत्र में 96 एमएलडी की कुल क्षमता वाले दो अवसादन (सेडिमेंटेशन) टैंक हैं।
गोमती वाटर वर्क्स: तीसरा वाटर वर्क्स गोमती नगर में स्थित है जो इंदिरा नगर, विकास नगर, चिनहट, देवा रोड आदि नई बस्तियों में पानी की मांग को पूरा करता है। यह शारदा सहायक फीडर नहर पर एक नवनिर्मित जल उपचार संयंत्र है। संयंत्र की कुल क्षमता 80 एमएलडी है। अवसादन टैंकों के बजाय यहां दो क्लेरिफ्लोक्यूलेटर स्थापित किए गए हैं जिनकी कुल क्षमता 800 लाख लीटर है।
लखनऊ शहर में जलापूर्ति में भूजल का सबसे बड़ा योगदान है, जो लगभग 800 एमएलडी है। जिले का बड़ा हिस्सा पूरी तरह से भूजल स्रोत पर निर्भर है। अत्यधिक निकासी और उथले जलभृत में कमी के कारण औसत जल स्तर में हर साल 0.52 से 1 मीटर की गिरावट होती है। जिले के कुछ हिस्सों में सामान्य से अधिक जल स्तर में गिरावट देखी गई है, जो प्रति वर्ष 1.46 मीटर है। लखनऊ शहर में कुल 605 नलकूप हैं, जिनमें से 603 चालू हालत में हैं। इन नलकूपों के अलावा, शहर में 65 मिनी नलकूप उपलब्ध हैं। मलिन बस्तियों में भी भूजल ही जलापूर्ति का प्रमुख स्रोत है। सभी प्राइवेट और सरकारी आवासीय कॉलोनियां पूरी तरह से भूजल पर निर्भर हैं। सैटेलाइट तस्वीर कहती है कि लखनऊ में पिछले चार दशकों में 70 फीसदी तालाब गायब हो गए हैं। जब रिचार्ज एरिया में तेजी से गिरावट आ रही है तो भूजल की भरपाई कैसे होगी?
लखनऊ में भरवारा, दौलतगंज और वृंदावन में सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट (एसटीपी) बने हैं जिनकी कुल शोधन क्षमता अभी 445 एमएलडी है। अभी लखनऊ में जितना सीवेज शोधन क्षमता है, उससे कहीं अधिक गोमती में अनुपचारित मलजल गिराया जाता है। हालांकि, आने वाले पांच सालों में तीन नए और ट्रीटमेंट प्लांट बनाये जा सकते हैं, लेकिन तब तक सीवेज की मात्रा भी बढ़ जाएगी। लखनऊ में सबसे पहले दौलतगंज में एसटीपी को अप्रैल 1993 में 58.11 करोड़ रुपए की अनुमानित लागत से मंजूरी दी गई थी। 2002 में दौलतगंज में गोमती एक्शन प्लान, फेज 1 के तहत 42 एमएलडी का एसटीपी बनाया गया था और बाद में जवाहरलाल नेहरू शहरी नवीकरण मिशन के तहत इसकी क्षमता बढ़ा कर 56 एमएलडी कर दी गई। हालांकि, प्लांट में नियमित रूप से 80 से 90 एमएलडी पानी आता है, जो इसकी डिजाइन क्षमता से कहीं ज्यादा है। मॉनसून के दौरान, यह 125 एमएलडी तक जा सकता है, जो क्षमता से लगभग 100 फीसदी ज्यादा है। यह उत्तरी लखनऊ के चार बड़े नाले, नगरिया नाला, गऊघाट नाला, सरकटा नाला और पाटा नाला के अपशिष्ट जल को शोधित करता है जो गऊघाट के पास गोमती से मिलते हैं, यहीं पर पुराने लखनऊ को पीने का पानी गोमती नदी से पंप कर बालागंज पहुंचाया जाता है। सरकटा नाला और पाटा नाला का आधा अशोधित जल सीधे गोमती में मिल रहा है। सरकटा, पाटा और नगरिया नाले का शोधित जल पुनः सरकटा नाले में मिला दिया जाता है। इसकी वजह से गोमती में कोई असर नहीं दिख रहा है, क्योंकि सरकटा नाले में पहले से ही गन्दा पानी गोमती में सीधे मिल रहा है। हालत ये है की पम्पिंग स्टेशन पूरी तरह से सक्षम नहीं हैं और दौलतगंज एसटीपी केवल 60 से 65 एमएलडी सीवेज ही लेता है, बाकी 30 एमएलडी सीवेज सीधे गोमती में बहा दिया जा रहा है।
इस एसटीपी को गोमती नदी में प्रदूषण कम करने के लिए गोमती एक्शन प्लान के चरण-II के अंतर्गत विकसित किया गया था। ठेकेदार फर्म हाइड्रोएयर टेक्टोनिक्स (पीसीडी) लिमिटेड, मुंबई और यूपी जल निगम के बीच विवाद के कारण एसटीपी लगभग एक वर्ष तक सीवेज का उपचार नहीं कर पाया। इसके पूरा होने के बाद जल निगम कई कमियों के कारण इसे संचालित करने में अनिच्छुक था। इस समय एसटीपी का संचालन सुएज इंडिया प्राइवेट लिमिटेड के द्वारा किया जाता है। एसटीपी “अपफ्लो एनारोबिक स्लज ब्लैंकेट (यूएएसबी)” रिएक्टर तकनीक पर आधारित है। प्लांट के इनलेट पर सीवेज और सेप्टेज ग्वारी स्थित मुख्य पंपिंग स्टेशन से आता है। सीवेज उपचार का अंतिम उत्पाद उपचारित जल, स्लज और बायोगैस है। यूएएसबी रिएक्टर से उपचारित जल को प्री-एरिएशन टैंक में ले जाया जाता है, जहां सतही एरिएटर की मदद से अपशिष्ट जल का वातन (एरिएशन) किया जाता है। प्री-एरिएशन यूनिट से उपचारित अपशिष्ट जल को फिर पॉलिशिंग तालाब में ले जाया जाता है,जहां अपशिष्ट जल को 24 से 48 घंटे तक रखा जाता है। अंतिम पॉलिशिंग तालाब से उपचारित जल को क्लोरीन संपर्क कक्षों में ले जाया जाता है। यहां पानी को क्लोरीन युक्त किया जाता है, जो पानी में मौजूद रोगाणुओं को मार देता है। अंत में, शोधित पानी को अंडरग्राउंड पाइप की मदद से एसटीपी से करीब चार किलोमीटर दूर लोनापुर के पास गोमती नदी में पुनः छोड़ दिया जाता है। बायोगैस का उपयोग करने वाला संयंत्र शुरू से ही ठीक से काम नहीं कर सका और उसे वर्तमान में हवा में जला दिया जाता है।
इसके आलावा गोमती में गिर रहे जी.एच. कैनाल (हैदर कैनाल) के सीवर को शोधित करने के लिए 120 एमएलडी क्षमता का एसटीपी लगभग बनकर तैयार है। बजट न मिल पाने की वजह से एसटीपी का निर्माण काफी दिनों से ठप था। हैदर कैनाल के जरिए गोमती में शहर के एक बड़े हिस्से का सीवर गिरता है। गोमती को स्वच्छ बनाने के लिए चल रही कवायद के तहत ही हैदर कैनाल पर नदी के किनारे ही एक एसटीपी का निर्माण कराया जा रहा है। नवाब गाजी-उद-दीन हैदर ने 1814 और 1827 के बीच गोमती नदी को गंगा नदी से जोड़ने के लिए हैदर नहर बनवाई थी और उसे लखनऊ और उन्नाव से होकर गुजरना था। नहर का विचार तब आया जब राजा बख्तावर सिंह ने गाजीउद्दीन हैदर को सिंचाई के लिए दो नदियों को जोड़ने के लिए राजी किया। हालांकि, ब्रिटिश सरकार से धन की कमी के कारण इस नदी जोड़ने की परियोजना को रोकना पड़ा। लगभग चार दशकों से नहर अब एक नाले की भूमिका निभा रही है, जो शहर के एक बड़े हिस्से से अपशिष्ट जल को लेकर गोमती नदी में डाल देती है।
हाल ही में नमामि गंगे मिशन-II की राष्ट्रीय गंगा योजना (एनजीपी) के अंतर्गत दक्षिण लखनऊ में इंटरसेप्शन एवं डायवर्सन तथा एसटीपी कार्य के लिए प्रशासनिक एवं व्यय स्वीकृति प्रदान की गई, जिसकी लागत 351.03 करोड़ रुपए है। इस परियोजना के अंतर्गत किला मोहम्मदी नाले का इंटरसेप्शन एवं डायवर्जन व बिजनौर में 250 मीटर लंबी एफ्लुएंट लाइन के साथ 100 एमएलडी क्षमता वाले एसटीपी का निर्माण शामिल है।
लखनऊ शहर में ही गोमती नदी में लगभग तीन दर्जन नाले गिरते हैं। नालों से कुल डिस्चार्ज करीब 800 एमएलडी है। इसमें से करीब 50 फीसदी अशोधित सीवेज सीधा गोमती में गिरता है। 2014 में सिंचाई विभाग ने रिवरफ्रंट परियोजना को जोर-शोर से शुरू किया था। इसका एक बड़ा उद्देश्य गोमती नदी में गिरने वाले सभी नालों को टैप करके उन्हें ट्रीटमेंट के लिए एसटीपी में भेजना था। रिवरफ्रंट के दोनों किनारों पर इंटरसेप्टर नालों का निर्माण किया गया था। विचार यह था कि रिवरफ्रंट के सभी नालों को टैप किया जाए। लेकिन ऐसा कभी नहीं हो सका, अभी भी कई जगहों पर इंटरसेप्टर नालों को जोड़ा नहीं गया है। इसके निर्माण में तकनीकी कमियां थी और आज भी कई नालों को जोड़ा नहीं गया। रबर डैम के बाद एकत्र सीवेज को डायवर्ट करने की कोई योजना नहीं है, बल्कि रबर डैम के बाद एकत्र सीवेज सीधे गोमती नदी में गिरता है। 34 में से कुल 21 नालों को टैप करके ट्रीटमेंट के लिए एसटीपी में भेजा गया है। चार नालों को आंशिक रूप से बंद किया जा चुका है तथा सात को पूरी तरह बंद करने की आवश्यकता है। रिवरफ्रंट के नाम पर गोमती के दोनों ओर दीवार खड़ी कर दी गई जिससे भूजल स्त्रोतों से नदी का संबंध न के बराबर रह गया।
सई नदी गोमती नदी की सबसे प्रमुख सहायक नदी है। सई नदी लखीमपुर खीरी के मोहम्मदी ब्लॉक में पनई झाबर नामक वेटलैंड से निकलती है। इस नदी की एक धारा हरदोई जिले के पिहानी के पास बिजगवां गांव के एक तालाब से निकली है। नदी हरदोई, लखनऊ, उन्नाव, रायबरेली और प्रतापगढ़ होते सर्पीले-घुमावदार रास्ते से होकर जौनपुर जिले के राजेपुर में गोमती नदी से मिलती है। गोमती नदी आगे कैथी में गाजीपुर-वाराणसी सीमा पर गंगा नदी से मिलती है। सई नदी के उद्गम स्थल से जौनपुर में गोमती नदी के साथ संगम तक की कुल लंबाई लगभग 760 किमी है। रायबरेली और प्रतापगढ़ दो प्रमुख शहरी क्षेत्र हैं जो सई नदी के किनारे स्थित हैं और सई नदी का शेष भाग ग्रामीण क्षेत्र में आता है।
लखनऊ के दक्षिण छोर पर सई नदी लखनऊ और उन्नाव जिले की सीमा बनाती है। 56 किमी लंबा प्राकृतिक नाला (लखनऊ गजेटियर में बख नदी) जिसे अब किला मोहम्मदी ड्रेन कहा जाता है, लखनऊ-रायबरेली सीमा पर ऐतिहासिक भवरेश्वर मंदिर से 400 मीटर पहले सई नदी से मिलता है। रायबरेली शहर के सीवर को ले जाने वाले लगभग 7 नाले रायबरेली में सई नदी में मिलते हैं। रायबरेली में 18 एमएलडी एसटीपी को केवल 2.5 से 3 एमएलडी सीवेज ही मिल रहा है, क्योंकि सीवेज नेटवर्क और 18 एमएलडी एसटीपी से इसके कनेक्शन की परियोजना अभी भी पूरी नहीं हुई है। इसके अलावा प्रतापगढ़ में 4 नाले हैं, जिनमें से 3 को टैप करके प्रतापगढ़ में एसटीपी में डायवर्ट किया गया है। एक नाले (भुलियापुर नाला) पर फाइटोरीमेडिएशन के द्वारा वेटलैंड से शोधित करने की प्रक्रिया चल रही है। नालों का फ्लो अधिक होने से फाइटोरीमेडिएशन कारगर नहीं हो पा रहा है। सई नदी के पूरे क्षेत्र में फीकल कोलीफॉर्म बैक्टीरिया प्रमुख प्रदूषक है, जो सई नदी के निकट सीवेज तथा मानवजनित गतिविधियों का संकेत देता है। एनजीटी के सख्त निर्देशों के बावजूद, जिसमें 100 फीसदी सीवेज/अपशिष्ट के उपचार पर जोर दिया गया है और गंगा नदी और उसकी सहायक नदियों में एक भी बूंद अनुपचारित पानी नहीं छोड़ा जाना है, अभी भी कई नाले सई नदी में अनुपचारित पानी छोड़ रहे हैं।
अब तक, गोमती नदी को पुनर्जीवित करने पर 2,500 करोड़ रुपए से अधिक खर्च किए जा चुके हैं। लेकिन अफसोस पानी की गुणवत्ता की स्थिति में कोई सुधार होता नहीं दिख रहा है। रिवरफ्रंट जैसी अत्याधुनिक योजनाओं की भेंट चढ़कर गोमती अपने पुरातन स्वरूप से वंचित हो गई है। लखनऊ शहर के बीच गोमती का दम घुट रहा है।
(लेखक नदी एवं पर्यावरण वैज्ञानिक हैं तथा 20 वर्षों से गोमती और उसकी सहायक नदियों के पुनरुद्धार हेतु प्रयासरत हैं)