एआई से बचेगी 60 करोड़ लोगों की सेहत, फूड प्वाइजनिंग पर लगेगा ब्रेक

रिसर्च से पता चला है कि कैसे आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और हाइपरस्पेक्ट्रल इमेजिंग तकनीक की मदद से खाने में छिपे माइकोटॉक्सिन्स की तेजी से सटीक तरीके से पहचान की जा सकती है
फोटो: आईस्टॉक
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क्या आप जानते हैं कि हर साल दुनियाभर में करीब 60 करोड़ लोग फूड पॉइजनिंग यानी खाद्य विषाक्तता का शिकार बन रहे हैं। चिंता की बात है कि इनमें से 420,000 लोगों की मौत हो जाती है। यह आंकड़े खाद्य सुरक्षा पर गंभीर सवाल खड़े करते हैं।

लेकिन अब वैज्ञानिकों ने आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) और इमेजिंग तकनीकों की मदद से इसका समाधान ढूंढ़ लिया है, जो खाने में छिपे जहर को थाली तक पहुंचने से पहले ही खेतों, फैक्ट्रियों में पहचान सकता है।

अंतरराष्ट्रीय वैज्ञानिकों की एक टीम ने दिखाया है कि कैसे आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और हाइपरस्पेक्ट्रल इमेजिंग (एचएसआई) तकनीक की मदद से खाने में छिपे माइकोटॉक्सिन्स जैसे खतरनाक तत्वों की तेजी से सटीक तरीके से पहचान की जा सकती है।

यह अध्ययन यूनिवर्सिटी ऑफ साउथ ऑस्ट्रेलिया से जुड़े वैज्ञानिकों के नेतृत्व में किया गया है, जिसके नतीजे अंतराष्ट्रीय जर्नल टॉक्सिन्स में प्रकाशित हुए हैं।

क्या हैं माइकोटॉक्सिन्स, और क्यों हैं इतने खतरनाक?

माइकोटॉक्सिन्स एक तरह के जहरीले रसायन होते हैं जो कुछ खास किस्म की फफूंद से बनते हैं। ये फफूंद अनाज, सूखे फल, मेवे और मसालों जैसी चीजों पर उग सकती हैं। फफूंद तब पैदा होती है जब अनाज या खाना गर्म और नम जगह पर रखा होता है, चाहे वो फसल की कटाई से पहले हो या अनाज की स्टोरेज के दौरान।

चौंकाने वाली बात यह है कि ये जहरीले तत्व कई बार खाने को पकाने या प्रोसेस करने पर भी खत्म नहीं होते। यानी ये खाने के साथ ही हमारे शरीर में जा सकते हैं। इनकी वजह से कैंसर और हार्मोनल गड़बड़ियां हो सकती हैं। इतना ही नहीं यह हानिकारक तत्व इम्यून सिस्टम को भी गंभीर रूप से प्रभावित कर सकते हैं।

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संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) का अनुमान है कि दुनिया की करीब 25 फीसदी फसलें ऐसी फफूंद से संक्रमित होती हैं जो माइकोटॉक्सिन्स यानी जहरीले रसायन बनाती हैं। यह न केवल स्वास्थ्य के लिए खतरा है, बल्कि कृषि अर्थव्यवस्था के लिए भी एक बड़ी चुनौती है।

एआई और हाइपरस्पेक्ट्रल इमेजिंग: खाद्य सुरक्षा में क्रांति

अध्ययन से जुड़े प्रमुख शोधकर्ता अहसान कबीर का प्रेस विज्ञप्ति में कहना है, माइकोटॉक्सिन की जांच के पारंपरिक तरीके धीमे, महंगे और खाने को नष्ट करने वाले होते हैं, इसलिए ये बड़े स्तर पर तेजी से जांच करने के लिए सही नहीं हैं। वहीं हाइपरस्पेक्ट्रल इमेजिंग तकनीक खाद्य पदार्थों की बिना बर्बादी के, पूरे सैंपल की तेजी से स्कैनिंग कर सकती है।

वहीं दूसरी ओर, हाइपरस्पेक्ट्रल इमेजिंग एक ऐसी तकनीक है जो खाने की तस्वीर लेकर उसके अंदर की बारीक जानकारी एकत्र कर लेती है। इसे जब मशीन लर्निंग से जोड़ा जाता है तो यह रंगों और बनावट में अंतर को पकड़कर तुरंत बता सकती है कि कौन-सी फसल या मेवा दूषित है। इस दौरान खाद्य पदार्थों की गुणवत्ता भी बनी रहती है।

अनाज और मेवों की स्कैनिंग में सफलता

अपने इस अध्ययन में वैज्ञानिकों ने गेहूं, मक्का, जौ, मूंगफली, पिस्ता और बादाम जैसे खाद्य पदार्थों पर किए 80 से ज्यादा अंतरराष्ट्रीय शोधों की समीक्षा की है। इस विश्लेषण के नतीजे बताते हैं कि एआई से जुड़ी यह तकनीक माइकोटॉक्सिन्स की पहचान में पारंपरिक तरीकों से कहीं ज्यादा बेहतर है।

यहां तक कि यह सिस्टम एफ्लाटॉक्सिन बी1 को भी असानी से पहचान सकता है। गौरतलब है कि एफ्लाटॉक्सिन बी1 मक्का, अनाज, मेवों और मूंगफली में प्राकृतिक रूप से पाया जाने वाला टॉक्सिन है, जो फफूंद द्वारा बनता होता है।

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फैक्ट्रियों में रियल-टाइम स्कैनिंग संभव

शोधकर्ताओं के मुताबिक यह तकनीक कन्वेयर बेल्ट पर चलते हुए बादाम, गेहूं या मक्का को भी स्कैन कर सकती है, जिससे उत्पादन की गति भी बनी रहती है और स्वास्थ्य जोखिम भी कम होते हैं। इतना ही नहीं वैज्ञानिको को भरोसा है कि भविष्य में यह तकनीक हैंडहेल्ड डिवाइसेज के रूप में भी इस्तेमाल की जा सकती है, ताकि कहीं भी, कभी भी खाद्य पदार्थों की जांच संभव हो सके।

इस तकनीक का एक बड़ा फायदा यह है कि यह रियल टाइम में काम कर सकती है। टीम अब इस तकनीक को और बेहतर बनाने पर काम कर रही है, जिसमें डीप लर्निंग और एडवांस्ड एआई का इस्तेमाल किया जाएगा, ताकि दुनिया भर के उपभोक्ताओं तक सुरक्षित और शुद्ध भोजन ही पहुंचे।

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