डाउन टू अर्थ, हिंदी मासिक पत्रिका के नवंबर 2024 भारत की नदियों की दशा को समर्पित था। यदि आप पत्रिका नहीं पढ़ पाए हैं तो आप यहां उन स्टोरीज को कड़ी दर कड़ी पढ़ सकते हैं। अब से पहले एक आप एक कड़ी पढ़ चुके हैं। पढ़ें आगे की कड़ी -
यूपी के सहारनपुर जिले में शिमलाना मु गांव के रहने वाले शिखवाल परिवार के लिए वर्ष 2023 बहुत ही दुखभरा साबित हुआ। करीब साल भर पहले 17 साल की दिव्या शिखवाल को बुखार आया, जो कम होने का नाम ही नहीं ले रहा था। उसकी प्लेटलेट्स का स्तर भी तेजी से गिरता जा रहा था। जब सबसे अच्छी दवाओं से भी शिखवाल को राहत नहीं मिली, तो भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) दिल्ली के डॉक्टरों को संदेह हुआ कि कुछ न कुछ तो काफी गंभीर है।
अगस्त, 2024 में शिखवाल में स्टेज 1 ब्लड कैंसर या ल्यूकेमिया की पहचान हुई। इसके बाद अगले छह महीने तक उन्हें एम्स में कीमोथेरेपी और रेडियोथेरेपी लेनी पड़ी।
दिव्या के चचेरे भाई शालू शिखवाल अपने परिवार के इस दुख को डाउन टू अर्थ से साझा करते हैं,“दिव्या के लिए यह साल बहुत कठिन था। वह न चल सकती थी और न ठीक से खा सकती थी। उसे अक्सर उल्टियां होती थीं और इस वजह से उसे स्कूल से छुट्टी लेनी पड़ती थी। अब दोबारा कैंसर न लौट आए इसलिए उसे मेंटनेंस थेरेपी लेनी पड़ रही है और अगले तीन वर्षों तक इसे जारी रखने की जरूरत है।”
शिखवाल ने बोर्ड परीक्षाओं की तैयारी के लिए फिर से स्कूल जाना शुरू कर दिया है, लेकिन उसी गांव के गन्ना किसान सतपाल सिंह अभी भी एक नुकसान से जूझ रहे हैं। चार साल पहले उनकी पत्नी ने लिवर कैंसर की वजह से दम तोड़ दिया। वह 40 वर्ष की थीं। सिंह एक चौंकाने वाला आंकड़ा बताते हैं। वह कहते हैं “2011 की जनगणना के अनुसार 7,700 से अधिक लोगों की आबादी वाले इस गांव में पिछले एक दशक में कैंसर से 100 से ज्यादा मौतें हुई हैं।” सिंह और शिखवाल दोनों परिवारों का मानना है कि उनकी स्वास्थ्य समस्याओं का कारण हिंडन नदी ही है।
हिंडन उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड की सीमा पर ऊपरी शिवालिक से निकलने वाली वर्षा-पोषित नदी है, जो 400 किलोमीटर लंबी है। इस नदी की स्थिति सात जिलों - सहारनपुर, मुजफ्फरनगर, शामली, मेरठ, बागपत, गाजियाबाद और गौतम बुद्ध नगर (जीबी नगर) में औद्योगिक और घरेलू सीवेज ले जाने वाले नाले जैसी हो गई है।
हिंडन नदी गौतम बुद्ध नगर में यमुना नदी में मिलती है। नदी की दो प्रमुख सहायक नदियां हैं - कृष्णी और काली पश्चिम और दोनों ही सहारनपुर से निकलती हैं। कृष्णी नदी बागपत जिले के बरनावा गांव में हिंडन से मिलने से पहले शामली और बागपत जिलों से गुजरती है। काली (पश्चिम) नदी मेरठ जिले के पिथलौकर गांव के पास हिंडन में मिलने से पहले मुजफ्फरनगर से होकर बहती है। हिंडन की छोटी सहायक नदियों में पंधोई, धामोला, नागदेव राउ और चाचा राउ शामिल हैं।
सिंह का घर नदी से सिर्फ 500 मीटर दूर है। वह अपने पुराने दिनों को याद करते हैं और कहते हैं, “हम जब जवान थे तो नदी का ही पानी पीते थे। यह नदी तो कोई 20-30 साल पहले प्रदूषित होना शुरू हुई। मैंने इस प्रदूषण को लेकर 15 साल पहले जिला मजिस्ट्रेट से शिकायत की थी, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई।”
वह आगे कहते हैं, “सहारनपुर में उद्योग-कारखाने खासतौर से बरसात में अपना अपशिष्ट नदी में ही गिरा देते हैं। इन कारखानों का गंदा और प्रदूषित अपशिष्ट हमारे भूजल में रिसकर इसे भी दूषित करता है। जबकि हम पीने के लिए और अपनी सभी घरेलू जरूरतों के लिए हैंडपंप पर ही निर्भर हैं।”
शिमलाना मु गांव के घरों में अभी तक सरकार की तरफ से पाइप द्वारा जलापूर्ति नहीं है। जब डाउन टू अर्थ ने सितंबर में गांव का दौरा किया,तो सड़कों पर पाइप लगाने के लिए खुदाई की जा रही थी। सिंह का कहना है कि निर्माण 6 महीने पहले शुरू हुआ था और ग्रामीणों को पाइप के जरिए जलापूर्ति मिलने में एक साल का इंतजार और करना पड़ सकता है।
कुछ विशेषज्ञों और नदी कार्यकर्ताओं ने पहले ही हिंडन को मृत घोषित कर दिया है। लखनऊ विश्वविद्यालय के प्रोफेसर सुधीर पंवार बताते हैं,“हमें इसे अब नदी नहीं कहना चाहिए। यदि आप पानी का विश्लेषण करते हैं, तो आप पाएंगे कि यह नदी के लक्षणों को पूरा नहीं करता है।”
उन्होंने आगे कहा कि इस नदी में प्राकृतिक प्रवाह दुर्लभ है और अब यह केवल औद्योगिक अपशिष्ट और घरेलू कचरा ही बहाकर ले जाती है। नदी में जैविक ऑक्सीजन मांग (बायोलॉजिकल ऑक्सीजन डिमांड- बीओडी) और रासायनिक ऑक्सीजन मांग (केमिकल ऑक्सीजन डिमांड- सीओडी) की मात्रा काफी ज्यादा है।
यह दर्शाता है कि नदी काफी ज्यादा प्रदूषित है। बीओडी और सीओडी मानक के जरिए पानी के नमूनों में कार्बनिक पदार्थ की मात्रा का अनुमान लगाया जाता है। बीओडी बैक्टीरिया और अन्य सूक्ष्मजीवों द्वारा कार्बनिक पदार्थ को पूरी तरह से तोड़ने के लिए जरूरी ऑक्सीजन की मात्रा को मापता है, जबकि सीओडी कार्बनिक पदार्थ को तोड़ने वाली केमिकल रिएक्शन के दौरान ऑक्सीजन की कितनी खपत होती है उसकी मात्रा को दिखाता है।
उत्तर प्रदेश के एक गैर-लाभकारी संगठन दोआब पर्यावरण समिति से जुड़े हरियाणा प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के सेवानिवृत्त वरिष्ठ वैज्ञानिक चंद्रवीर सिंह भी इस बात से सहमत हैं। उन्होंने बताया,“नदी अब रसायनों का मिश्रण ले जाने वाला नाला है। नदी के अधिकांश हिस्से में घुलित ऑक्सीजन (डीओ) का स्तर शून्य है। इस तरह की जगहों पर कोई भी जलीय जीव जीवित नहीं रह सकता।”
घुलित ऑक्सीजन यानी डिजॉल्वड ऑक्सीजन (डीओ) जलीय जीवों के लिए उपलब्ध ऑक्सीजन की मात्रा को मापता है। 3 मिलीग्राम/लीटर से नीचे का मान मछली या अन्य जलीय जीव को जिंदा रखने के लिहाज से बहुत कम है। जब अत्यधिक कार्बनिक अपशिष्ट खासतौर से घरेलू और पशु सीवेज व औद्योगिक अपशिष्ट पानी में ऑक्सीजन की मांग बढ़ाते हैं तो डीओ का स्तर गिर जाता है।
नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) ने 7 जुलाई, 2020 के हिंडन प्रदूषण पर अपने आदेश में हिंडन को “व्यवहारिक रूप से मृत” बताया। ट्रिब्यूनल ने जोर दिया कि पर्यावरण और सार्वजनिक स्वास्थ्य के हित में हिंडन को स्वच्छ और बहाल करने की जरूरत है। एनजीटी ने अपने आदेश में ये जिक्र भी किया, “यह नदी और उसकी सहायक नदियां 1980 से मरना शुरू हो गईं, जब उनके किनारे कागज, चीनी, डिस्टिलरी, रसायनों और बूचड़खानों सहित लगभग 316 अलग-अलग प्रकार के उद्योगों की स्थापना हुई।”
2015 से, हिंडन लगातार केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) की प्रदूषित नदियों के हिस्से संबंधी रिपोर्ट में प्राथमिकता 1 नदी के रूप में दिखाया है। प्राथमिकता 1 श्रेणी में उन नदियों को रखा जाता है जिनमें बीओडी 30 मिलीग्राम/लीटर या उससे ज्यादा हो जाता है।
सीपीसीबी मानकों के अनुसार, नदी का पानी तब नहाने के लायक होता है जब इसका बीओडी 3 मिलीग्राम/लीटर से कम होता है। 2015 की रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया था कि सहारनपुर से गाजियाबाद तक नदी का बीओडी स्तर 24-80 था, जो 2018 की रिपोर्ट में 48-120 और नवीनतम 2022 की रिपोर्ट में 54-126 तक बढ़ गया।
कई अहम अध्ययन यह भी दिखाते हैं कि हिंडन गंगा की तुलना में अधिक खराब प्रदर्शन कर रही है। मई 2024 के एक अध्ययन के अनुसार, सभी निगरानी स्थलों पर गंगा का हजार्ड कोशेंट 1 से नीचे पाया गया। ये कोशेंट गैर-कैंसर स्वास्थ्य खतरों के होने की संभावना का एक माप है। हजार्ड कोशेंट का 1 से नीचे होने का मतलब है कि यह मानव स्वास्थ्य के लिए न्यूनतम जोखिम पैदा करता है। इसके उलट, गाजियाबाद में हिंडन के पानी से लिए गए नमूने का हजार्ड कोशेंट 1 से ज्यादा पाया गया। यह स्वास्थ्य के लिए गंभीर जोखिम का संकेत है।
जर्नल ऑफ फिजिक्स में प्रकाशित 2013 की एक अन्य स्टडी में उत्तर प्रदेश से होकर बहने वालीं 4 प्रमुख नदियों गंगा, यमुना, गोमती और हिंडन की जांच की गई थी। स्टडी ने निष्कर्ष निकाला कि इन चारों नदियों में सबसे खराब गुणवत्ता वाला पानी हिंडन का था। अध्ययन में कहा गया, “हिंडन नदी का अम्लीय (पीएच) और डीओ स्तर इसे किसी भी उद्देश्य के लिए पूरी तरह से अनुपयुक्त बनाता है। कुल मिलाकर, नदी के पानी को खेती-बाड़ी के उद्देश्यों के लिए भी इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। इसके लिए भी उसके तत्काल ट्रीटमेंट की जरूरत है, नहीं तो यह गंभीर स्वास्थ्य समस्या का कारण बन सकता है।” इस रिपोर्ट में आगाह किया गया कि हिंडन के पानी का किसी भी रूप में सेवन नहीं किया जाना चाहिए।
नोएडा स्थित पर्यावरण कार्यकर्ता अभिष्ट कुसुम गुप्ता ने बताया कि हिंडन को पर्याप्त ध्यान नहीं मिलता है। वह समझाते हैं, “नदी सबसे अधिक आबादी वाले क्षेत्र से होकर बहती है और यह क्षेत्र एक बहुत महत्वपूर्ण फूड बास्केट है।” हिंडन का जलग्रहण क्षेत्र 7083 वर्ग किमी है और इसके आस-पास बसी आबादी 1.9 करोड़ है। नदी के पास लगभग 865 गांव स्थित हैं। सीपीसीबी के अनुसार, नदी को 363 उद्योगों से प्रतिदिन 72170.9 किलोलीटर (केएलडी) औद्योगिक अपशिष्ट के अलावा 943.63 मिलियन लीटर प्रति दिन (एमएलडी) घरेलू सीवेज प्राप्त होता है। इसके अलावा सीपीसीबी ने सात जिलों के साथ नदी में औद्योगिक कचरे या औद्योगिक और घरेलू अपशिष्ट युक्त मिश्रित अपशिष्ट ले जाने वाले 55 से अधिक नालों की पहचान की है।
हिंडन पर स्टडी करने वाले और कनाडा की यूनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो के पीएचडी स्टूडेंट उत्कर्ष चड्ढा ने बताया “स्थानीय लोग कहते हैं कि नदी कभी जीवनरेखा थी और अब यह उनके जीवन के लिए खतरा बन गई है।” रिकॉर्ड बताते हैं कि नदी में आस-पास के लोग मछलियां पकड़ा करते थे। नई दिल्ली स्थित एक गैर सरकारी संगठन “इंडियन नेशनल ट्रस्ट फॉर आर्ट एंड कल्चरल हेरिटेज” की 2017 की एक रिपोर्ट में 1980 के मुजफ्फरनगर गजेटियर के हवाले से हिंडन के पानी में मछली की प्रजातियों की मौजूदगी का जिक्र किया गया था।
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में जमा 1976 की एक शोध प्रबंध रिपोर्ट में लिखा है कि 1950 के दशक में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में उद्योगों का उदय होना शुरू हुआ।
रिसर्च, प्रमाणिक विज्ञान साहित्य और अकादमिक सामग्रियों के लिए खास तौर पर बनाए गए वेब सर्च इंजन गूगल स्कॉलर पर हिंडन वाटर पॉल्यूशन की-वर्ड से सर्च में जो डेटा सामने आते हैं, उनके मुताबिक 1970 के दशक में हिंडन की घटती गुणवत्ता को उजागर करने वाले वैज्ञानिक अध्ययन सामने आने लगे थे।
वर्ष 1975 में उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले में स्थित डीएवी कॉलेज के शोधकर्ताओं द्वारा पहली बार अंतरराष्ट्रीय जर्नल एक्टा हाइड्रोकिमिका एट हाइड्रोबायोलॉजिका में प्रकाशित शोधपत्र ने यह जांच की कि कैसे मंसूरपुर फैक्ट्री के औद्योगिक अपशिष्ट ने हिंडन के प्रदूषण में योगदान देने वाली उसकी प्रमुख सहायक नदी काली (पश्चिम) में मछलियों और मत्स्य पालन को प्रभावित किया।
मंसूरपुर में चीनी मिल और डिस्टिलरी से निकलने वाले अपशिष्ट ने हिंडन को काफी दूषित किया। नदी के इन प्रदूषित क्षेत्रों में बीओडी का स्तर 270 से 3,316 मिलीग्राम प्रति लीटर और सीओडी का स्तर 250 से 4,790 मिलीग्राम प्रति लीटर तक मिला। नदी में बीओडी का सामान्य स्तर 3 मिलीग्राम प्रति लीटर से कम होना चाहिए। वहीं, सीओडी का मानक अभी तय नहीं है। पेपर ने यह भी चेतावनी दी कि काले-भूरे रंग के प्रदूषक वह पानी में प्रकाश को प्रवेश करने से रोक सकते हैं, जो प्लवक के विकास को सीमित करते हैं। प्लवक दरअसल उन सभी सूक्ष्म प्राणियों और वनस्पतियों के समूह होते हैं जो जलधारा द्वारा प्रवाहित होते हैं। ये जलीय आवासों की खाद्य शृंखला में उत्पादक के रूप में कार्य करते हैं।
इसके अलावा वर्ष 1978 में इंडियन नेशनल साइंस एकेडमी के शोधार्थियों द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट में 4 नदियों- पांवधोई, ढमोला, हिंडन और काली (पश्चिम) का सर्वे किया गया था। उनके विश्लेषण से पता चला कि गर्मियों में सहारनपुर शहर के सीवेज डिस्चार्ज के बाद पांवधोई नदी का डीओ मान 7.9 से घटकर 0.9 एमजी प्रति लीटर हो गया। ढमोला, हिंडन और काली नदी के साथ भी यही कहानी थी, जहां घरेलू सीवेज और औद्योगिक अपशिष्टों के नदी में गिरने के बाद पानी में डीओ का स्तर काफी ज्यादा गिर गया।
शोध लगातार चेताते रहे। वर्ष 1980 के दशक में भारी धातुओं पर अध्ययन होने लगे थे। भारी धातुएं वह रासायनिक तत्व हैं जो कम सांद्रता में भी उच्च घनत्व और विषाक्तता के लिए जानी जाती है। ये तत्व चीनी और कागज निर्माण से लेकर रंगाई करने वाली औद्योगिक इकाइयों में भी इस्तेमाल किए जाते हैं। जब उद्योग इन्हें उपचारित करने में नाकाम होते हैं तो ये खतरनाक भारी धातु पानी के स्रोतों में प्रवेश कर जाती है। वर्ष 2023 में वाटर जर्नल में प्रकाशित एक शोध पत्र में नोट किया गया कि भारी धातुओं का पता घरेलू सीवेज से भी लगाया जा सकता है, जो डिटर्जेंट, भोजन, सौंदर्य प्रसाधन, नल का पानी, पसीना और धूल से पैदा होते हैं।
वर्ष 1987 की हाइड्रोबायोलॉजिका जर्नल की एक रिपोर्ट ने 1982 में हिंडन नदी के पानी, तलछट, मछली और पौधों में भारी धातुओं की सांद्रता का विश्लेषण किया। अध्ययन में पता चला कि नदी के पानी, तलछट व उसमें पाई जाने वाली मछलियों और पौधों में तमाम खतरनाक तत्व पाए गए। आयरन लिवर रोग और कैंसर के साथ हृदय को प्रभावित करने वाले कार्डियोमायोपैथी और डायबिटीज के साथ-साथ हाइपोथायराइडिज्म जैसे अंतःस्रावी विकार पैदा कर सकता है। जिंक जैसी धातु से उच्च स्तर का एनीमिया हो सकता है और अग्नाशय को नुकसान पहुंच सकता है। साथ ही उच्च-घनत्व वाले लिपोप्रोटीन (एचडीएल) कोलेस्ट्रॉल के स्तर को कम कर सकता है। वहीं, क्रोमियम से कैंसर और कैडमियम जैसा भारी धातु शरीर में गुर्दे, अस्थितंत्र और श्वसन प्रणाली को प्रभावित कर सकता है। जबकि लेड यानी सीसा मस्तिष्क और केंद्रीय तंत्रिका तंत्र को गंभीर रूप से नुकसान पहुंचा सकता है, जिससे कोमा या इंसान की मृत्यु तक हो सकती।
उत्तर प्रदेश स्थित एक गैर-सरकारी संगठन नीर फाउंडेशन के रमन कांत का कहना है, “जब नदी की सेहत खराब होती है, तो यह स्वास्थ्य, फसलों और जैव विविधता को प्रभावित करती है।”
वर्ष 2000 के दशक में और ज्यादा अध्ययन हुए जो इस बात पर प्रकाश डालते हैं कि समस्या कितनी व्यापक हो गई थी। मेरठ स्थित एक गैर-लाभकारी संगठन जनहित फाउंडेशन द्वारा किए गए 2007 के एक अध्ययन ने बताया कि कैसे नदी ने भूजल को दूषित कर दिया, जिससे सहारनपुर में लोगों के स्वास्थ्य पर प्रभाव पड़ा।
यह भी ध्यान दिया गया कि प्रदूषण ने पानी की विविधता को कम कर दिया है। पानी सिर्फ अधिक प्रतिरोधी प्रजातियों के ही रहने लायक रह गया है। मैक्रोइन्वर्टेब्रेट्स की रेंज सीमित हो गई। सिर्फ वहीं बचे जो बहुत ज्यादा प्रदूषित पानी में भी जिंदा रह सकते थे। जो अत्यधिक संवेदनशील प्रजातियां थीं वो गायब हो गईं। मैक्रोइनवर्टेब्रेट उन जीवों को कहा जाता है जिनमें रीढ़ की हड्डी नहीं होती और जो आकार में कम से कम इतने बड़े होते हैं कि उन्हें बिना माइक्रोस्कोप की मदद के भी देखा जा सके।
टीम ने तीन भारी धातुओं - सीसा, कैडमियम और क्रोमियम का भी अध्ययन किया, जो पर्यावरण में आसानी से विघटित नहीं होने के कारण पानी में जमा हो जाते हैं या तलछट के रूप में बस जाते हैं।
हिंडन नदी के भीतर सीसा, कैडमियम और क्रोमियम के स्तर क्रमशः स्वीकार्य सीमा से 179 गुना अधिक, नौ गुना से अधिक और 123 गुना अधिक थे। भूजल की गुणवत्ता के लिए अध्ययन क्षेत्र में शामिल सभी गांवों में लिए गए सभी नमूनों में सीसा और क्रोमियम का पता चला।
सहारनपुर जिले का शिमलाना मु गांव उनमें से एक था। हाल ही में, एनवायरनमेंटल क्वॉलिटी मैनेजमेंट में मई 2024 में प्रकाशित एक अध्ययन में पाया गया कि कैडमियम, तांबा, क्रोमियम, सीसा और मैंगनीज जैसी भारी धातुएं अध्ययन क्षेत्र के विभिन्न स्थलों पर स्वीकार्य सीमा से अधिक थीं। जल गुणवत्ता सूचकांक, जो विभिन्न भौतिक रासायनिक मापदंडों को जोड़ता है, अध्ययन क्षेत्र के सभी साइटों पर 100 से अधिक था। यह दर्शाता है कि पानी मानव उपभोग के लिए अनुपयुक्त है।
अंतर्ग्रहण और त्वचा के संपर्क के माध्यम से धातुओं के सेवन को मापने वाले क्रोनिक डेली इनटेक में वयस्कों की तुलना में बच्चों में विशेष रूप से मैंगनीज और सीसा जैसी धातुएं अधिक मिलीं थीं। यह बच्चों के लिए ज्यादा जोखिम से भरा है।
कई अध्ययनों में खतरे को लेकर आगाह किए जाने के बावजूद हिंडन की स्थिति बदहाल ही रही है। उसे नजरअंदाज ही किया गया है। कुछ साल पहले तक सरकार ने 7 जिलों में इस मुद्दे की गंभीरता का आकलन करने के लिए अध्ययन तक शुरू नहीं किया था।
2014 में दोआब पर्यावरण समिति ने कृष्णी, काली और हिंडन में प्रदूषण पर एक एनजीटी में मामला दर्ज कराया। सुनवाई के दौरान ट्रिब्यूनल ने मुद्दों पर कुछ और अध्ययन करने, रिपोर्ट देने और नदियों का पुनरुद्धार कितना हो रहा, इसे देखने के लिए समितियों का गठन किया। एनजीटी ने 2015 में निर्देश जारी कर राज्य को दूषित हैंड पंपों को सील करने और उत्तर प्रदेश जल निगम को प्रभावित समुदायों को पीने का पानी सप्लाई करने के लिए कहा। सहारनपुर, मुजफ्फरनगर, बागपत, शामली, मेरठ और गाजियाबाद में प्रभावित 154 गांवों के एक सर्वेक्षण से पता चला कि 345 हैंडपंप प्रदूषित थे, जिन्हें तब सील कर दिया गया था। सिंह बताते हैं कि 2015 के बाद, उत्तर प्रदेश जल निगम ने हिंडन, काली और कृष्णी से प्रभावित 148 गांवों की पहचान की।
2018 में, सीपीसीबी, उत्तर प्रदेश जल निगम और उत्तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड से मिलकर बनी संयुक्त निरीक्षण टीम ने पाया कि उद्योग परिसरों या उद्योगों के पास स्थित गांवों में स्थित 168 में से 93 (55 प्रतिशत) क्षेत्रों में भूजल दूषित था। भूजल में सल्फेट, फ्लोराइड, कैडमियम, तांबा, सीसा, लोहा, निकेल, जिंक, पारा, क्रोमियम और मैंगनीज जैसे एक या अधिक मानकों से दूषित था। उससे पहले 2017 की एक रिपोर्ट में सेंट्रल ग्राउंड वाटर अथॉरिटी ने मोटे तौर पर भूजल में दूषित पदार्थों के स्रोतों की पहचान प्राकृतिक और मानवजनित दोनों के रूप में की थी।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश एसयू खान की अध्यक्षता वाली एक समिति द्वारा प्रस्तुत 2019 की एक रिपोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि मुजफ्फरनगर, शामली, मेरठ, बागपत, गाजियाबाद और गौतम बुद्ध नगर जिलों में अपशिष्ट सीवेज और औद्योगिक अपशिष्टों का का छोड़ा जाना मुख्य रूप से जल प्रदूषण के लिए जिम्मेदार था। वर्ष 2020 में एनजीटी ने उपचारात्मक कार्रवाई में तेजी लाने के लिए एक निरीक्षण समिति का गठन किया।
एनजीटी की इस गठित समिति ने बताया कि राज्य ने दिसंबर 2019 में मेरठ, सहारनपुर, शामली, मुजफ्फरनगर और बागपत में एनजीटी के निर्देशों के अनुसार 68 स्वास्थ्य जांच शिविर आयोजित किए थे। इसमें पाया गया कि 7,500 लोगों में से 120 या 1.6 प्रतिशत को कैंसर था। उसी वर्ष, पाइप्ड पानी की आपूर्ति 148 गांवों में से 45 गांवों तक पहुंच गई थी। फरवरी 2020 की अपनी सुनवाई में निरीक्षण समिति ने टिप्पणी की कि पाइप्ड पानी की आपूर्ति, स्वास्थ्य सुविधाओं और सीवेज उपचार के उपायों के मामले में राज्य द्वारा की गई प्रगति पर्याप्त नहीं है। उत्तर प्रदेश जल निगम को 2020 तक 148 प्रभावित गांवों में पाइप्ड पानी का कनेक्शन देने की समय सीमा दी गई थी।
हालांकि, उस वर्ष केवल 45 को कवर किया गया था। यहां तक कि राज्य ने अभी तक एनजीटी के निर्देशों का उल्लंघन करते हुए टैंकरों के माध्यम से पोर्टेबल पानी की आपूर्ति नहीं की थी। समिति ने यह भी उजागर किया कि उत्तर प्रदेश जल निगम 207.5 एमएलडी सीवेज को बिना ट्रीटमेंट किए ही नालों के माध्यम से नदी में गिरा देता है।
एनजीटी ने फरवरी 2021 में मामले का निपटारा करने का जब फैसला किया, तब तक पाइप्ड कनेक्शन केवल 103 गांवों तक पहुंच पाया था और तीन सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट (सहारनपुर और मुजफ्फरनगर में से एक) पर निविदा को अंतिम रूप देने का प्रारंभिक कार्य अभी शुरू ही हुआ था। ट्रिब्यूनल ने राज्य को सार्वजनिक स्वास्थ्य और पर्यावरण की रक्षा के लिए उपचारात्मक उपाय करने का काम सौंपा, जिसमें नालियों को टैप करना (सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट से जोड़ना) और जल (प्रदूषण की रोकथाम और नियंत्रण) अधिनियम, 1974, वायु (प्रदूषण की रोकथाम और नियंत्रण) अधिनियम, 1981 और पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 का उल्लंघन करने वाले उद्योगों को दंडित करना शामिल है।
एक साल से भी अधिक समय बाद, 16 नवंबर, 2022 को अभिष्ट कुसुमा गुप्ता ने हिंडन नदी के प्रदूषण को रोकने और सुधारने में नाकाम रहने के लिए सभी जिलों के प्रशासनिक अधिकारियों के खिलाफ एक शिकायत दर्ज की। इस पर एनजीटी ने नवंबर 2022 में अपने आदेश में मामले को देखने के लिए एक संयुक्त समिति बनाई। समिति में उत्तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड , उत्तर प्रदेश जल निगम; भारत के पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय; राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन (एनएमसीजी) और सिंचाई विभाग के प्रमुख सचिव के एक प्रतिनिधि शामिल किए गए।
अपनी जनवरी 2023 की रिपोर्ट में समिति ने पाया कि एनजीटी के पिछले मामले के बावजूद बहुत कम काम हुआ था। इसमें पाया गया कि मोटे तौर पर प्रदूषण फैलाने वाले 310 उद्योग नदी में अपना अपशिष्ट बहा रहे थे। यह भी ध्यान दिया गया कि सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट न केवल अपर्याप्त थे बल्कि मानकों को भी पूरा नहीं करते थे। इस वजह से नदी में बिना ट्रीटमेंट किए हुए सीवेज गिर रहे थे। इन 310 उद्योगों में से 94 उद्योगों को प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने बंद करने का आदेश दिया। 84 अन्य को कारण बताओ नोटिस जारी किया गया। यह भी ध्यान दिया गया कि 148 गांवों को पाइप्ड पानी की आपूर्ति उपलब्ध थी।
जल्द ही 15 दिसंबर, 2023 को एनजीटी ने मुख्य सचिव की अध्यक्षता वाली संयुक्त समिति को उपचारात्मक कार्रवाई करने और वास्तविक जमीनी स्थिति का आकलन करने के लिए क्षेत्रीय निगरानी टीमों को तैनात करने के लिए कहा। हालांकि, एनजीटी अभी मामले की सुनवाई कर रही है।
अदालती सुनवाई के बीच घरेलू सीवेज नदियों को प्रदूषित करना जारी रखे हुए हैं क्योंकि हिंडन बेसिन से 222.13 एमएलडी सीवेज का एसटीपी द्वारा उपचार नहीं किया जाता है। पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 और जल (प्रदूषण की रोकथाम और नियंत्रण), अधिनियम 1974 के प्रावधानों के अनुसार, औद्योगिक इकाइयों और स्थानीय निकायों को अपशिष्ट और सीवेज को नदी और जल निकायों में छोड़ने से पहले पानी का ट्रीटमेंट करने के लिए अपशिष्ट उपचार संयंत्रों (एफ्लुएंट ट्रीटमेंट प्लांट यानी ईटीपी) या सामान्य अपशिष्ट उपचार संयंत्रों (सीईटीपी) और सीवेज उपचार संयंत्रों (एसटीपी) स्थापित करना जरूरी है।
तीन एसटीपी (गाजियाबाद में 2 और मुजफ्फरनगर में 1) मानकों के हिसाब से काम नहीं कर रहे हैं। भारत सरकार के जल शक्ति मंत्रालय द्वारा शुरू किए गए जल जीवन मिशन के आंकड़ों के अनुसार, सहारनपुर, मुजफ्फरनगर, शामली, मेरठ और बागपत में नए एसटीपी प्लांट निर्माणाधीन हैं। इसके अलावा, सीपीसीबी के मुताबिक, राज्य दिसंबर 2023 तक चिह्नित किए गए 55 नालों में से सिर्फ 3 को हिंडन बेसिन में सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट्स से जोड़ने में सफल रहा था।
2023 का सीपीसीबी डेटा दिखाता है कि उद्योग अपने कचरे का उपचार करने के लिए पूरी तरह से तैयार हैं। इसके बावजूद, उल्लंघन जारी है। इन उल्लंघनों के लिए प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने 2023-2024 में 76.78 करोड़ का पर्यावरण क्षतिपूर्ति लगाया था। सैफ बताते हैं, “मात्रा के हिसाब से तो घरेलू सीवेज एक बड़ा प्रदूषक है लेकिन ज्यादा खतरनाक प्रदूषण औद्योगिक अपशिष्टों से होता है।”
हिंडन के तट पर बसे चुनिंदा गांवों की जमीनी पड़ताल से पता चलता है कि कुछ गांवों में अभी भी स्वच्छ पानी की पहुंच नहीं है जबकि गांव वाले इलाज पर बढ़े खर्च का भुगतान करने के लिए कर्ज ले रहे हैं या जमीन बेच रहे हैं। हालांकि, राज्य जोर देकर कह रहा है कि उसे इस बात के कोई सबूत नहीं मिले हैं कि प्रदूषण और स्वास्थ्य समस्याओं के बीच किसी तरह का कोई संबंध हैं। हालांकि, राज्य की ओर से किया जा रहा यह दावा किसी भी परीक्षण पर आधारित नहीं है। वहीं, डाउन टू अर्थ ने हिंडन नदी के बहाव क्षेत्र वाले उत्तर प्रदेश के सात जिलों की यात्रा में सेहत से जुड़ी चिंताओं के हतप्रभ करने वाले तथ्यों को उजागर किया।
सितंबर,2024 में डाउन टू अर्थ ने ऊपरी शिवालिक में हिंडन के उद्गम से लगभग 6 किमी दूर सहंसरा घाटी की यात्रा की। हिंडन का उद्गम सहारनपुर जिले के शिवालिक पर्वतमाला में स्थित कालुवाला खोल में है, जहां इसे स्थानीय रूप से बरसानी नाम से जाना जाता है। 2022 में इंटरनेशनल जर्नल ऑफ रिसर्च पब्लिकेशन एंड रिव्यूज में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार, यह दो अन्य नदियों - सहंसरा और नाग देह से जुड़कर हिंडन बनाती है। देहरादून स्थित गैर-लाभकारी, गैर-सरकारी संगठन हिमालयन इंस्टीट्यूट फॉर एनवायरनमेंट, इकोलॉजी एंड डेवलपमेंट के वैज्ञानिक उमर सैफ सहंसरा नदी के तट पर ही रहते हैं जो हिंडन के जलस्रोत क्षेत्र में आता है। इस क्षेत्र में केवल एक संकीर्ण धारा बहती है, नदी के बिस्तर का एक बड़ा हिस्सा खुला हुआ है। वह कहते हैं, “पानी शिवालिक क्षेत्र के झरनों से निकलता है। यह मॉनसून के दौरान ही हिंडन को पानी की आपूर्ति करता है, जब पूरा रिवर-बेड भर जाता है और इस तरह भूजल को रिचार्ज करता है। यह एक स्वस्थ पारिस्थितिक तंत्र है और यहां कोई प्रदूषण नहीं है।”
प्रदूषण का सबसे पहला प्रमुख स्रोत सहारनपुर है। एनजीटी के सामने 2023 में सीपीसीबी की तरफ से दिए गए प्रजेंटेशन के मुताबिक, इस जिले में 45 से अधिक उद्योग हैं। औद्योगिक अपशिष्ट और घरेलू कचरा ले जाने वाले बारह नाले हिंडन में गिरते हैं। जिला 137.89 एमएलडी सीवेज का उत्पादन करता है, जिसमें से केवल 38 एमएलडी का ही ट्रीटमेंट किया जा रहा है।
वर्ष 2018 की सीपीसीबी रिपोर्ट “कंप्रिहेंसिव रिपोर्ट ऑन प्रिवेंशन एंड कंट्रोल ऑफ पलूशन इन रिवर हिंडन : एन एक्शन प्लान फॉर रिजुवेनेशन” के अनुसार, तीन अपशिष्ट नाले - नागदेव नाला, स्टार पेपर मिल नाला और धामोला नाला ऊपरी खंड में नदी हिंडन में शामिल हो जाते हैं। ये आसपास के गांवों से नगरपालिका अपशिष्ट के साथ-साथ विभिन्न औद्योगिक इकाइयों से औद्योगिक अपशिष्ट भी डंप करते हैं। खास बात ये है कि शिमलाना मु को राज्य द्वारा जल प्रदूषण से प्रभावित 148 गांवों में से एक के रूप में नहीं पहचाना गया है।
सहारनपुर से दो नदियां मुजफ्फरनगर में बहती हैं। ये हैं हिंडन और काली नदी। एक बार जब यह जिले में प्रवेश करती है, तो 19 नाले औद्योगिक और घरेलू सीवेज को काली में ले जाते हैं। मुजफ्फरनगर में 56 उद्योग हैं और जिला 111.14 एमएलडी सीवेज पैदा करता है। काली नदी प्रदूषित जल को हौसैनपुर बोपारा गांव ले जाती है, जिसकी जनसंख्या 2011 की जनगणना के अनुसार 10,267 है। यह छोटा गांव पहचाने गए 148 में से पहले 40 गांवों में से एक था, जिन्हें पाइप्ड पानी के कनेक्शन मिले थे। गन्ना किसान जसवीर राठी कहते हैं कि पिछले 7-8 वर्षों से पानी के कनेक्शन होने के बावजूद कुछ घरों में अभी तक इस सुविधा का लाभ नहीं पहुंचा है।
वह एक संकरे नाले की ओर इशारा करते हैं, जिसे “गंदा नाला” कहते हैं। यह उनके घर के पास से बहता है और काली नदी में मिलता है। नाला का नाम मंसूरपुर नाला है, जो मंसूरपुर शुगर मिल रोड के पास से निकलता है, जहां दो उद्योग (सर शादी लाल डिस्टिलरी एंड केमिकल और धामपुर शुगर एंड डिस्टिलरी फैक्ट्री) मंसूरपुर के कैचमेंट एरिया में हैं।
राठी का आवास धामपुर शुगर और डिस्लिटरी फैक्ट्री की ओर है। गांव वालों के अनुसार ये फैक्ट्री अपने अपशिष्ट को बिना ट्रीट किए नाले में गिरती है। राठी इस फैक्ट्री को अपना उत्पाद भी बेचते हैं। वह बताते हैं कि उन्होंने फैक्ट्री से अनुरोध भी किया है कि वे अपना कचरा इस तरह न बहाएं। लेकिन अब तक कुछ नहीं हुआ है। हैंडपंप का पानी कुछ घंटों तक बिना किसी हलचल के पीला हो जाता है। प्रोफेसर सुधीर पंवार बताते हैं कि पीला रंग लोहे की सामग्री से आता है, जो पानी से मिलने पर पीला हो जाता है। कई निवासी घरेलू उपयोग के लिए साफ पानी की तलाश में 100 फीट की शुरुआती गहराई से कहीं ज्यादा गहरा बोरवेल खोद रहे हैं।
गन्ना किसान गौरव दीक्षित बताते हैं कि सरकारी स्वास्थ्य शिविरों के अभाव में निजी अस्पताल तेजी से गांव में स्वास्थ्य शिविर स्थापित कर रहे हैं। दीक्षित के पिता को एक दशक पहले लिवर संक्रमण का पता चला था, जिसके लिए उन्होंने प्राइवेट अस्पताल में इलाज कराने के लिए 4 लाख रुपए खर्च किए। वह कहते हैं कि मुझे अपनी जमीन का एक हिस्सा बेचना पड़ा। डॉक्टर ने उन्हें चेतावनी दी कि पानी समस्याग्रस्त था और आरओ सिस्टम का इस्तेमाल करने के लिए कहा गया। वह कहते हैं, “हम आरओ सिस्टम का खर्च नहीं उठा सकते।”
इसके अलावा वहां कीचड़ की समस्या है, जो औद्योगिक अपशिष्टों के उपचार के बाद पैदा होता है। चंद्रवीर सिंह का आरोप है कि उद्योग उस कीचड़ को नदी में डंप करते हैं जो बहुत ही खतरनाक है।
सीपीसीबी ने भी मुजफ्फरनगर में मंसूरपुर नाले में औद्योगिक कीचड़ के जमाव की पुष्टि की है। उसने जिले के धंदेरा नाले में कीचड़ की मोटी परत को नोट किया है। ये नाला लुगदी और कागज, बूचड़खानों, चर्मशोधक कारखानों, फार्मास्यूटिकल्स और खाद्य प्रसंस्करण उद्योगों के अपशिष्ट को ले जाता है। इसके अलावा जाट मुजहड़ा नाले में भी औद्योगिक कीचड़ की परत बनी हुई है जिसमें 4 पेपर मिल और डिस्टिलरी यूनिट का अपशिष्ट बहता है। उपचार के बाद पैदा हुए कीचड़ को खतरनाक अपशिष्ट की श्रेणी में रखा गया है। सीपीसीबी के अनुसार, उद्योगों के लिए नदी या नाले में या नदी के फ्लड प्लेन में औद्योगिक ठोस अपशिष्ट और कीचड़ डंप करना प्रतिबंधित है।
मुजफ्फरनगर के मुख्य चिकित्सा अधिकारी महावीर सिंह फौजदार ने बताया कि जिले में पीलिया और कैंसर के मामले आम हैं। वह कहते हैं “सीसा और अन्य भारी धातुएं रक्त के साथ मिल सकती हैं, जो उन्हें विभिन्न अंगों में ले जाती हैं और जहां भी वे पहुंचते हैं वहां रोग पैदा करते हैं।”
जिले की जिला मलेरिया अधिकारी अलका सिंह का कहना है कि सभी प्रभावित गांवों में साल में कम से कम एक या दो बार स्वास्थ्य शिविर आयोजित किए गए थे। वह कहती हैं कि सभी प्रभावित गांवों के 2016 के एक सर्वेक्षण ने निष्कर्ष निकाला कि कैंसर की घटना सामान्य थी, जो प्रति 1,000 से कम है। कैंसर आनुवंशिकी, भोजन/आदतों, धूम्रपान या तंबाकू के सेवन से हो सकता है। इसका प्रदूषण से कोई सीधा संबंध नहीं मिला। हालांकि, सर्वेक्षण पानी के प्रदूषण को खारिज नहीं कर सका क्योंकि कोई दीर्घकालिक अध्ययन नहीं किया गया था। वह कहती हैं कि जिला स्वास्थ्य विभाग ने रक्त में भारी धातुओं के लिए रोगी के नमूनों का परीक्षण नहीं किया क्योंकि प्रत्येक नमूने की लागत 12,000 रुपए तक हो सकती है। यह परीक्षण हमें अनुमान लगाने में मदद कर सकता है। हमारे पास ऐसी सुविधाएं नहीं हैं।
काली (पश्चिम) नदी अपने जलग्रहण क्षेत्र में स्थित औद्योगिक इकाइयों से निकले अपशिष्ट के साथ-साथ मुजफ्फरनगर शहर और आस-पास के गांवों से सीवेज को समेटे हुए मेरठ में बहती है जहां वह पिठलोकर गांव के पास हिंडन नदी में मिल जाती है। 9375 की आबादी वाले इस गांव में अभी तक पाइप्ड पानी का कनेक्शन नहीं है, जिसका अर्थ है कि निवासियों को हैंडपंप का इस्तेमाल करने के लिए मजबूर होना पड़ता है। पिठलोकर के ग्राम प्रधान मोहम्मद सैयद ने बताया, “दस साल पहले हमारे हैंडपंप खराब होने लगे थे। नदी की ओर यह समस्या अधिक गंभीर है।” वह बताते हैं कि गांव को एक साल में पाइप्ड पानी के कनेक्शन मिल जाएंगे। यह भी उन 148 गांवों में से एक है जिन्हें सरकार द्वारा पाइप के जरिए जलापूर्ति संबंधी कनेक्शन प्राप्त करने के लिए चुना गया था।
मजदूरी का काम करने वाले आसिफ को सरकारी हैंडपंप से पानी लाने के लिए 2 किलोमीटर की पैदल यात्रा करनी पड़ती है। वह कहते हैं, “कभी-कभी हम अपने हैंडपंप का इस्तेमाल करते हैं, जो काला पानी देता है और उससे बदबू आती है। हम अक्सर पीने से पहले पानी नहीं उबालते हैं। हम साफ पानी के लिए गहराई से बोरिंग नहीं कर सकते हैं। यह बहुत महंगा है।” उनके सभी 6 बच्चों को त्वचा संक्रमण है। उनकी पत्नी केवल 32 वर्ष की हैं लेकिन उन्हें हृदय की समस्या है। 2017 में उन्होंने एंजियोप्लास्टी करवाई और अभी भी दवा चल रही है।
पत्नी की बीमारी पर आसिफ कहते हैं, “मैंने उनके इलाज पर लाखों रुपए खर्च किए हैं। मुझे अपने 5-7 मवेशी बेचने पड़े हैं और कर्ज लेना पड़ा है।” वह हर दिन 300 से 400 रुपए कमाते हैं लेकिन कुछ ही दिनों में उन्हें दवाओं पर 800 रुपए खर्च करने पड़ते हैं। अपनी लाचारी जताते हुए वह पूछते हैं, “हम इसे कैसे वहन कर सकते हैं?” मेरठ में केवल 5 उद्योग हैं और दो नाले हैं। शहर 10 एमएलडी सीवेज पैदा करता है, जिसमें से कोई भी उपचारित नहीं है क्योंकि सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट ही नहीं है।
सहारनपुर से कृष्णी नदी शामली जिले के सिक्का ड्रेन तक जाती है जहां इसमें मारुति पेपर्स प्राइवेट लिमिटेड से औद्योगिक अपशिष्ट मिलता है। इसके अलावा सिक्का और जलालपुर गांव का घरेलू सीवेज भी उसमें मिलता है। जिले में 6 उद्योग हैं और यहां 33.5 एमएलडी का उत्पादन होता है, जिसके लिए कोई सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट नहीं है। डाउन टू अर्थ ने सिक्का का दौरा किया।
यहां घरों में पाइप्ड पानी के कनेक्शन हैं। मजदूर और 5 बच्चों के पिता विनोद सिक्का ड्रेन के आस-पास एक कच्चे घर में रहते हैं। वह ड्रेन से पैदा होने वाली समस्याओं से निराश हैं। ठहरा हुआ पानी ड्रेन को मच्छरों के प्रजनन के लिए आदर्श जगह बनाता है। विनोद पुरानी खांसी की शिकायत करते हैं। वह कहते हैं कि मैंने देखा है कि हर बार जब मैं गांव छोड़ता हूं तो मुझे बेहतर लगता है। मैं अपने पूरे परिवार के लिए दवाओं पर महीने में 3500- 4000 रुपए खर्च करता हूं। विनोद के घर से कुछ मीटर दूरी पर ही मारुति पेपर मिल है। मोहम्मद सलीम भी सिक्का गांव के हैं और चंडीगढ़ में एक निजी कंपनी में फोन मैन के रूप में काम करते हैं। पांच साल पहले मच्छरों और स्वच्छता की समस्या के कारण वह अपने गांव से बाहर चले गए।
कृष्णी नदी की बात करें तो यह बागपत जिले में बहती है, जहां यह बरनावा गांव के पास हिंडन में मिल जाती है। नदी को ऊपरी गंगा नहर के जानी एस्केप से लगभग 1500 क्यूसेक पानी मिलता है। बागपत में 0.1 एमएलडी सीवेज पैदा होता है, जिसका बिल्कुल भी ट्रीटमेंट नहीं होता है। वजह वही है- सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट की कमी। यहां एक ही उद्योग है और एक मिक्स्ड ड्रेन है।
विलय के बाद, हिंडन 4000 से अधिक की आबादी वाले मुकारी गांव के आस-पास से गुजरती है। उसी जिले में आईजीएस इंटर कॉलेज के प्रिंसिपल राज कुमार बताते हैं कि गांव में कैंसर के मामले, त्वचा संक्रमण, दांत और लिवर की समस्याएं देखी गई हैं। वह कहते हैं कि यहां पीने का पानी एक समस्या है।
तीन साल पहले पाइप्ड पानी के कनेक्शन उपलब्ध कराए गए थे लेकिन कुछ ठीक से काम नहीं कर रहे हैं। हमें नहीं पता कि समस्या क्या है। 200 फीट से पानी निकालने वाले सभी हैंडपंप खराब हो गए हैं। वह बताते हैं कि कम से कम तीन लोग कैंसर से पीड़ित हैं और पिछले एक दशक में कम से कम 4 लोगों की इस बीमारी से मौत हो चुकी है।
गांव के पूर्व प्रधान सुनील त्यागी को पांच साल पहले मूत्राशय कैंसर का पता चला था। वह अपने बिस्तर पर आराम कर रहे हैं और उन्हें सेलाइन बॉटल से इन्फ्यूजन IV ड्रिप के जरिए दवा दी जा रही है। उनके भाई शिवकुमार त्यागी पेशे से किसान हैं और वह भी ग्राम प्रधान रह चुके हैं। वह बताते हैं कि सुनील ने गाजियाबाद के एक निजी अस्पताल में सर्जरी और कीमोथेरेपी करवाई थी। सुनील भी जोर देते हैं कि सारी स्वास्थ्य समस्याओं की जड़ में हिंडन की वजह से भूजल का दूषित होना है। परिवार अब एक सबमर्सिबल मोटर का इस्तेमाल करता है जो सतह से 250 फीट नीचे से पानी पंप करता है। वह बताते हैं कि पानी अच्छा लगता है और पीला नहीं होता है। लेकिन हमने पानी की गुणवत्ता का परीक्षण नहीं किया है। और हर कोई मोटर स्थापित नहीं कर सकता क्योंकि इसकी लागत 40,000 रुपए तक हो सकती है।
हिंडन से उनकी फसलों को नुकसान पहुंच रहा है, इससे त्यागी निराश हैं। वह ऊपरी गंगा नहर को अपनी समस्याओं के लिए दोषी ठहराते हैं। वह कहते हैं कि पिछले साल, गांव के लोगों को 7-9 करोड़ रुपए तक का नुकसान हुआ जब 1.5 फीट नदी का पानी उनके खेतों में घुस गया और दो महीने तक रहा। इस साल भी, जब डाउन टू अर्थ ने सितंबर में गांव का दौरा किया, तो हिंडन का पानी किनारे के साथ गन्ने की फसलों में घुस गया था। एक अन्य किसान निवंतक त्यागी को आशंका है कि इस साल भी फसल को नुकसान होगा। मुकारी से लगभग 1.5 किमी दूर नदी के किनारे गतौली नाम का एक छोटा सा गांव है। 1,700 से अधिक लोगों के घर वाले गांव ने कैंसर के मामले और पीलिया के मामले देखे हैं।
पानी के पाइप लगाए गए हैं लेकिन कनेक्शन अभी चालू नहीं है। इस वजह से प्यारे जैसे लोगों को अपने घर के बाहर हैंडपंप का पानी पीने के लिए मजबूर होना पड़ता है। हैंडपंप से निकले पानी में काले तलछट थे, जो बिना किसी हलचल के नीचे बैठ गए।
प्यारे कहते हैं, “हम कभी-कभी ही पानी उबालते हैं।” दैनिक मजदूरी कमाने वाले प्यारे बताते हैं, “सरकारी अस्पताल 40 किमी दूर है। यह बहुत दूर है।” जिले के ये दोनों गांव एनजीटी को भेजी गई 148 प्रभावित गांवों की सूची का हिस्सा नहीं थे। बागपत जिला अस्पताल में सीएमओ कार्यालय की सार्वजनिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ सुरुचि शर्मा का कहना है कि लगभग 40 गांव हिंडन और कृष्णी के किनारे बसे हैं। इनकी आबादी 70,000 है। जिले ने 2022-2023 में एक सर्वेक्षण किया। उन्होंने बताया, “इसमें जिले में किसी भी बीमारी के प्रसार को साबित करने के लिए कोई निर्णायक सबूत नहीं मिला।”
हिंडन नदी गाजियाबाद में अपना रास्ता बनाती है, जहां यह 12 नालों से अपशिष्ट प्राप्त करती है। ये नाले या तो घरेलू सीवेज या घरेलू और औद्योगिक अपशिष्टों का मिश्रण ले जाते हैं। गाजियाबाद के क्षेत्रीय प्रदूषण अधिकारी विकास मिश्रा का कहना है कि जिले में 219 उद्योग हैं। यह 480 एमएलडी सीवेज पैदा करता है और इसकी स्थापित क्षमता 510 एमएलडी है।
बागपत में मुकारी गांव के बाद अगला पड़ाव वहां से 13 किलोमीटर दूर नेकपुर गांव था। यह गांव हिंडन के पास है और इसकी आबादी 6,404 है। यहां हिंडन का पानी भूरा दिख रहा था।
हालांकि, नगर निगम के एक सेवानिवृत्त लाइनमैन और ग्रामीण मगराम बताते हैं कि नदी सर्दियों और गर्मियों में काली हो जाती हैं। अन्य गांववाले भी इसकी पुष्टि करते हैं।
मगराम की पत्नी परसंदी पिछले 10 वर्षों से लिवर की बीमारी से पीड़ित हैं। वह कहते हैं, “कुछ सरकारी हैंडपंप, जो 120 फीट गहरे हैं और लाल पानी देते हैं। आम लोग और मवेशी इसे पीते हैं। हम उनका दूध पीते हैं, जो दूषित होना निश्चित है। सरकार ने पांच साल पहले घरों में पाइप्ड पानी के कनेक्शन उपलब्ध कराए थे।” पेशे से मजदूर मनोज कुमार हैंडपंप का ही पानी पीते हैं। वह कहते हैं कि सरकार जो पाइप्ड वाटर सप्लाई कर रही है, उसमें सीवेज का पानी मिला हुआ हो सकता है, इसलिए वे उसे नहीं पीते। गांव के एक कैब ड्राइवर नन्ने भी उनकी बात से सहमत हैं।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश की इस यात्रा में हिंडन का पीछा करते हुए आखिरी पड़ाव गौतमबुद्ध नगर रहा। इसके तहत मोमनाथल गांव की यात्रा हुई, जो हिंडन और यमुना के संगम बिंदु के पास है।
गांव में 10वीं के छात्र राहुल कुमार कहते हैं कि बरसात को छोड़ दें तो नदी साल के ज्यादातर समय काली रहती है। बाढ़ भी बहुत आम घटना है। करीब 1,000 लोगों की आबादी वाले इस गांव में अब कोई प्रधान नहीं है और अब यह नोएडा अथॉरिटी के अंतर्गत आता है।
किसान और कार्यकर्ता नेम सिंह का कहना है कि लोगों को गुर्दे की पथरी और पीलिया हुआ है और कुछ कैंसर के मामले भी हुए हैं। सरकार ने एक दशक पहले पाइप्ड पानी के कनेक्शन लगाए थे, लेकिन यह अभी भी चालू नहीं है। वह कहते हैं, “मैंने नोएडा अथॉरिटी से भी शिकायत की है लेकिन कुछ नहीं हुआ है।”
अभिष्ट कुसुमा गुप्ता को अब भी उम्मीद है कि हिंडन का पुनरुद्धार किया जा सकता है। वह गौतमबुद्ध नगर में अपने आवास पर बताते हैं, “और अधिक काम करने की आवश्यकता है। एसटीपी अभी तक मानकों को प्राप्त नहीं कर रहे हैं और 100 प्रतिशत नालों को अभी तक एसटीपी से जोड़ा जाना बाकी है।” 50 से अधिक नालों में से केवल तीन नाले ही एसटीपी से जुड़े हैं। वह कहते हैं कि फिलहाल तो इंडस्ट्रियल डिस्चार्ज को रोक दिया जाना चाहिए। घरेलू अपशिष्टों का ट्रीटमेंट किया जाए। दीर्घकालिक समाधान के तौर पर वह सुझाव देते हैं कि इसकी कोशिश की जानी चाहिए कि पूर्व वर्ष भूजल रिचार्ज के लिए नदी में पानी का निरंतर प्रवाह सुनिश्चित हो।
2014 से एनजीटी ने हिंडन के प्रदूषण की निगरानी शुरू की
1950 का दशक: हिंडन बेसिन में पहली बार उद्योग लगे
1970: अध्ययनों ने हिंडन प्रदूषण और उद्योगों से इसके संबंधों पर प्रकाश डाला
1980 का दशक: हिंडन में मछली और पौधों में भारी धातु प्रदूषण पर अध्ययन
2007: हिंडन और भूजल प्रदूषण के बीच संबंध पर अध्ययन
2014: हिंडन और इसकी दो सहायक नदियों (कृष्णी और काली पश्चिम) के प्रदूषण पर राष्ट्रीय हरित अधिकरण (एनजीटी) में पहला मामला
2015: एनजीटी ने राज्य सरकार को हिंडन से प्रभावित गांवों में स्वच्छ पानी की आपूर्ति करने का काम सौंपा
2017: केंद्रीय भूजल प्राधिकरण ने कहा कि भूजल प्रदूषण का स्रोत न केवल प्राकृतिक है, बल्कि मानवजनित भी हैं
2018: केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) ने हिंडन के सात जिलों में जांच की गई जगहों में से आधे में भूजल में सल्फेट, फ्लोराइड, भारी धातुओं की मात्रा स्वीकार्य सीमा से अधिक पाई गई
2019: एनजीटी के निर्देशों के अनुसार उत्तर प्रदेश द्वारा की गई 68 स्वास्थ्य जांचों में 7,520 लोगों में से 122 (1.6 प्रतिशत) मेरठ, सहारनपुर, शामली, मुजफ्फरनगर और बागपत में कैंसर पीड़ित मिले
2020: एनजीटी ने कहा कि पाइप से जलापूर्ति, स्वास्थ्य सुविधाओं और सीवेज ट्रीटमेंट के मामले में प्रगति अपर्याॅप्त है
2021: एनजीटी ने मामला बंद किया, राज्य से सार्वजनिक स्वास्थ्य की रक्षा करने को कहा
2022: एक कार्यकर्ता ने हिंडन के प्रदूषण को रोकने में विफल रहने के लिए सात जिला अधिकारियों के खिलाफ एनजीटी में मामला दर्ज कराया
2023: एनजीटी ने उत्तर प्रदेश को सात जिलों के नगर निकायों के प्रभारी अधिकारियों के खिलाफ आपराधिक शिकायत दर्ज करने और प्रदूषणकारी उद्योगों के खिलाफ आपराधिक मुकदमा चलाने का निर्देश दिया
2024: एनजीटी ने राज्य के मुख्य सचिव से की गई प्रस्तावित कार्रवाई पर रिपोर्ट दाखिल करने को कहा, मामला जारी