
दुनिया में बढ़ता प्लास्टिक अब सिर्फ पर्यावरण ही नहीं, बल्कि मानव स्वास्थ्य और अर्थव्यवस्था के लिए गंभीर चुनौती बन चुका है। मेडिकल जर्नल द लैंसेट में प्रकाशित एक नई रिपोर्ट के हवाले से पता चला है कि प्लास्टिक के कारण हर साल स्वास्थ्य क्षेत्र पर 1.5 ट्रिलियन डॉलर से अधिक का बोझ पड़ रहा है।
गौरतलब है कि यह रिपोर्ट ऐसे समय में सामने आई है जब जिनेवा में 180 से अधिक देशों के प्रतिनिधि वैश्विक प्लास्टिक प्रदूषण संधि (आईएनसी-5.2) को अंतिम रूप देने के लिए चर्चा कर रहे हैं।
रिपोर्ट में इस तथ्य पर भी प्रकाश डाला गया है कि प्लास्टिक में मौजूद केमिकलों से बच्चों से लेकर बुजुर्गों तक कोई सुरक्षित नहीं है। शोधकर्ताओं के मुताबिक प्लास्टिक में मौजूद यह हानिकारक केमिकल इसके निर्माण से निपटान तक हर चरण में लोगों के स्वास्थ्य पर असर डालते हैं। यह लोगों में बीमारियों से लेकर असमय मृत्यु तक की वजह बन रहे हैं।
प्लास्टिक में मौजूद केमिकल हमारे स्वास्थ्य के लिए गंभीर खतरा बन चुके हैं। वैज्ञानिकों का कहना है कि ये रसायन जीवन के हर चरण में स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचाते हैं, जिसमें गर्भ में पल रहे शिशु और छोटे बच्चे सबसे ज्यादा संवेदनशील होते हैं।
दरअसल, प्लास्टिक आज एक ऐसा अदृश्य और तेजी से बढ़ता संकट बन चुका है, जिस पर तुरंत और ठोस कार्रवाई की सख्त जरूरत है।
माइक्रोप्लास्टिक का बढ़ता खतरा
रिपोर्ट में यह भी चेताया है कि प्लास्टिक के महीन कण जिन्हें माइक्रोप्लास्टिक के नाम से जाना जाता है, वो अब प्रकृति से लेकर मानव शरीर तक में रच बस गए हैं। हालांकि इनके सभी प्रभाव अभी पूरी तरह स्पष्ट नहीं हैं, लेकिन वैज्ञानिक इसे स्वास्थ्य के लिए गंभीर खतरा मानते हैं।
माइक्रोप्लास्टिक हमारे शरीर में रक्त, कोशिकाओं से लेकर अंगों तक में जमा हो रहे हैं। दुनिया में आज शायद ही ऐसी कोई जगह होगी जहां प्लास्टिक की मौजूदगी के निशान न मिले हों। प्लास्टिक निर्माण से निकलने वाले पीएम2.5, सल्फर-डाइऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड्स, और भारी रासायनिक तत्व सीधे मानव स्वास्थ्य को प्रभावित कर रहे हैं। इनसे जन्म सम्बन्धी विकार, अस्थमा, कैंसर, हृदय रोग, हार्मोन में गड़बड़ी और विकास संबंधी विकार अब आम होते जा रहे हैं।
अमेरिका के बॉस्टन कॉलेज में प्रोफेसर और इस रिपोर्ट से जुड़े प्रमुख शोधकर्ता फिलिप जे लैंड्रिगन का कहना है, “प्लास्टिक बचपन से लेकर बुढ़ापे तक बीमारियों और मौत की वजह बन रहा है। इसकी वजह से हर साल स्वास्थ्य को 1.5 ट्रिलियन डॉलर से ज्यादा का नुकसान हो रहा है।”
उनका यह भी कहना है कि बच्चों और कमजोर वर्गों पर इसका सबसे ज्यादा प्रभाव पड़ता है।
72 वर्षों में 238 गुना बढ़ा प्लास्टिक उत्पादन
रिपोर्ट के मुताबिक 1950 में वैश्विक स्तर पर महज 20 लाख टन प्लास्टिक का उत्पादन किया गया था, जो 2022 में 238 गुणा बढ़कर 47.5 करोड़ टन पर पहुंच गया। आशंका है कि जिस तेजी से प्लास्टिक उत्पादन बढ़ रहा है यदि वो रफ्तार जारी रहती है तो 2060 तक यह तीन गुना और बढ़ जाएगा। अनुमान है कि 2060 तक प्लास्टिक उत्पादन बढ़कर 120 करोड़ टन पर पहुंच सकता है।
समस्या यह है कि हर साल इतनी बड़ी मात्रा में प्लास्टिक उत्पादन के बावजूद 10 फीसदी से ही कम प्लास्टिक कचरा रीसायकल हो रहा है। बाकी को या तो जला दिया जाता है या फिर पर्यावरण में डंप कर दिया जाता है।
देखा जाए तो दुनिया में अब तक करीब 800 करोड़ टन प्लास्टिक कचरा जमा हो चुका है। प्लास्टिक लम्बे समय तक पर्यावरण में बना रहता है क्योंकि यह प्राकृतिक रूप से नष्ट नहीं होता।
रिपोर्ट बताती है कि वैश्विक स्तर पर 57 फीसदी प्लास्टिक कचरा खुले में जलाया जाता है, जिससे खासकर कमजोर और मध्यम आय वाले देशों में वायु प्रदूषण और स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं गंभीर रूप ले रही हैं। इतना ही नहीं यह कचरा मच्छरों और जीवाणुओं को पनपने के लिए अनुकूल माहौल दे रहा है, जिससे संक्रमण और दवाओं के प्रति प्रतिरोधक क्षमता (एंटीबायोटिक रेसिस्टेन्स) जैसी चुनौतियां भी बढ़ रही हैं।
एक-दूसरे से जुड़े हैं प्लास्टिक और जलवायु संकट
वैज्ञानिकों के मुताबिक प्लास्टिक, जलवायु संकट से भी जुड़ा है, क्योंकि इसका ज्यादातर (98 फीसदी) निर्माण जीवाश्म ईंधन जैसे कोयला, तेल, गैस से होता है। आपको जानकर हैरानी होगी कि प्लास्टिक हर साल ब्राजील से ज्यादा ग्रीनहाउस गैसें वातावरण में छोड़ता है।
प्रोफेसर लैंड्रिगन का कहना है, “प्लास्टिक और जलवायु संकट दोनों लाखों लोगों में बीमारी, मौत और विकलांगता का कारण हैं। अगर उत्पादन और प्रदूषण ऐसे ही जारी रहा, तो आने वाले सालों में स्थिति और भी गंभीर हो जाएगी।“
अनुमान है कि 2040 तक पर्यावरण में प्लास्टिक का रिसाव, 50 फीसदी बढ़ जाएगा। नतीजन प्लास्टिक प्रदूषण से होने वाला कुल नुकसान बढ़कर 281 ट्रिलियन डॉलर तक पहुंच सकता है।
प्लास्टिक की यह समस्या अब सिर्फ पर्यावरण ही नहीं, मानव अस्तित्व के लिए भी संकट बन चुकी है। लैंसेट की यह रिपोर्ट वैश्विक नीति निर्माताओं, वैज्ञानिकों और आम जनता के लिए एक स्पष्ट संदेश है कि यदि अब भी नहीं चेते तो बहुत देर हो जाएगी।
वैज्ञानिकों का कहना है कि अगर ठोस नीति, वैश्विक सहयोग और प्रतिबद्धता दिखाई जाए, तो इस संकट को रोका जा सकता है। ऐसे एक बार फिर जिनेवा में हो रही बैठक पर पूरी दुनिया की निगाहें टिकी हैं।