भारत में कोरोना के नवजात शिशुओं पर पड़े प्रभावों को लेकर किए एक नए अध्ययन से पता चला है कि महामारी के दौरान मांओं ने पहले से कहीं ज्यादा कमजोर बच्चों को जन्म दिया। यह कमजोर बच्चे न केवल स्वास्थ्य समस्याओं से जूझने को मजबूर हैं, साथ ही उनके शारीरिक और मानसिक विकास पर भी इसका गहरा असर पड़ा।
यूनिवर्सिटी ऑफ हवाई और नॉट्रे डेम विश्वविद्यालय से जुड़े शोधकर्ताओं द्वारा किए इस अध्ययन के मुताबिक महामारी से पहली की तुलना में कोरोना के दौरान भारत में तीन फीसदी अधिक कमजोर बच्चों का जन्म हुआ।
गौरतलब है कि जहां महामारी से पहले 17 फीसदी नवजातों का वजन सामान्य से कम था। वहीं महामारी के दौरान यह आंकड़ा बढ़कर 20 फीसदी पर पहुंच गया।
बता दें कि जन्म के समय नवजात का वजन भ्रूण के विकास का एक महत्वपूर्ण संकेतक है। जब किसी शिशु का जन्म के समय वजन ढाई किलोग्राम से कम होता है तो उसे सामान्य से कम माना जाता है। यह दर्शाता है कि गर्भावस्था के दौरान मां को पर्याप्त पोषण नहीं मिला या फिर वो इस दौरान स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं से जूझ रही थी।
विशेषज्ञों के मुताबिक जन्म के समय जिन बच्चों का वजन सामान्य से कम होता है, उन्हें शारीरिक और मानसिक समस्याओं के साथ-साथ जीवन में आगे चलकर पढ़ने-लिखने में समस्या हो सकती है, साथ ही उनमें व्यवहार संबंधी समस्याओं का जोखिम बढ़ सकता है। अनुमान है कि इसकी वजह से अन्य बीमारियों का खतरा भी बढ़ जाता है।
एक प्रेस विज्ञप्ति में अध्ययन से जुड़े शोधकर्ता संतोष कुमार ने जानकारी दी है, "महामारी के दौरान भारत में कम वजन वाले बच्चों की संख्या में वृद्धि हुई।" उनके मुताबिक यह एक वैश्विक समस्या है जो इस बात को प्रभावित करती है कि बच्चे स्कूल में कितना अच्छा प्रदर्शन करते हैं और भविष्य में उनकी आर्थिक स्थिति कैसी रहेगी यह उसपर भी असर डालता है।
उनके मुताबिक कम वजन के साथ पैदा होने वाले शिशुओं को अक्सर स्कूल में परेशानी होती है, जिससे उनके लिए ज्ञान और कौशल हासिल करना कठिन हो जाता है। नतीजन आगे चलकर भविष्य में उनके लिए अच्छी जीविका कमाने और अपने परिवार को सहारा देने की क्षमता प्रभावित हो सकती है।
अमेरिकी शिक्षा विशेषज्ञों के मुताबिक कोविड-19 महामारी के दौरान पैदा हुए बच्चे अब स्कूलों में पहुंच रहे हैं, लेकिन उनमें कौशल में कमी देखी जा रही है। कहीं न कहीं एक ऐसी नई पीढ़ी सामने आ रही है जिनमें उम्र के अनुसार कौशल विकसित नहीं हो पाया है। यह बच्चे पेंसिल पकड़ने, अपनी जरुरतों को बताने, आकृतियों और अक्षरों को पहचानने, अपनी भावनाओं को प्रदर्शित करने या साथियों के साथ अपनी समस्याओं को हल करने में सक्षम नहीं हैं।
तनाव, स्वास्थ्य देखभाल में आया व्यवधान जैसे कारक रहे जिम्मेवार
वैश्विक रूप से देखें तो हर चौथे बच्चे जन्म के समय वजन सामान्य से कम होता है। इसका निम्न और मध्यम आय वाले देशों पर गहरा प्रभाव पड़ता है। यह समस्या दक्षिण एशिया में बेहद गंभीर है, जहां दुनिया की करीब एक चौथाई आबादी बसती है।
अपने इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने 198,203 से अधिक शिशुओं के आंकड़ों का विश्लेषण किया है। इनमें से करीब 11,851 बच्चे महामारी के दौरान पैदा हुए, जबकि 192,764 बच्चों का जन्म महामारी से पहले हुआ था।
इसके कारणों पर प्रकाश डालते हुए शोधकर्ताओं ने अध्ययन में जानकारी दी है कि महामारी से जुड़े कई कारकों ने गर्भवती महिलाओं के स्वास्थ्य को प्रभावित किया। इसमें सार्स-कॉव-2 वायरस की वजह से सामाजिक दूरी के कारण पैदा हुआ तनाव, आर्थिक उथल-पुथल और जच्चा-बच्चा की स्वास्थ्य देखभाल में आया व्यवधान जैसे कारक जिम्मेवार थे।
कुमार के मुताबिक यह शोध इस मामले में लक्षित नीतियों की आवश्यकता पर प्रकाश डालता है, जिनकी मदद से बच्चों के स्वास्थ्य को बेहतर बनाया जा सके। यह सुनिश्चित करना जरूरी है कि आर्थिक रूप से कमजोर महिलाओं को भी गर्भावस्था के दौरान पर्याप्त पोषण और कैलोरी मिल सके। साथ ही उन्हें प्रसव से पहले भी बेहतर स्वास्थ्य देखभाल मिल सके।
शोधकर्ताओं के मुताबिक इससे न केवल बच्चों के स्वास्थ्य पर असर पड़ेगा। इससे स्कूलों में उनका प्रदर्शन बेहतर होगा और उनके लिए भविष्य में बेहतर रोजगार पाने के दरवाजे खुलेंगे। इससे परिवारों को गरीबी से उबरने में मदद मिलेगी।
इस अध्ययन के नतीजे नेचर के कम्युनिकेशंस मेडिसिन जर्नल में प्रकाशित हुए हैं।
कॉर्नेल यूनिवर्सिटी के टाटा-कॉर्नेल इंस्टीट्यूट फॉर एग्रीकल्चर एंड न्यूट्रिशन (टीसीआई) से जुड़े शोधकर्ताओं द्वारा किए एक अन्य अध्ययन से पता चला है कि कोरोना महामारी के दौरान भारत की खाद्य प्रणालियों में आए व्यवधान के चलते कम वजन वाले बच्चों की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई है, क्योंकि लॉकडाउन ने उनको मिलने वाले पोषण को गंभीर रूप से प्रभावित किया।