

हर साल 15 साल से कम उम्र के दो लाख से अधिक बच्चों में कैंसर की पहचान होती है, लेकिन कमजोर देशों में इलाज की कमी के कारण 75 हजार बच्चे अपनी जान गंवा देते हैं।
आंकड़े दर्शाते हैं कि समृद्ध देशों में कैंसर से पीड़ित 10 में से आठ या उससे अधिक बच्चे इस बीमारी से बच जाते हैं, वहीं कमजोर और मध्यम आय वाले देशों में यह दर 40 फीसदी से भी कम है।
उदाहरण के लिए प्यूर्टो रिको में केंद्रीय तंत्रिका तंत्र के ट्यूमर से पीड़ित करीब 80 फीसदी बच्चे बीमारी का पता चलने के तीन साल बाद तक जीवित रह पाते हैं, जबकि अल्जीरिया के मामले में यह आंकड़ा महज 32 फीसदी है।
इसी तरह ल्यूकेमिया के मामले में यह असमानता और भी गहरी है, उदाहरण के लिए केन्या में जहां महज 30 फीसदी बच्चे ही निदान के बाद तीन साल तक जीवित रह पाते हैं, वहीं प्यूर्टो रिको में यह दर 90 फीसदी तक पहुंच जाती है।
यानी एक ही बीमारी, लेकिन देश बदलते ही जीवन बचने की संभावना तीन गुणा तक बदल जाती है।
हर साल दुनिया में 15 साल से कम उम्र के दो लाख से अधिक बच्चों में कैंसर की पहचान होती है। वहीं करीब 75 हजार बच्चे अपनी जान गंवा देते हैं। आंकड़े साफ दर्शाते हैं कि बच्चों की मौत की वजह सिर्फ बीमारी नहीं, बल्कि इलाज तक पहुंच और स्वास्थ्य व्यवस्था में गहरी असमानता है।
आंकड़े दर्शाते हैं कि समृद्ध देशों में कैंसर से पीड़ित 10 में से आठ या उससे अधिक बच्चे इस बीमारी से बच जाते हैं, वहीं कमजोर और मध्यम आय वाले देशों में यह दर 40 फीसदी से भी कम है। यानी एक ही बीमारी, एक ही उम्र, लेकिन देश बदलते ही जीवित बचने की संभावना तीन गुणा तक बदल जाती है।
असमानता की हकीकत
अध्ययन के मुताबिक बच्चों में कैंसर के ज्यादा मामले यूरोप और उत्तरी अमेरिका में दर्ज होते हैं, लेकिन सबसे ज्यादा मौतें अफ्रीका, एशिया और दक्षिण अमेरिका में हो रही हैं।
इंटरनेशनल एजेंसी फॉर रिसर्च ऑन कैंसर (आईएआरसी) के आंकड़ों पर आधारित इस नए अध्ययन के मुताबिक प्यूर्टो रिको में केंद्रीय तंत्रिका तंत्र के ट्यूमर से पीड़ित करीब 80 फीसदी बच्चे बीमारी का पता चलने के तीन साल बाद तक जीवित रह पाते हैं, जबकि अल्जीरिया के मामले में यह आंकड़ा महज 32 फीसदी है।
इसी तरह ल्यूकेमिया के मामले में यह असमानता और भी गहरी है, उदाहरण के लिए केन्या में जहां महज 30 फीसदी बच्चे ही निदान के बाद तीन साल तक जीवित रह पाते हैं, वहीं प्यूर्टो रिको में यह दर 90 फीसदी तक पहुंच जाती है। यानी एक ही बीमारी, लेकिन देश बदलते ही जीवन बचने की संभावना तीन गुणा तक बदल जाती है।
23 देशों के करीब 17 हजार बच्चों के आंकड़ों से स्पष्ट है कि बचपन में कैंसर अब सिर्फ स्वास्थ्य ही नहीं, बल्कि विकास और नीतियों के लिए चुनौती बन चुका है, जहां समय पर पहचान और इलाज न मिलने के कारण बच्चों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ रहा है।
अध्ययन दर्शाता है कि बच्चों के बचने की संभावना सीधे तौर पर देश के विकास स्तर से जुड़ी है। देशों के बीच दिखने वाला यह फर्क मुख्य रूप से स्वास्थ्य व्यवस्था की असमानता को दर्शाता है। कमजोर और मध्यम आय वाले देशों में आमतौर पर कैंसर की पहचान बहुत देर से होती है।
इलाज के साधन सीमित हैं और इलाज की गुणवत्ता भी उतनी बेहतर नहीं होती। कई बार तो इलाज बीच में ही छोड़ दिया जाता है। इसके अलावा, कई देशों में भरोसेमंद कैंसर रजिस्ट्रियां नहीं हैं, जिससे समस्या की असली गंभीरता का आकलन करना मुश्किल हो जाता है।
यूनिवर्सिटी ऑफ बर्गेन और अध्ययन से जुड़ी प्रमुख शोधकर्ता डैग्रुन स्लेटेबो डाल्टवेट का प्रेस विज्ञप्ति में कहना है, “कैंसर से जीवित रहने की दर में भारी असमानता साफ दिखती है। यह अंतर बताता है कि अब तुरंत कदम उठाने की जरूरत है।”
समय पर जांच, सुलभ इलाज में छिपा समाधान
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने 2030 तक दुनिया भर में बच्चों के कैंसर से जीवित रहने की दर को कम से कम 60 फीसदी तक बढ़ाने का लक्ष्य रखा है। इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए जरूरी है कि देश आबादी-आधारित कैंसर रजिस्ट्रियों में निवेश करें, ताकि बीमारी का वास्तविक बोझ समझा जा सके और बच्चों में कैंसर नियंत्रण की प्रगति को सही ढंग से मापा जा सके।
अगर सही समय पर पहचान, बेहतर इलाज और मजबूत स्वास्थ्य ढांचा हो, तो हजारों बच्चों की जान बचाई जा सकती है। यह अध्ययन एक स्पष्ट संदेश देता है, बच्चों में होने वाला कैंसर लाइलाज नहीं, बल्कि इलाज में मौजूद असमानता जानलेवा है। अगर देशों में समय पर जांच, सुलभ और गुणवत्तापूर्ण इलाज तथा मजबूत स्वास्थ्य व्यवस्था सुनिश्चित की जाए, तो कैंसर से जूझते हजारों बच्चों को नया जीवन मिल सकता है।
सवाल अब ज्ञान या तकनीक का नहीं, बल्कि राजनीतिक इच्छाशक्ति और प्राथमिकता तय करने का है, ताकि किसी बच्चे की जान उसके देश की गरीबी की कीमत न चुकाए।