
गाजा में जारी संघर्ष ने पर्यावरण को भारी नुकसान पहुंचाया है।
97 फीसदी पेड़ नष्ट हो चुके हैं और 6.1 करोड़ टन मलबा जमा हो गया है।
पानी की आपूर्ति गंभीर रूप से प्रभावित हुई है, जिससे संक्रामक बीमारियां तेजी से फैल रही हैं। यूएनईपी की रिपोर्ट के अनुसार, इस नुकसान की भरपाई में दशकों लग सकते हैं।
वहां दस्त के गंभीर मामले 36 गुणा तक बढ़ गए हैं। इसी तरह हेपेटाइटिस-ए से जुड़े पीलिया सिंड्रोम के मामलों में 384 गुणा वृद्धि हुई है।
गाजा में पांच लाख से अधिक लोग अकाल जैसी स्थिति का सामना कर रहे हैं और करीब 10 लाख लोग गंभीर खाद्य संकट से जूझ रहे हैं।
गाजा की करीब ढाई लाख इमारतों में से 78 फीसदी क्षतिग्रस्त या पूरी तरह ढह गई हैं। इसकी वजह से करीब 6.1 करोड़ टन मलबा जमा हो गया है, जो आकार में मिस्र के 15 ग्रेट पिरामिड या 25 एफिल टावर जितना है।
युद्ध किसी के लिए फायदेमंद नहीं होते, इसमें कभी किसी की जीत नहीं होती, क्योंकि यह अपने पीछे तबाही के ऐसे निशान छोड़ जाते हैं, जिनको भरने में दशकों लग जाते हैं। ऐसा ही कुछ गाजा में देखने को मिला, जहां मानवीय त्रासदी के साथ पर्यावरण को भी ऐसी घाव मिले, जिन्हें भरने में सदियां नहीं तो दशकों जरूर लग जाएंगे।
गाजा में हुई इस पर्यावरणीय त्रासदी की पुष्टि संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) की नई रिपोर्ट ने भी की है। इस रिपोर्ट के मुताबिक गाजा पट्टी में दो वर्षों से जारी संघर्ष ने पर्यावरण को अभूतपूर्व नुकसान पहुंचाया है। इसमें मिट्टी, साफ पानी की आपूर्ति और समुद्र तट पर पड़ा गंभीर प्रभाव शामिल है। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि इस नुकसान से उबरने को गाजा को दशकों का समय लगेगा।
रिपोर्ट के अनुसार गाजा में साफ पानी की आपूर्ति गंभीर रूप से प्रभावित हुई है। वहां पानी सीमित बचा है और जो है वो भी प्रदूषित है। पाइपलाइन और सीवेज प्रणाली ध्वस्त हो चुकी है, जिसकी वजह से शौच के लिए गड्ढों का इस्तेमाल किया जा रहा है। इसके कारण भूजल की गुणवत्ता पर गहरा असर पड़ा है।
गौरतलब है कि गाजा की अधिकतर आबादी पानी के लिए भूजल पर ही निर्भर है। समुद्र और तटीय क्षेत्र के भी प्रदूषित होने की आशंका है, हालांकि वहां जांच अभी संभव नहीं है।
दिल दहला देने वाले हैं आंकड़े
इस जल संकट की वजह से वहां संक्रामक बीमारियां भी तेजी से पैर पसार रही हैं। स्थिति इस कदर खराब है कि वहां दस्त के गंभीर मामले 36 गुणा तक बढ़ गए हैं। इसी तरह हेपेटाइटिस-ए से जुड़े पीलिया सिंड्रोम के मामलों में 384 गुणा वृद्धि हुई है। पेड़-पौधे, हरियाली करीब-करीब खत्म हो गई है।
आंकड़ों के मुताबिक 2023 से अब तक वहां 97 फीसदी पेड़, 95 फीसदी झाड़ियां और 82 फीसदी मौसमी फसलें नष्ट हो चुकी हैं। ऐसे में बड़े पैमाने पर खाद्य उत्पादन अब असंभव हो गया है। इस बीच गाजा में पांच लाख से अधिक लोग अकाल जैसी स्थिति का सामना कर रहे हैं और करीब 10 लाख लोग गंभीर खाद्य संकट से जूझ रहे हैं।
गाजा की करीब ढाई लाख इमारतों में से 78 फीसदी क्षतिग्रस्त या पूरी तरह ढह गई हैं। इसकी वजह से करीब 6.1 करोड़ टन मलबा जमा हो गया है, जो आकार में मिस्र के 15 ग्रेट पिरामिड या 25 एफिल टावर जितना है।
इसमें से करीब 15 फीसदी मलबे में एस्बेस्टस, औद्योगिक कचरा और भारी धातुओं (हैवी मेटल्स) जैसी खतरनाक चीजों के होने का खतरा है।
संघर्ष से गाजा में मिट्टी की प्राकृतिक संरचना पर भी असर पड़ा है। इससे पानी के अवशोषण की क्षमता घट गई है, बाढ़ का खतरा बढ़ गया है और भूजल का पुनर्भरण कम हुआ है।
पहले से बिगड़ चुके हैं हालात
रिपोर्ट में यह भी जानकारी दी गई है कि जून 2024 में किए पिछले आकलन की तुलना में अब हालात काफी बिगड़ चुके हैं। उदाहरण के लिए, अब मलबे की मात्रा 57 फीसदी बढ़ गई है और यह 2008 के बाद गाजा में हुए सभी संघर्षों से पैदा हुए मलबे की तुलना में 20 गुणा अधिक है।
संयुक्त राष्ट्र ने अपनी रिपोर्ट में गाजा के पर्यावरणीय नुकसान की भरपाई के लिए 30 सिफारिशें भी दी हैं। इनमें पानी और सीवेज ढांचे का तेजी से पुनर्निर्माण, मिट्टी की व्यवस्थित जांच, मलबे को हटाना व जहां संभव हो उसका पुनर्चक्रण, और हथियारों के अवशेषों का सुरक्षित निपटान करना शामिल है।
आकलन के अनुसार, गाजा का पर्यावरण तभी सुधर सकता है जब सावधानीपूर्वक, समावेशी और वैज्ञानिक योजना पर काम किया जाए।
यूएनईपी की कार्यकारी निदेशक इंगर एंडरसन का प्रेस विज्ञप्ति में कहना है, स्थिति दिन-ब-दिन बिगड़ रही है। अगर यह जारी रहा तो यह आने वाली पीढ़ियों के स्वास्थ्य और जीवन पर गहरा असर छोड़ेगा।“
उनका आगे कहना है “गाजा में फैले मानवीय संकट को खत्म करना सबसे पहली प्राथमिकता है। जीवन बचाने के लिए साफ पानी की व्यवस्था बहाल करना और मलबा को हटाकर मानवीय राहत पहुंचाना और जरूरी सेवाएं चालू करना बेहद जरूरी है। साथ ही, मिट्टी, जलस्रोतों और हरियाली को पुनर्जीवित करना गाजा के लोगों की खाद्य और जल सुरक्षा तथा उनके बेहतर भविष्य के लिए अहम होगा।“