
वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि अंटार्कटिका में लगातार बढ़ रही पर्यटन और रिसर्च गतिविधियां इस बर्फीले महाद्वीप को तेजी से प्रदूषित कर रही हैं। यह खतरा ऐसे समय में सामने आया है जब मानव प्रेरित जलवायु परिवर्तन पहले ही अंटार्कटिका के अस्तित्व के लिए संकट पैदा कर रहा है।
इस बारे में किए एक नए अंतरराष्ट्रीय अध्ययन से पता चला है कि अंटार्कटिका में जहां-जहां इंसानी गतिविधियां बढ़ी हैं, वहां भारी धातुओं वाले सूक्ष्म कणों की मात्रा पिछले चार दशकों में 10 गुणा तक बढ़ गई है।
इंटरनेशनल एसोसिएशन ऑफ अंटार्कटिका टूर ऑपरेटर्स द्वारा जारी आंकड़ों के मुताबिक पिछले दो दशकों में अंटार्कटिका आने वाले पर्यटकों की संख्या 20,000 से बढ़कर 1.2 लाख तक पहुंच गई है।
समस्या यह है कि इन पर्यटकों को लाने वाले जहाज अक्सर जीवाश्म ईंधन यानी फॉसिल फ्यूल से चलते हैं, जिससे हवा में भारी मात्रा में जहरीले कण जैसे निकेल, कॉपर, जिंक और सीसा भी मुक्त होते हैं। अध्ययन के मुताबिक इन प्रदूषकों की वजह से भी यहां बर्फ तेजी से पिघल रही है।
नीदरलैंड्स की यूनिवर्सिटी ऑफ ग्रोनिंगन के वैज्ञानिक और अध्ययन से जुड़े शोधकर्ता राउल कोर्डेरो के मुताबिक, एक अकेला पर्यटक भी करीब 100 टन बर्फ के पिघलने की वजह बन सकता है।
गौरतलब है कि अपने इस अध्ययन के दौरान वैज्ञानिकों ने दक्षिण शेटलैंड द्वीप से एल्सवर्थ पर्वत तक फैले 2,000 किलोमीटर लंबे क्षेत्र से सतह पर जमा बर्फ के नमूने एकत्र किए हैं। इन नमूनों के विश्लेषण से उन्हें अंटार्कटिका में हवा के जरिए जमा होने वाले रासायनिक तत्वों का मैप तैयार करने में मदद मिली है।
पर्यावरण के लिए खतरा है अंटार्कटिका में बढ़ती इंसानी हलचल
अध्ययन में पाया गया कि बर्फ में मौजूद कणों के स्रोत अलग-अलग हैं जैसे मिट्टी, समुद्री प्रभाव और जैविक गतिविधियां लेकिन इनमें इंसानी गतिविधियों का असर भी साफ देखा गया। उत्तर अंटार्कटिक प्रायद्वीप की बर्फ में भारी धातुएं मिलीं हैं, जो आमतौर पर ईंधन जलाने और औद्योगिक प्रदूषण से जुड़ी होती हैं। यह वह इलाका है जहां रिसर्च स्टेशन और समुद्री पर्यटन सबसे ज्यादा केंद्रित हैं।
वैज्ञानिकों ने पाया है कि वहां सिर्फ पर्यटक ही नहीं, बल्कि लंबे समय तक चलने वाले वैज्ञानिक अभियान भी प्रदूषण फैला रहे हैं। अध्ययन में अनुमान जताया गया है कि एक रिसर्च प्रोजेक्ट का प्रभाव किसी एक पर्यटक से 10 गुणा ज्यादा हो सकता है।
कोर्डेरो ने प्रेस विज्ञप्ति में जानकारी देते हुए कहा, "निष्कर्ष दिखाते हैं कि अंटार्कटिका में ऊर्जा खपत से जुड़ी स्थानीय गतिविधियां पहले ही पर्यावरण पर असर छोड़ रही हैं।" उन्होंने जोर देते हुए कहा, “इससे साफ है कि अब पर्यावरण की बेहतर निगरानी के साथ-साथ इंसानी गतिविधियों का सतत प्रबंधन भी जरूरी हो गया है।“
इससे पहले वैज्ञानिकों को अंटार्कटिका की बर्फ में माइक्रोप्लास्टिक्स की मौजूदगी के सबूत मिल चुके हैं। जर्नल साइंस ऑफ द टोटल एनवायरनमेंट में प्रकाशित एक अन्य अध्ययन में वैज्ञानिकों को प्रति लीटर बर्फ में माइक्रोप्लास्टिक के 73 से 3,099 कण मिले हैं। इनका वहां इतनी बड़ी तादाद में पाया जाना वाकई हैरान कर देने वाला है।
अध्ययन में इस बात पर भी प्रकाश डाला गया है कि वहां कुछ सकारात्मक कदम भी उठाए गए हैं जैसे भारी मात्रा में प्रदूषण फैलाने वाले ईंधन पर रोक और इलेक्ट्रिक-हाइब्रिड जहाजों के इस्तेमाल को बढ़ावा देना। फिर भी, वैज्ञानिकों का कहना है कि अंटार्कटिका की रक्षा के लिए और ठोस कदम उठाने की जरूरत है। इसमें जीवाश्म ईंधन के उपयोग को सीमित करने के साथ-साथ अक्षय ऊर्जा को तेजी से बढ़ावा देना शामिल है।
20 अगस्त को प्रकाशित एक अन्य अध्ययन ने भी चेताया है कि यदि अंटार्कटिका में जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाले बदलाव पर लगाम न लगाई गई तो उसके चलते समुद्र का स्तर कई मीटर तक बढ़ सकता है, जिसका खामियाजा आने वाली पीढ़ियों को भुगतना पड़ेगा।
एक अन्य रिसर्च से पता चला है कि अंटार्कटिक क्षेत्र, वैश्विक औसत से कहीं ज्यादा तेजी से गर्म हो रहा है। इतना ही नहीं यहां भीषण गर्मी की घटनाएं बेहद आम होती जा रही हैं। इसके चलते अंटार्कटिक में हरियाली भी नाटकीय रूप से बढ़ रही है, जिसमें पिछले चार दशकों के दौरान दस गुणा से ज्यादा की वृद्धि हुई है।