
भारत सहित दुनिया के करोड़ों घरों में बच्चों पर हाथ उठाना आज भी बेहद आम है, लेकिन विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की ताजा रिपोर्ट बताती है कि ये शारीरिक दंड देने की प्रथा दरअसल एक वैश्विक संकट बन चुकी है। इससे कोई फायदा तो नहीं होता अलबत्ता बच्चों के शारीरिक और मानसिक विकास पर इसका गंभीर असर पड़ता है।
रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया में 18 साल से कम उम्र के आधे से अधिक यानी 120 करोड़ बच्चे हर साल किसी न किसी रूप में शारीरिक दंड का सामना करते हैं। मतलब की हर मिनट दुनिया के किसी न किसी कोने में औसतन 2,283 बच्चे इससे जूझ रहे होते हैं।
रिपोर्ट में 58 देशों के आंकड़ों से पता चला है कि हाल के एक महीने में शारीरिक दंड झेलने वाले 17 फीसदी बच्चों को इसके सबसे गंभीर रूपों से गुजरना पड़ा जिसमें सिर, चेहरे या कान पर मारना, या बार-बार जोर से मारना जैसी प्रताड़ना शामिल हैं।
देखा जाए तो शारीरिक दंड में अक्सर बच्चों को मारना-पीटना शामिल होता है, लेकिन इसमें ऐसी किसी भी प्रकार की सजा शामिल है जो माता-पिता, अभिभावक या शिक्षक, बच्चों को तकलीफ पहुंचाने के उद्देश्य से देते हैं।
रिपोर्ट के अनुसार शारीरिक दंड, घरों से लेकर स्कूलों जैसे सार्वजनिक स्थानों पर भी दिया जाता है। इससे बच्चों के न केवल शारीरिक स्वास्थ्य पर असर पड़ता है, साथ ही उनमें चिन्ता और अवसाद का खतरा भी बढ़ जाता है। इतना ही नहीं इसकी वजह से उनके बौद्धिक, सामाजिक व भावनात्मक विकास पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
डब्ल्यूएचओ के स्वास्थ्य निर्धारक विभाग के निदेशक एटियेन क्रूग का इस बारे में कहना है, "शारीरिक दंड का बच्चों के व्यवहार, विकास या सेहत पर कोई सकारात्मक असर नहीं होता। इससे न तो बच्चों को कोई फायदा होता है, और न ही माता-पिता या समाज को कोई लाभ होता है।" उन्होंने जोर दिया है कि अब वक्त आ गया है कि इस हानिकारक कुप्रथा को खत्म किया जाए ताकि बच्चे घर और स्कूल दोनों जगह सुरक्षित रह सकें।
दंड का असर सिर्फ शारीरिक नहीं
रिपोर्ट के मुताबिक इस मार का असर सिर्फ चोट तक सीमित नहीं हैं। यह बच्चों के मस्तिष्क की संरचना और कामकाज पर बुरा असर डालता है।
इस बारे में रिपोर्ट में 49 कमजोर और मध्यम आय वाले देशों पर किए एक अध्ययन का हवाला देते हुए बताया है कि जिन बच्चों को शारीरिक दंड दिया गया, उनके विकास की गति उनके साथियों की तुलना में औसतन 24 फीसदी कम पाई गई।
यह दंड न केवल शारीरिक चोटों की वजह बनता है, बल्कि बच्चों में तनाव से जुड़े हार्मोन को भी बढ़ा देता है, जिससे मस्तिष्क की संरचना और कार्यप्रणाली पर भी नकारात्मक असर पड़ सकता है। इससे उनमें डिप्रेशन, चिंता, आत्महत्या के विचार, और आत्मविश्वास की कमी जैसी समस्याएं देखी जाती हैं। इतना ही नहीं यह असर जीवनभर बना रहता है, और बड़े होने पर हिंसक व्यवहार, नशे की लत, और आपराधिक प्रवृत्ति का रूप ले सकता है।
रिपोर्ट बताती है कि ऐसे बच्चे बड़े होकर अपने ही बच्चों को भी मारने-पीटने की प्रवृत्ति अपनाते हैं। यही नहीं, उनके अपराधी और हिंसक व्यवहार अपनाने की आशंका भी अधिक होती है। स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक, शारीरिक दंड समाज में हिंसा को सामान्य और स्वीकार्य बना देता है, जिससे यह हानिकारक चक्र पीढ़ी दर पीढ़ी चलता रहता है।
किसे सबसे अधिक खतरा?
रिपोर्ट में इस बात पर भी प्रकाश डाला गया है कि शारीरिक दंड का सबसे ज्यादा खतरा उन बच्चों को होता है, जो किसी प्रकार की विकलांगता से पीड़ित हों या
जिनके माता-पिता स्वयं बचपन में शारीरिक दंड का शिकार रहे हों। इसके साथ ही जिन बच्चों के अभिभावक नशे, डिप्रेशन या अन्य मानसिक समस्याओं से जूझ रहे हों या जो गरीबी, भेदभाव और नस्लवाद जैसी सामाजिक चुनौतियों का सामना कर रहे हों, उन परिवारों में भी इस तरह की समस्या सबसे ज्यादा देखी गई है।
रिपोर्ट में क्षेत्रीय अंतर भी उजागर किया गया है। उदाहरण के लिए, यूरोप और मध्य एशिया में करीब 41 फीसदी बच्चे अपने घरों में शारीरिक दंड का सामना करते हैं, जबकि मध्य पूर्व और उत्तरी अफ्रीका में यह आंकड़ा बढ़कर 75 फीसदी तक पहुंच जाता है।
2 से 14 साल की उम्र के बच्चों पर माता-पिता द्वारा शारीरिक दंड दिए जाने की दर देशों में अलग-अलग है। उदाहरण के लिए जहां कजाखिस्तान में यह दर 30 फीसदी, यूक्रेन में 32 फीसदी, सर्बिया में 63 फीसदी, सिएरा लियोन में 64 फीसदी में और टोगो में 77 फीसदी रिकॉर्ड की गई।
स्कूलों की बात करें तो, पश्चिमी प्रशांत क्षेत्र में 25 फीसदी बच्चे शारीरिक दंड से प्रभावित हैं, वहीं चिंता की बात है कि अफ्रीका और मध्य अमेरिका में यह संख्या 70 फीसदी से अधिक है।
रिपोर्ट यह भी दर्शाती है कि लड़के और लड़कियां करीब-करीब समान रूप से शारीरिक दंड का शिकार होते हैं, हालांकि इसके कारण और रूप अलग-अलग हो सकते हैं। विकलांग बच्चे, आर्थिक रूप से कमजोर परिवारों से आने वाले बच्चे, और वे जो जातीय या सामाजिक भेदभाव का सामना करते हैं, इन सभी समूहों के बच्चों पर शारीरिक दंड का खतरा और अधिक होता है।
रिपोर्ट में इस बात पर भी प्रकाश डाला है कि इस समय दुनिया के 67 देशों में, घर और स्कूल दोनों जगह पर शारीरिक दंड देने पर पूर्ण प्रतिबन्ध है। हालांकि रिपोर्ट का मानना है कि इसके लिए केवल कानून बनाना ही पर्याप्त नहीं है। डब्ल्यूएचओ का कहना है इसके लिए जरूरी है कि जागरूकता अभियान चलाकर अभिभावकों और समाज को बताया जाए कि यह कितना हानिकारक है। इसकी जगह अनुशासन के तौर-तरीके अपनाने की जरूरत है।
देखा जाए तो बच्चों पर शारीरिक दंड केवल एक व्यक्तिगत समस्या नहीं, बल्कि एक सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट है। इसे खत्म करना न केवल बच्चों के लिए, बल्कि पूरे समाज के लिए एक जरूरी कदम है।