रंग बदल रहे महासागर, ध्रुवों पर बढ़ी हरियाली, भूमध्य रेखा के पास और नीला हुआ समुद्र, वैज्ञानिकों ने बताई वजह

वैज्ञानिकों ने आशंका जताई है कि फाइटोप्लैंकटन की बदलती मात्रा से समुद्री खाद्य श्रृंखला और वैश्विक जलवायु पर गहरा असर पड़ सकता है
आइसलैंड के समुद्र में फाइटोप्लैंकटन के बढ़ने की उपग्रह से ली तस्वीर; फोटो: आईस्टॉक
आइसलैंड के समुद्र में फाइटोप्लैंकटन के बढ़ने की उपग्रह से ली तस्वीर; फोटो: आईस्टॉक
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एक नई चौंकाने वाले स्टडी से पता चला है कि दुनिया में महासागर अब धीरे-धीरे अपना रंग बदल रहे हैं। ध्रुवीय क्षेत्रों में समुद्र का पानी और अधिक हरा हो रहा है, जबकि भूमध्य रेखा के आसपास के क्षेत्र और नीले होते जा रहे हैं।

यह अध्ययन ड्यूक विश्वविद्यालय, यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया, जॉर्जिया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी, अटलांटा के स्कूल ऑफ अर्थ एंड एटमॉस्फेरिक साइंसेज से जुड़े वैज्ञानिकों द्वारा किया गया है। इसके नतीजे अंतराष्ट्रीय जर्नल साइंस में प्रकाशित हुए हैं। अपने इस अध्ययन में वैज्ञानिकों ने उपग्रहों से प्राप्त आंकड़ों की मदद ली है।

वैज्ञानिकों के मुताबिक यह बदलाव समुद्री जीवन की नींव माने जाने वाले फाइटोप्लैंकटन नामक सूक्ष्म जीवों में हो रहे बदलावों को दर्शाता है। ये जीव प्रकाश संश्लेषण के जरिए समुद्री खाद्य श्रृंखला की शुरुआत करते हैं और अपने शरीर में क्लोरोफिल नामक हरे पिग्मेंट को बनाते हैं।

वैज्ञानिकों ने आशंका जताई है कि यदि यह रुझान जारी रहता है, तो इससे समुद्री खाद्य श्रृंखला, वैश्विक मत्स्य उद्योग और यहां तक कि कार्बन डाइऑक्साइड के वैश्विक भंडारण पर भी गहरा असर पड़ सकता है।

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आइसलैंड के समुद्र में फाइटोप्लैंकटन के बढ़ने की उपग्रह से ली तस्वीर; फोटो: आईस्टॉक

क्यों बदल रहा समुद्र का रंग?

अपने इस अध्ययन में वैज्ञानिकों ने 2003 से 2022 के नासा के उपग्रहों से प्राप्त आंकड़ों का विश्लेषण किया है। अध्ययन के दौरान शोधकर्ता में क्लोरोफिल की मात्रा में आते बदलावो की जांच की है, जो फाइटोप्लैंकटन की मौजूदगी का संकेत देता है। सटीकता बनाए रखने के लिए उन्होंने सिर्फ खुले समुद्र के आंकड़ों पर ध्यान दिया और तटीय क्षेत्रों को शामिल नहीं किया है।

इस विश्लेषण से पता चला है कि उष्ण और उपोष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में क्लोरोफिल की मात्रा घट रही है। वहीं दूसरी ओर ध्रुवों की ओर क्लोरोफिल में इजाफा हो रहा है। इस आधार पर, शोधकर्ताओं ने अलग-अलग अक्षांशों पर क्लोरोफिल की मात्रा में हो रहे बदलावों का विश्लेषण किया।

अपने अध्ययन में शोधकर्ताओं ने आर्थिक विश्लेषण की तकनीकों जैसे 'लोरेन्ज कर्व' और 'गिनी इंडेक्स' का भी इस्तेमाल किया है। इससे पता चला है कि जहां पहले से ज्यादा क्लोरोफिल था, वहां और बढ़ रहा है, और जहां कम था, वहां और घट रहा है। यह कुछ ऐसा ही है जैसे अमीर और ज्यादा अमीर हो रहे हैं, जबकि गरीब और गरीब।

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क्या होगा असर?

इसके बाद, शोधकर्ताओं ने इस बात जांच की कि ये बदलाव किन कारणों से हो रहे हैं? अध्ययन से पता चला कि यह बदलाव समुद्र की सतह के तापमान हो हो रही वृद्धि से जुड़ा है। वहीं अन्य कारणों जैसे हवा की गति, प्रकाश की उपलब्धता या सतही परत की गहराई से इसका कोई बड़ा संबंध अध्ययन में नहीं देखा गया।

वैज्ञानिकों के मुताबिक अगर फाइटोप्लैंकटन की ध्रुवों की ओर बढ़ती संख्या जारी रही, तो इससे वैश्विक कार्बन चक्र प्रभावित हो सकता है। फाइटोप्लैंकटन प्रकाश संश्लेषण के दौरान हवा से कार्बन डाइऑक्साइड को सोखते हैं। जब वे मरकर समुद्र की गहराई में जाते हैं, तो यह कार्बन भी वहीं जमा हो जाता है।

अगर यह प्रक्रिया गहराई या ठंडी जगहों पर होती है, तो कार्बन लंबे समय तक सुरक्षित रहता है और जलवायु परिवर्तन को प्रभावित कर सकता है।

वहीं दूसरी तरफ अगर भूमध्य रेखा के आसपास फाइटोप्लैंकटन की लगातार कमी होती रही, तो इससे उन क्षेत्रों की मछलियों और समुद्री जीवन पर असर पड़ सकता है, जिन पर कई विकासशील देश—खासकर प्रशांत द्वीप समूह—अपनी आर्थिक प्रगति और खाद्य सुरक्षा के लिए निर्भर हैं।

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हालांकि साथ ही शोधकर्ताओं ने भी स्पष्ट किया है कि अध्ययन के नतीजों को सीधे तौर पर जलवायु परिवर्तन से जोड़ना जल्दीबाजी होगी, क्योंकि यह अध्ययन सिर्फ दो दशकों के आंकड़ों पर आधारित है। मौसम से जुड़ी अस्थाई घटनाएं, जैसे अल नीनो भी इन बदलावों की वजह हो सकती हैं।

लेकिन इतना स्पष्ट है कि यदि यह बदलाव लंबे समय तक जारी रहे, तो इसके वैश्विक पारिस्थितिकी और जलवायु पर गहरे प्रभाव देखने को मिल सकते हैं।

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