जहरीली होतीं जीवनधाराएं, भाग-तीन: बारहमासी से मौसमी नदी बन गई विश्वामित्री

विश्वामित्री नदी के साथ छेड़छाड़ ने इसे शहरी बाढ़ का जनक बना दिया है। बारहमासी नदी अब मौसमी नदी बन गई है
गुजरात में वडोदरा की जीवदायिनी विश्वामित्री नदी सीवेज और औद्योगिक के साथ-साथ ठोस कचरे के प्रदूषण से अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है
गुजरात में वडोदरा की जीवदायिनी विश्वामित्री नदी सीवेज और औद्योगिक के साथ-साथ ठोस कचरे के प्रदूषण से अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही हैफोटो : मोहित भोईटे
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आसान शब्दों में कहें तो नदी एक ऐसा पारिस्थितिकी तंत्र है जो वर्षा जल को महज जमीन से समुद्र में मिलाने वाले किसी जलमार्ग से परे है। यह एक “जल-विज्ञान संबंधी, जियोमॉर्फिक, पारिस्थितिक, परिदृश्य स्तर की प्रणाली है जो मीठे पानी के चक्र का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। ये बर्फबारी, बारिश, सतही जल और भूजल के बीच गतिशील साम्य को संतुलित करती है और अपने पूरे जल-क्षेत्र में लोगों और पारिस्थितिकी तंत्र को बड़ी मात्रा में सामाजिक और आर्थिक सेवाएं प्रदान करती है।” बारहमासी नदियों और मौसमी नदियों (अनियमित और अल्पकालिक) के बीच अंतर करना भी महत्वपूर्ण है, जहां मौसमी नदियां साल में थोड़े समय के लिए बहती हैं।

1980 के दशक के उत्तरार्ध में अल्पकालिक नदियां वो थीं जो “20 फीसदी से कम समय बहती थीं।” मौसमी नदियों के बारे में हालिया समझ बताती है कि वे “अप्रत्याशित वर्षा और बहाव के बाद ही भरती हैं। सतह का पानी, भरने के कुछ दिनों से लेकर हफ्तों के भीतर सूख जाता है और केवल अल्पकालिक जलीय जीवन को सहारा दे सकता है।” जहां मौजूदा समस्याएं अनसुलझी हैं वहीं विकास और शहरीकरण के उभरते रुझानों के साथ अनेक नई पर्यावरणीय समस्याओं ने सिर उठा लिया हैं, क्योंकि शहरीकरण के रुझान, निर्णय लेने में स्वदेशी मूल पारिस्थितिकी तंत्र की अनदेखी कर रहे हैं। इन प्रवृत्तियों की रोशनी में, “नदियां कृत्रिम और प्राकृतिक शक्तियों का जटिल उलझाव हैं – एक संकर (हाइब्रिड) रूप जो न तो प्राकृतिक हैं और न ही सांस्कृतिक, न मानव और न गैर-मानवीय, न सामाजिक और न भौतिक, बल्कि इन सभी का संगम या मिश्रण हैं।” यह वर्तमान संदर्भ में प्रासंगिक है क्योंकि शोधित (ट्रीटेड) और गैर-शोधित (अनट्रीटेड) सीवेज को नदियों और तालाबों में बहाया जाता है जो उनकी पारिस्थितिक संरचना और कार्यप्रणाली को बदल देते हैं। जनसंख्या में तेजी से वृद्धि और बुनियादी आवश्यकताओं के साथ-साथ बेहतर जीवन की आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए संबंधित आर्थिक विकास ने अनेक वैश्विक मसलों को जन्म दिया है। इनमें सामाजिक असमानता, निरंतर पर्यावरणीय विनाश और प्राकृतिक संसाधनों का फिजूल इस्तेमाल शामिल है। गुजरात की विकास नीतियों की अगुवाई में भारत “विकास” की लहर से गुजर रहा है। आर्थिक लाभ के पूंजीवादी रुख ने अन्य सभी विचारों - नैतिक, पर्यावरणीय और सामाजिक - पर वरीयता हासिल कर ली है। यह लेख भूमि से जुड़ी समझ और उसे विनियोजित करने के तरीके में विसंगतियों को बेहतर ढंग से समझने का प्रयास करता है जो स्थलाकृति और प्राकृतिक जलमार्गों को बदलते हुए पर्यावरणीय व्यवस्था को तार-तार कर देता है जिससे बाढ़ और जलभराव की आपदाएं होती हैं। वडोदरा शहर और समय के साथ विश्वामित्री नदी के साथ छेड़छाड़ और बाढ़ के प्रमाण मौजूद हैं।

शहरी बाढ़ की वजह

वडोदरा की विश्वामित्री समेत अधिकांश शहरी नदियों का वर्तमान परिदृश्य दर्दनाक और व्यथित करने वाला है। नदियों को एक छोर से दूसरे छोर तक पानी पहुंचाने के माध्यम मात्र के तौर पर देखा जाता है। नदी और उसकी जल विज्ञान प्रणाली की ऐसी गलत समझ ही शहरी बाढ़ की समस्या का मूल कारण है। व्यवस्थागत उपेक्षा, विकास योग्य शहरी भूमि के लालच और नदियां के प्राकृतिक सीवेज नालियां होने की धारणा से शहरी नदियां मात्र नालों में तब्दील हो गई हैं। प्राकृतिक और मानवीय क्रियाओं के नतीजतन शहरी क्षेत्रों में बाढ़ आती है। विश्वामित्री की पारिस्थितिक संरचना में भी औपचारिक और अनौपचारिक परिवर्तन आए हैं (देखें, नदी के छोड़े हुए रास्ते पर शहरी दबाव,)।

बाढ़ के मैदानों के भीतर और बाहर आस-पड़ोस के क्षेत्रों में पानी के ओवरफ्लो के प्रमुख कारणों में से एक नदी खंड का संकरा होना है। ऊपरी धाराओं से पानी का तीव्र प्रवाह अपने साथ तलछट और मिट्टी के कण लेकर आता है जो मध्य और निचली धाराओं में इकट्ठा होता जाता है, जिसके नतीजतन नदी तल में गाद और अवसादन (सेडिमेंटेशन) होता है। नदी किनारे की वनस्पतियों से छेड़छाड़ के चलते जमीन धंसती है और नरम मिट्टी बह जाती है जिसके चलते प्राकृतिक रगड़ क्रिया के कारण तटबंध खिसक जाते हैं।

वनों की कटाई, उसके बाद ऊपरी इलाकों या जलग्रहण क्षेत्रों में शहरी विकास, पानी के बहाव को बढ़ाता है जिससे प्रवाह की रफ्तार बढ़ जाती है। इसके नतीजतन नदी के तल में हलचल होती है जिससे कटाव होता है और भूजल स्तर नीचे चला जाता है। इस घटना से निचले इलाकों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, जिससे वनस्पति, तमाम तरह के आवास प्रभावित होते हैं और नदी तट की हालत खराब होती है। इससे नदी सैलाब के प्रति संवेदनशील हो जाती है। वडोदरा समेत तमाम शहरी क्षेत्रों में नदियों के घुमावों को पानी के प्रवाह में रुकावट के तौर पर देखा जाता है और किनारों को संशोधित या सीधा किया जाता है। इससे पानी का प्रवाह और वेग फिर से तेज हो जाता है, जिससे निचले इलाकों में जलभराव और बाढ़ आ जाती है।

नदी को सीधा करने और नदी से घुमावदार रास्तों को अलग करने (प्राकृतिक रूप से और मानवीय हस्तक्षेप के माध्यम से) से नदी के दोनों ओर “ऑक्स-बो” बन गए हैं, जो नदी प्रणाली के लिए आर्द्रभूमि (वेटलैंड्स) के रूप में काम करते हैं। इन आर्द्रभूमियों को “दलदली और निचले इलाकों” के रूप में माना जाता है, जिन्हें वैधानिक नीतियों द्वारा भरे जाने और विकास के लिए खोलने की मंजूरी दी जाती है। हालांकि, इससे पानी की गति में वृद्धि हुई है, निचले इलाकों में पानी भर गया है और मिट्टी के कटाव के कारण गाद बढ़ गई है। इसके चलते भूमि के नीचे पानी के प्रवेश की दर कम हो गई है और नतीजतन भूजल स्तरों में गिरावट आई है और भूजल की गुणवत्ता खराब हुई है। बेतहाशा शहरी विकास, नगर में अभेद्य सतह को बढ़ा रहा है जिससे वर्षा जल के प्रवाह में वृद्धि होती है। इस प्रवाह को या तो बरसाती नालों में मोड़ दिया जाता है या इनके चलते जलभराव बना रहता है जिससे बाढ़ जैसी स्थिति पैदा होती है। बरसाती नालों में मोड़ा गया पानी बिंदु स्रोत के रूप में नीचे की ओर छोड़ा जाता है जिससे पहले से ही उफन रही नदी में दबाव बढ़ जाता है जबकि जलभराव वाले क्षेत्र शहर के कामकाज में अवरोध और स्वास्थ्य से जुड़े अनेक खतरे पैदा करते हैं। यह अभेद्य सतह पानी के प्राकृतिक रिसाव को बाधित करती है और सतह और उप सतही जल विज्ञान के बीच एक अड़चन के रूप में कार्य करती है जिसके चलते भूजल भंडार में कमी आती है। विकास के नाम पर मानवीय हस्तक्षेपों के सबसे बुरे परिणामों में से एक है बारहमासी नदियों का मौसमी या सूखी नदियों में तब्दील हो जाना, जिससे बाढ़ और जल जमाव होता है। जल-विज्ञान प्रणाली की संरचना को बदल देने वाली दखलंदाजियों और सामाजिक-पारिस्थितिक ढांचे पर इसके प्रभाव पर करीब से नजर डालने पर दोनों के बीच एक महत्वपूर्ण सह-संबंध प्रदर्शित होता है। आने वाले कल में हमारे शहरों की बेहतर योजना बनाने के लिए इस सह-संबंध को समझना अत्यावश्यक है।

स्रोत : नदी की परिभाषा और समझ पर पुनर्विचार (नेहा सरवते, रोहित प्रजापति)

एकीकृत दृष्टिकोण

प्राकृतिक पर्यावरण और पारिस्थितिक प्रणाली को कई अजैविक और जैविक कार्य करने वाली गतिशील जीवित इकाई के रूप में स्वीकार किए जाने की आवश्यकता है। भूमि, जल और वायु समेत प्राकृतिक प्रणालियों में क्षेत्र और सीमाओं की परिभाषा होती है, जिनमें क्रमश: रिज और घाटियां, वाटरशेड और एयर शेड शामिल हैं। प्रवाह संसाधन के रूप में पानी, प्रशासनिक और राजनीतिक सीमाओं को नहीं पहचानता है; इसका प्राकृतिक प्रवाह भू-आकृतियों की स्थलाकृति, मिट्टी की संरचना और वनस्पति और आवास की मौजूदगी पर निर्भर करता है। विनियामक विधानों और विधियों में इन मापकों को कानून के अभिन्न अंग के रूप में शामिल करने की आवश्यकता है। स्थानीय क्षेत्र योजनाओं, विकास योजनाओं, क्षेत्रीय योजनाओं, परिप्रेक्ष्य योजनाओं आदि के लिए नियोजन सीमाओं की पहचान और सीमांकन करते समय योजना सलाहकारों, सार्वजनिक एजेंसियों और प्राधिकारों को इस पहलू पर विचार करना चाहिए। इस उद्देश्य के लिए, स्थानीय, जिला और राज्य सरकारों के विभिन्न स्तरों द्वारा आंतरिक, अंतरवर्ती और समायोजनकारी प्रशासनिक गठजोड़ बनाने के लिए सहयोग करने की आवश्यकता है। इन प्राधिकारों के भीतर और इनके बीच सार्थक चर्चा करने के लिए योग्य योजनाकारों को इन निकायों में से प्रत्येक के साथ जोड़ा जाना चाहिए। साथ ही लचीली प्रणालियां तैयार करने को लेकर सामंजस्यपूर्ण योजना प्रस्ताव प्राप्त करने के लिए निर्णय लेने की प्रक्रिया में नागरिकों को भी शामिल किया जाना चाहिए।

नदियों और बाढ़ के मैदानों की पहचान, नियोजन और प्रबंधन के तौर-तरीके शहरी बाढ़ पर प्रतिकूल प्रभाव डालने वाले प्रमुख कारक हैं। नाले, सहायक नदियां और आर्द्रभूमि नदी का अभिन्न हिस्सा हैं और इनकी पहचान किए जाने की आवश्यकता है। भू-राजस्व दस्तावेजों, विकास योजनाओं और नगर नियोजन योजनाओं में भूखंडों और भू समूहों (लैंड पार्सल) का सीमांकन करने के तरीकों की तरह ही सीमाओं का चित्रण किया जाना चाहिए। ये एहतियात बरती जानी चाहिए कि विभिन्न मानवजनित गतिविधियों और उपयोगों द्वारा बाढ़ के मैदानों में अतिक्रमण न किया जाए।

योजना उपायों में मुख्य रूप से जोनिंग के जरिए ऊपरी क्षेत्रों और निचले इलाकों के भूमि उपयोगों में समन्वय सुनिश्चित करना चाहिए। इससे नदी प्रणाली का सामंजस्यपूर्ण कामकाज सुनिश्चित होगा। बाढ़ के मैदान वाले क्षेत्रों और किनारों से सटी भूमि के क्षेत्रीकरण की कवायद कम दखलंदाजियों भरी और हल्के-फुल्के सार्वजनिक उपयोग वाले होने चाहिए जिससे मनोरंजक उद्देश्यों के लिए नदी तक पहुंच बढ़ेगी और सैलाब के दौरान संपत्ति और जीवन को भी कम नुकसान पहुंचेगा। घने शहरी इलाकों में पानी के लिए अधिक क्षेत्र बनाने को लेकर जहां भी संभव हो तटबंधों को पीछे धकेलकर नदी गलियारे के चौड़ीकरण को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। ठीक वैसे ही जैसे कारों को समायोजित करने के लिए सड़कों को चौड़ा किया जाता है! शहरी क्षेत्रों में हरे-भरे नदी गलियारों के लिए समर्पित बड़ा इलाका पूरे शहर के लिए फेफड़े और रिहाइशी कमरे की तरह कार्य करता है, जिससे वहां के सभी नागरिकों के जीवन की गुणवत्ता में वृद्धि होती है।

नदी के बाढ़ क्षेत्रों से कुछ भौतिक और निर्मित इकाइयों को हटाकर और उनका पुनर्वास करके बाढ़ के मैदानी क्षेत्रों के पुनरुद्धार का लक्ष्य हासिल किया जा सकता है। वडोदरा इस मायने में अद्वितीय है, क्योंकि यह उन मुट्ठी भर शहरों में से एक है जहां शहरी क्षेत्रों के बिल्कुल बीच में वन्यजीवों के आवास हैं। ये आवास, बिलों और घोंसलों के जरिए मिट्टी को ढीला और नम रखकर वेग के स्तरों को कम करने और किनारे पर होने वाले रिसाव की दरों को बढ़ाने में भी योगदान करते हैं। बाढ़ के मैदानों और तटवर्ती गलियारों की सुरक्षा बहाल करने या बढ़ाने से न केवल नदी पारिस्थितिकी तंत्र को बचाव मिलेगा बल्कि यह बाढ़ और सूखे, दोनों के प्रभावों को कम करेगा। हमें पूरी चेतना के साथ यह स्वीकार करना होगा मानव जाति उन अरबों प्रजातियों में से है जिनका पृथ्वी पोषण करती है और पारिस्थितिक क्षेत्र के निवासियों के सहजीवी सह-अस्तित्व में सभी की भूमिका होती है। एक या अधिक पारिस्थितिक तंत्र की संरचना और कार्यों को बाधित करने से मानव आवास में भी असंतुलन पैदा होगा।

(लेखिका द महाराजा सायाजीराव यूनिवर्सिटी ऑफ बड़ौदा में सहायक प्राध्यापक हैं)

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