हिमालयी क्षेत्रों के अवैज्ञानिक ‘विकास’ पर वैज्ञानिक तरीके से सोचने की जरुरत
धराली (उत्तरकाशी, उत्तराखंड), चसोटी (किश्तवाड़, जम्मू कश्मीर) और फिर थराली (चमोली, उत्तराखंड) में आई आपदा ने स्थानीय लोगों का जन जीवन अस्त व्यस्त हो गया है। हिमांचल प्रदेश में सेराज घाटी, कुल्लू, मंडी और कई दूसरे क्षेत्र इस साल सहित पिछले कई सालों से लगातार आपदाओं को झेल रहे है।
सिक्किम में ग्लेशियर झील के फटने से तीस्ता बेसिन में 2023 में भयानक बाड़ के बाद इस साल फिर से बाड़ से प्रभावित है। इन सभी आपदाओं को संवेदनशील हिमालयी क्षेत्रों में अनियोजित और अनियंत्रित विकास परियोजनाओं और वैश्विक जलवायु परिवर्तन ने इनके आकार और प्रभाव दोनों को बढ़ाने में मदद की है। हिमालयी क्षेत्रों में बरसात के मौसम में लगातार आने वाली आपदाओं की संख्या में लगातार बढ़ोत्तरी हो रही है, जिसका प्रभाव हर साल बढ़ रहा है।
2013 उत्तर पश्चिमी हिमालय में हाल के आपदा इतिहास और अवधारणाओं में एक महत्वपूर्ण मोड़ के रूप में उभरा। जून 2013 में जब उत्तराखंड में केदारनाथ त्रासदी हुई, तो इसका प्रभाव केवल केदारनाथ तक ही सिमित नहीं रहा बल्कि बद्रीनाथ क्षेत्र, हिमाचल के किन्नौर जिले सहित हिमालयी क्षेत्र के नदी तंत्रों को भारी बाढ का सामना करना पड़ा।
केदारनाथ आपदा के बाद तो आपदाओं का सिलसिला हर साल बढ़ता ही रहा। इस दशक के शुरूआती चार वर्षों को ही देखे तो केवल हिमाचल प्रदेश में ही 2021 के मानसून सीजन में हुई आपदाओं में 476 लोग मारे गए और 1151 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ।
2022 में 276 मौतें और 939 करोड़ रुपए का नुकसान, 2023 में 441 मौतें और 12,000 करोड़ रुपए का नुकसान, 2024 में 174 मौतें और 1,613 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ था, जबकि उत्तराखंड केवल इस साल हुई आपदाओं ने केदारनाथ आपदा के बाद सबसे अधिक आर्थिक नुकसान हो गया जो अगस्त बीतने तक 5,000 करोड़ रुपए तक पहुंच गया है।
वही हिमाचल में 13 हजार करोड़ रुपए का आर्थिक नुकसान हो चुका है। जून, जुलाई और अगस्त तीन महीनों में हिमाचल में 327, उत्तराखंड में 77 और जम्मू कश्मीर में 132 लोगों के मारे जाने की खबर है। ये आंकडें इन आपदाओं की भयावहता की ओर संकेत करते है।
भू वैज्ञानिकों की चेतावनियां-
आपदाओं ने हिमालयी पर्यावरण पर विमर्श को मुख्यधारा में ला जरूर दिया है, लेकिन सच ये भी है कि क्षणिक कवरेज के अलावा आपदा के दीर्घकालिक कारणों, संवेदनशील हिमालयी क्षेत्रों में विकास परियोजनाओं के अनियोजित, अनियंत्रित और अवैज्ञानिक तरीके से संचालित होने के कारण पड़े पर्यावरणीय प्रभावों पर, पर्यावरणीय नियमों के क्रियान्वयन में आपराधिक लापरवाहियों पर बहुत कम चर्चा होती है।
चर्चाएँ ना होने से आम लोग कॉर्पोरेट पूंजी, विकास परियोजनाओं और आपदाओं के अन्तर्सम्बन्धों को नहीं समझ पाते है। हर साल हो रहे इन नुकसानों के बारे में वैज्ञानिक और पर्यावरणविद आम लोगों से लेकर सरकारों तक को चेतावनी देते है लेकिन उनकी चेतावनियों को अनुसुना कर दिया जाता है।
भू वैज्ञानिक डॉ एस पी सती कहते है कि “इन लगातार होने वाली आपदाओं का एक बड़ा कारण जलवायु परिवर्तन है लेकिन केवल यही कारण नही है। हिमालयी क्षेत्रों में सड़क चौडीकरण परियोजनाएं, हाइड्रोपावर प्रोजेक्टस और रेलवे प्रोजेक्ट्स के मिश्रण ने जो तबाही मचाई है उसका परिणाम आज हमारे सामने है।
ये सारे प्रोजेक्ट्स कमजोर हिमालयी क्षेत्रों को खोद कर बनी सुरंगों से संवेदनशील क्षेत्रों तक पहुँच रहे है जिस ने तबाही को कई गुना बढ़ा दिया है। हिमालयी क्षेत्रों की ये तबाही यही नहीं रुकेगी, बल्कि भविष्य में यही हमारे सामने और भी विकराल रूप में सामने आएगा। हमने कई बार सरकार को चेतावनी दी लेकिन सरकार उसी विनाशकारी विकास के मॉडल को आगे बढ़ा रही है। हमें अत्यधिक पर्यावरणीय नुकसान करने वाले विकास मॉडल की फाइलों में फिर से झाँकने की जरुरत है।”
28 जुलाई को न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति आर. महादेवन की सर्वोच्च न्यायालय की खंडपीठ ने कहा कि "अगर चीजें आज की तरह ही चलती रहीं, तो वह दिन दूर नहीं जब पूरा हिमाचल प्रदेश राज्य देश के नक्शे से गायब हो जाएगा"। सुप्रीम कोर्ट की इस तल्ख टिप्पणी ने एक बार फिर हिमाचल प्रदेश में बढ़ती आपदाओं पर न केवल प्रशासनिक लापरवाही और अनियोजित विकास कार्यों की पोल खोली है, बल्कि जलवायु परिवर्तन के प्रति सरकारों की उदासीनता को भी उजागर किया है।
स्थानीय पारिस्थितिकी के अनुकूल योजनायें-
हिमालय की ‘आंतरिक संवेदनशीलता’ पर ध्यान केन्द्रित कर हिमालय की ‘आपदाओं’ को ‘प्राकृतिक’ या फिर ‘जलवायु परिवर्तन जनित आपदाओं’ के रूप में चित्रित करने से आपदाओं को आकस्मिक घटनाओं तक सीमित कर दिया जाता है। जबकि इन सभी घटनाओं के पीछे प्राकृतिक के साथ-साथ मानवीय कारण भी जिम्मेदार है।
हिमालयी क्षेत्रों में विकास परियोजनाओं का कोई अलग संवेदनशील मॉडल नहीं है। सड़के, मैदानी क्षेत्रों की तरह ही बेतरतीब चौड़ी की जा रही है। जबकि सुप्रीम कोर्ट की चारधाम प्रोजेक्ट के लिए बनी हाई पॉवर कमेटी के पूर्व अध्यक्ष पर्यावरणविद रवि चोपड़ा ने नाजुक हिमालयी भूभाग और संवेदनशील हिमालयी पारिस्थितिकी तंत्र को ध्यान में रखकर इस परियोजना में सड़कों की चौड़ाई 5.5 मीटर रखने का सुझाव दिया था, लेकिन इसे स्वीकार नहीं किया गया।
जोशीमठ बचाओ संघर्ष समिति के संयोजक अतुल सती ने कहा, “हम कभी आपदाओं से कोई सीख नहीं लेते है। 2013 की केदारनाथ की आपदा के बाद लगा था कि हम हिमालय की संवेदनशीलता को समझेंगे लेकिन हम देख रहे है कि केदारनाथ में जो पुनर्निर्माण हुआ है वो और भयावह है। इतनी ऊंचाई वाली जगह पर तीन-चार मंजिला होटल बन रहे है। बेतरतीब हैली सेवाएं, टेक्सी सेवाओं की तरह संचालित हो रही है।"
सती कहते हैं कि सरकार बिना हिमालयी क्षेत्रों की समझ के यहां ठीक वैसी ही परियोजनाएं क्रियान्वयित कर रही है जैसी मैदानी क्षेत्रों में संचालित हो रही है। नरेंद्र मोदी के गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए अहमदाबाद में रिवर फ्रंट बनाया गया, बनारस में भी वैसा ही रिवर फ्रंट बना, फिर यही रिवर फ्रंट बन रहा है केदारनाथ में। केदारनाथ 11 हजार फीट से भी ज्यादा की ऊंचाई पर है और बनारस की ऊंचाई 264 फिट है तो वही अहमदाबाद की ऊंचाई केवल 174 फीट।
सती ने कहा, "ये सभी प्रधानमंत्री मोदी के ड्रीम प्रोजेक्ट है। लेकिन इन सभी जगह एक जैसा रिवर फ्रंट बन रहा है। और अब ऐसा ही रिवर फ्रंट व कोरिडोर 10 हजार फीट वाले बद्रीनाथ धाम में बन रहा है। 16 हजार फुट की ऊंचाई पर स्थित हेमकुंड साहिब में हमारे विरोध के बावजूद हैलीपैड बन रहा है।"
हिमालय की संवेदनशीलता को देखते हुए हमारे बड़े –बूढों की मान्यताएं थी कि उच्च हिमालयी क्षेत्रों के बुग्यालों में चप्पल पहन कर नहीं जाते थे, रंगीन कपड़े नहीं पहनते थे, बड़ी आवाज नहीं करते थे। केदारनाथ में शंख से पूजा होती थी लेकिन हिमालयी सन्वेदनशीलता को देखते हुए पुरानी मान्यताओं के अनुसार बद्रीनाथ में शंख नही बजता है। लेकिन आज इन्ही उच्च हिमालयी क्षेत्रों में बड़ी बड़ी मशीने पहुंच चुकी है जो रोज वहां तोड़ – फोड़ कर रही है, बद्रीनाथ- केदारनाथ में चार मंजिला होटल और घर बन रहे है।
इन क्षेत्रों में पर्यटकों की संख्या को सरकार अपनी उपलब्धि के रूप में दिखा रही है। नंदा देवी पर्वत विदेशियों के लिए पर्वतारोहण जी जगह हो सकती है जहाँ वो चढ़ कर जितना चाहते हो लेकिन हमारी मान्यताओं में नंदा देवी पर्वत हमारी आस्था की प्रतीक है, वो हमारे लिए माँ के रूप में है, इसलिए ताकि उसका संरक्षण हो सके।
सती कहते हैं कि हम लगातार उच्च हिमालयी क्षेत्रों में इन विकास कार्यों का विरोध कर रहे है लेकिन सरकार सुन नहीं रही है वो हर रोज हिमालय को और बर्बाद करने वाली नयी-नयी परियोजनाएं स्वीकृत कर रही है। ये सब ‘कुछ’ पूंजीपतियों के फायदे के लिए किया जा रहा है जबकि हम हिमालय के लोग इन परियोजनाओं के परिणाम अपनी जान गँवा कर भुगत रहे है।
कॉर्पोरेट केंद्रित परियोजनाओं का दुष्प्रभाव
वर्तमान में, हिमालयी क्षेत्रों में कई परियोजनाएं कॉर्पोरेट हितों को ध्यान में रखकर संचालित की जा रही हैं। इन परियोजनाओं के संचालन में पर्यावरणीय नियमों को नजरअंदाज किया जा रहा, जिसका परिणाम आज सभी के सामने है। ये परियोजनाएं न केवल स्थानीय पारिस्थितिकी को नष्ट कर रही हैं, बल्कि भूस्खलन और बाढ़ जैसे खतरों को भी बढ़ा रही हैं।
कॉर्पोरेट्स को लाभ पहुंचाने के लिए सरकारें अक्सर पर्यावरणीय प्रभाव आकलन (ईआईए) को कमजोर करती हैं, जिसके परिणामस्वरूप दीर्घकालिक नुकसान हो रहा है। उत्तराखंड में चार धामों (केदारनाथ, बद्रीनाथ, यमुनोत्री और गंगोत्री) की सड़कों को सुधारने के लिए चारधाम परियोजना के तहत 889 किलोमीटर लम्बी सड़क चौड़ीकरण परियोजना का काम चल रहा है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कई ड्रीम प्रोजेक्ट्स में से एक इस परियोजना में नियमों के अनुसार पर्यावरणीय प्रभाव आकलन किया जाना चाहिए था, लेकिन इस एक परियोजना को 53 परियोजनाओं में बांटा गया ताकि पर्यावरणीय प्रभाव आकलन करने से बचा जा सके।
आज इस एक परियोजना ने उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र में भू-स्खलन और अन्य आपदाओं की गति में विनाशकारी वृद्धि कर दी है। इस परियोजना से से पहले ऋषिकेश से बद्रीनाथ तक 5-6 भूस्खलन वाली जगहे थी लेकिन अब नेशनल हाईवे अथोरिटी ऑफ़ इंडिया के अनुसार भूस्खलन की दृष्ठि से 46 संवेदनशील जगहें बन चुकी है। इस परियोजना के संदर्भ में भी भू वैज्ञानिकों व पर्यावरणविदों ने समय समय पर सरकार को अपनी चिंता जाहिर की थी।
आम तौर पर सरकार और परियोजना निर्माणकर्ताओं द्वारा यह अवधारणा सामने रखी जाती है कि परियोजना से जुड़े नकारात्मक प्रभाव केवल निर्माण की अवधि तक सीमित होते हैं और बाद में इनसे कोई खतरा नहीं हैं परन्तु पिछले दो दशकों के हिमालयी क्षेत्रों में जल विद्युत परियोजनाओं के साथ अनुभव बताते हैं कि नदियों के बहाव में अंतर आने से लम्बे समय में नदी का कुदरती बाढ़ तंत्र और मलबे को संभालने और झेलने की क्षमता में बड़े बदलाव आते हैं जो बाढ़ के प्रभावों को घातक बना देते हैं ख़ास कर बांधों के नीचे बसी घाटियों में।
क्योंकि इन परियोजनाओं का मुख्य उद्देश्य ही बिजली पैदा करना है तो कई बार समय से टनल से जल रिसाव का पानी नहीं छोड़ने और सही समय पर गेट नहीं खोलने से दुर्घटनाओं का प्रभाव बढ़ जाती हैं जैसा कि केदारनाथ की 2013, ऋषिगंगा (जोशीमठ) 2021 और हिमाचल में 2023 की बाढ़ में देखा गया। इसी तरह का अनुभव ऋषिकेश से कर्णप्रयाग तक की रेलवे प्रोजेक्ट के भी है कि जहाँ जहाँ से रेलवे सुरंग बन रही है उन सभी क्षेत्रों में लोगों के घरों में दरारें आ रही है और लोगों को मजबूरी में अपने घर छोड़ने पड़ रहे है।
आपदाओं को चुनावी मुद्दा बनाने की आवश्यकता-
हिमालयी क्षेत्रों में पर्यावरण और आपदाएं आम लोगों के जीवन और मृत्यु से जुड़े हुए मुख्य विषय है। लेकिन पर्यावरण और आपदा प्रबंधन जैसे विषय चुनावी घोषणापत्रों में प्राथमिकता नहीं पाते है। चुनावी घोषणा पत्र किसी राजनीतिक दल के लिए बहुत जरुरी और आम लोगों के बीच पहुँचने का माध्यम होता है।
सभी राजनीतिक दल कोशिश करते है कि उन सभी बिन्दुओं को घोषणा पत्रों में शामिल किया जाय जो जनता को प्रभावित करते है। जबकि हिमालयी क्षेत्रों में राजनीतिक दल विकास के नाम पर कॉर्पोरेट केंद्रित परियोजनाओं को बढ़ावा देते हैं, लेकिन पर्यावरण संरक्षण और स्थानीय समुदायों की सुरक्षा के लिए ठोस नीतियां बनाने में पीछे रहते हैं। यदि मतदाता पर्यावरणीय मुद्दों को प्राथमिकता देकर वोट देने लगें, तो सरकारें मजबूर होंगी कि वे कॉर्पोरेट हितों के बजाय पर्यावरण केंद्रित परियोजनाओं पर ध्यान दें।
हिमालयी क्षेत्रों में आपदाओं का समाधान तभी संभव है जब इसे एक प्रमुख राजनीतिक मुद्दा बनाया जाए। 1970 के दशक में कई देशों में पर्यावरण को ध्यान में रख कर राजनीतिक दलों का निर्माण किया गया, ये राजनीतिक दल पर्यावरण केन्द्रित मुद्दों को बहस के केंद्र में लाते है। आज हिमालयी क्षेत्रों में भी यही करने की आवश्यकता है ताकि पर्यावरण के विषयों पर लम्बी बात हो, ताकि लोग जागरूक हो सके और उनके लिए प्रभावी नीतियाँ बने और ना केवल बने बल्कि उन का क्रियान्वयन भी किया जा सके।
बड़ी परियोजनाओं (जल विद्युत, हाईवे निर्माण, पर्यटन संबंधी निर्माण कार्य आदि) के निर्माण से पूर्व प्रभावित क्षेत्र का आपदा प्रभाव अध्ययन किया जाना चाहिए। जल निकासी पर विशेष ध्यान देते हुए गांवों, कस्बों व शहरों में घरों व कार्यालयों से निकलने वाले पानी की निकासी के लिए योजनाबद्ध कार्य करने की आवश्यकता है। साथ ही प्राकृतिक जल निकासी के लिए महत्वपूर्ण छोटे नालों और नदी तंत्रों के इनके आस-पास निर्माण कार्य को प्रतिबंधित किया जाय। नदी में किसी भी प्रकार का मलबा फैंकने पर कार्यवाही की जाये।
हिमालयी क्षेत्रों पर जलवायु परिवर्तन की मार पड़ रही है, ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे है। ग्लेशियरों का पिघलना केवल हिमालयी क्षेत्रों का नुकसान नहीं है बल्कि यह पूरे देश का नुकसान है। इस लिए अब जब हिमालयी क्षेत्र में विनाशकारी परियोजनाएं संचालित हो तो पूरे देश को आवाज उठाने की जरुरत है। हमारी जरुरतें हिमालय सदियों से पूरी कर रहा है, लेकिन हमारे लालच को ना हिमालय स्वीकार कर रहा है न ही हमें स्वीकार करना चाहिए।
(लेख में व्यक्त लेखिका के निजी विचार हैं)