अवसाद, बेचैनी जैसी मानसिक समस्याओं से जूझ रहा दुनिया का हर सातवां बच्चा

आज बच्चों और किशोरों में अवसाद, बेचैनी और व्यवहार से जुड़ी समस्याएं तेजी से घर कर रही हैं, जो आने वाले वक्त में बड़ी चुनौती बन सकती है
भारत में भी बच्चों और किशोरों में बढ़ती बैचेनी, डिप्रेशन और मानसिक तनाव जैसी समस्याएं पैदा हो रही हैं। फोटो: आईस्टॉक
भारत में भी बच्चों और किशोरों में बढ़ती बैचेनी, डिप्रेशन और मानसिक तनाव जैसी समस्याएं पैदा हो रही हैं। फोटो: आईस्टॉक
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आज दौड़ती-भागती दुनिया में मानसिक समस्याएं बड़ी तेजी से लोगों को अपना शिकार बना रही हैं, किशोरों में यह समस्या कहीं ज्यादा जटिल है। हैरानी की बात है कि बच्चों और किशोरों में भी बैचेनी, डिप्रेशन और मानसिक तनाव जैसी समस्याएं गंभीर रूप ले रही हैं।

इस बारे में विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) और संयुक्त राष्ट्र बाल कोष (यूनिसेफ) ने अपनी नई रिपोर्ट में खुलासा किया है कि दुनिया में दस से 19 वर्ष का हर सातवां बच्चा मानसिक समस्याओं से जूझ रहा है। इन समस्याओं में अवसाद, बेचैनी और व्यवहार से जुड़ी समस्याएं शामिल हैं।

ऐसे में बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य को बेहतर बनाने के लिए रिपोर्ट में समुदाय को ध्यान में रखते हुए मॉडल तैयार करने की वकालत की है।

एक अनुमान के मुताबिक मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी करीब एक तिहाई समस्याएं 14 साल की उम्र से पहले शुरू होती हैं, जबकि आधी 18 वर्ष से पहले सामने आने लगती हैं। मतलब साफ है मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याओं के लक्षण काफी हद तक किशोरावस्था में दिखने लगते हैं। "मेन्टल हेल्थ ऑफ चिल्ड्रन एंड यंग पीपल" नामक यह रिपोर्ट विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस से ठीक पहले जारी की गई है। इसका लक्ष्य बच्चों के लिए मौजूदा मानसिक सेवाओं में सुधार करना है।

रिपोर्ट इस बात पर भी प्रकाश डालती है कि समय रहते कार्रवाई करना बेहद महत्वपूर्ण है ताकि बच्चे और युवा अपनी क्षमताओं को पूरी तरह निखारने में सक्षम हो सकें। हालांकि देखा जाए तो मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी चुनौतियों से निपटने के लिए तत्काल सहायता की आवश्यकता है, लेकिन इसके बावजूद एक बड़ी आबादी अभी भी इन सेवाओं की पहुंच से दूर है।

आज भी मानसिक समस्याओं से जूझ रहे अधिकांश युवाओं को पर्याप्त सहायता नहीं मिल पा रही, क्योंकि उनकी स्वास्थ्य देखभाल से जुड़ी सेवाओं तक पहुंच सीमित है। इसके पीछे सीमित उपलब्धता, महंगी सेवाएं और मदद मांगने में आलोचना का लगा रहने वाला डर जैसे कारक जिम्मेवार हैं।

इतना ही नहीं मानसिक स्वास्थ्य संबंधी सेवाओं के लिए सार्वजनिक वित्तपोषण और कर्मचारियों की कमी भी एक बड़ी समस्या है। उसपर भी बच्चों और किशोरों के लिए इस तरह की सहायता की विशेष रूप से कमी है। खासकर निम्न और मध्यम आय वाले देशों में स्थिति कहीं ज्यादा बदतर है।

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भारतीय बच्चों में भी तेजी से बढ़ रही है डिप्रेशन, बेचैनी जैसी मानसिक समस्याएं

भारतीय बच्चों और किशोरों में भी बढ़ता डिप्रेशन एक बड़ी समस्या बनता जा रहा है। चंडीगढ़ स्थित पोस्ट ग्रेजुएट इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल एजुकेशन एंड रिसर्च (पीजीआईएमईआर) और स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ द्वारा किए एक अध्ययन से पता चला है कि स्कूल जाने वाले 13 से 18 वर्ष के अधिकांश किशोर अवसाद (डिप्रेशन) का शिकार बन रहे हैं।

चंडीगढ़ में सरकारी और निजी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों पर किए इस अध्ययन में सामने आया है कि 40 फीसदी किशोर किसी न किसी रूप में अवसाद का शिकार हैं। इनमें से 7.6 फीसदी गहरे डिप्रेशन में हैं।

वहीं 32.5 फीसदी किशोरों में अवसाद संबंधी अन्य विकार देखे गए। करीब 30 फीसदी किशोर अवसाद के न्यूनतम स्तर और 15.5 फीसदी इससे मध्यम रूप से प्रभावित हैं। वहीं करीब चार फीसदी किशोरों में अवसाद का स्तर गंभीर स्थिति में पहुंच चुका है, जबकि एक फीसदी किशोर इसके बेहद गंभीर स्तर से प्रभावित हैं।

नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरो साइंस द्वारा 2016 में भारत के 12 राज्यों पर किए एक सर्वेक्षण से पता चला है कि देश में करीब 2.7 फीसदी लोग डिप्रेशन जैसे कॉमन मेंटल डिस्ऑर्डर से पीड़ित है। वहीं करीब 5.2 फीसदी आबादी जीवन के किसी न किसी मोड़ पर इस समस्या का शिकार हुई है। सर्वेक्षण में यह भी सामने आया है कि देश के 15 करोड़ लोगों को किसी न किसी मानसिक समस्या की वजह से तत्काल डॉक्टरी मदद की जरूरत है।

हालांकि लैंसेट की एक रिपोर्ट के मुताबिक देश में दस जरूरतमंद लोगों में से सिर्फ एक को ही डॉक्टरी मदद मिल रही है। आंकड़े भी इस बात की गवाही देते हैं कि भारत में मानसिक समस्याओं से ग्रस्त लोगों की संख्या बड़ी तेजी से बढ़ रही है। ऐसे में आशंका है कि आने वाले दशक में दुनिया भर में मानसिक समस्याओं से जूझ रहे एक तिहाई लोग भारतीय हो सकते हैं।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक दुनिया का हर आठवां इंसान यानी 97 करोड़ लोग मानसिक विकारों से पीड़ित हैं। उनमें चिंता और अवसाद सबसे आम है। 2020 में कोरोना महामारी के चलते चिंता और अवसाद पीड़ितों की इस संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है।

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दिल्ली में भी एम्स के सेंटर फॉर कम्युनिटी मेडिसिन और मनोरोग विभाग की ओर से किए एक अन्य अध्ययन से पता चला है कि दिल्ली में रहने वाले करीब एक तिहाई किशोर (15 से 19 वर्ष) अपने जीवनकाल में कभी न कभी डिप्रेशन या टेंशन से जूझ रहे थे।

ब की पहुंच में हों स्वास्थ्य सुविधाएं

विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) में मानसिक स्वास्थ्य विभाग की निदेशक डेवोरा केस्टेल का कहना है कि, "हमें यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है कि हर उम्र के लोगों के लिए उपयुक्त मानसिक स्वास्थ्य सहायता सस्ती दर पर उपलब्ध हो।" उन्होंने प्रेस विज्ञप्ति के हवाले से कहा है कि, "हर देश, चाहे वहां हालात जैसे भी हों वो अपने बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य को बेहतर बनाने के लिए ठोस कदम उठा सकता है।"

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रिपोर्ट इस बात पर भी जोर देती है कि बच्चों और किशोरों के मानसिक स्वास्थ्य को समर्थन देने के लिए सब को मिलकर प्रयास करने होंगे। इसका कोई एक आदर्श तरीका तो नहीं है, लेकिन दुनिया के कई देशों में ऐसे उदाहरण सामने आए हैं, जिनमें से कारगर उपायों को अपनाया जा सकता है।

रिपोर्ट में इस बात की ओर भी ध्यान आकर्षित किया गया है कि मानसिक समस्याओं से जूझ रहे लाखों बच्चों को संस्थानों में अलग रखा जाता है, भले ही उनके परिवार हैं। संयुक्त राष्ट्र विशेषज्ञों का मानना है कि तौर-तरीके मानव अधिकारों का उल्लंघन करते हैं। साथ ही इनसे स्वास्थ्य और और सामाजिक क्षेत्र में खराब परिणाम सामने आते हैं।

ऐसे में रिपोर्ट के मुताबिक संस्थागत देखभाल के इस मॉडल को चरणबद्ध तरीके से खत्म करने की आवश्यकता है। साथ ही समुदाय-आधारित सेवाओं का समर्थन बेहद जरूरी है। इस तरह, बच्चे अपने परिवारों के साथ रह सकते हैं, वो अपनी शिक्षा जारी रख सकते हैं, दोस्त बना सकते हैं। यह उनके सामाजिक सम्बन्धों को बेहतर बनाएगा, साथ ही इससे उनके समग्र विकास में भी मदद मिलेगी।

यूनिसेफ में स्वास्थ्य विभाग की एसोसिएट डायरेक्टर फौजिया शफीक ने प्रेस विज्ञप्ति के हवाले से कहा है कि हम अकेले बच्चों, किशोरों और उनके परिवारों के मानसिक स्वास्थ्य और कल्याण को संबोधित नहीं कर सकते। ऐसे में हमें युवाओं के लिए मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं का एक मजबूत नेटवर्क बनाने की आवश्यकता है, जिसके लिए स्वास्थ्य, शिक्षा, सामाजिक सुरक्षा और सामुदायिक आधारित व्यवस्था को जोड़ने की आवश्यकता है।"

उनके मुताबिक यह हम सबका कर्तव्य है कि हम उनके मानसिक स्वास्थ्य को उनके चहुमुखी विकास के हिस्से के रूप में प्राथमिकता दें।

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