बढ़ती गर्मी से 240 करोड़ मजदूरों पर पड़ रहा असर, दो करोड़ से ज्यादा काम के दौरान हो रहे चोटिल: रिपोर्ट

रिपोर्ट में इस तथ्य पर भी प्रकाश डाला है कि 20 डिग्री सेल्सियस के बाद तापमान में हर एक डिग्री सेल्सियस की वृद्धि के साथ श्रमिकों की उत्पादकता 2 से 3 फीसदी तक घट जाती है
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दुनिया भर में हर साल 2.28 करोड़ से ज्यादा मजदूर इसलिए चोटिल हो रहे हैं क्योंकि वे चिलचिलाती धूप और झुलसाने वाली गर्मी में काम करने को मजबूर हैं। यह महज आंकड़ा नहीं, बल्कि उन 240 करोड़ से ज्यादा श्रमिकों के लिए एक ऐसी कड़वी सच्चाई है जो रोजाना अपनी जान जोखिम में डाल खेतों, निर्माण क्षेत्रों, फैक्ट्रियों और सड़कों पर काम कर रहे हैं।

कई बार तो इन मेहनतकश लोगों को ऐसे माहौल में काम करना पड़ता है जब पारा 40 डिग्री सेल्सियस को भी पार कर जाता है। ऐसे में बीमारियों या चोट के शिकार भी हो जाते हैं।

जलवायु परिवर्तन के कारण बढ़ती गर्मी और बार-बार पड़ने वाली लू अब केवल पर्यावरण से जुड़ा संकट नहीं रह गई, बल्कि यह मजदूरों, किसानों की सेहत, सुरक्षा और आजीविका के लिए भी गंभीर चुनौती बनती जा रही है। कृषि, निर्माण, मत्स्य पालन जैसे क्षेत्रों में काम करने वाले करोड़ों मजदूर पहले ही गर्मी के खतरनाक स्तर का सामना कर रहे हैं। ऐसे में बढ़ता तापमान उनके लिए नित नई चुनौतियां पैदा कर रहा है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) और विश्व मौसम विज्ञान संगठन (डब्ल्यूएमओ) ने अपनी नई रिपोर्ट "क्लाइमेट चेंज एंड वर्कप्लेस हीट स्ट्रेस: टेक्निकल रिपोर्ट एंड गाइडेंस" में चेताया है कि अगर अब भी ठोस कदम न उठाए गए, तो भविष्य में हालात और बिगड़ सकते हैं।

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उत्पादकता में भी आ रही गिरावट

विश्व मौसम विज्ञान संगठन के मुताबिक, 2024 अब तक का सबसे गर्म साल था। इस दौरान दिन का तापमान 40 डिग्री सेल्सियस से ऊपर पहुंचना बेहद आम था। वहीं कई जगहों पर तो पारा 50 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच गया। यह साफ संकेत है कि श्रमिकों पर बढ़ते गर्मी के प्रभाव से निपटने के लिए तुरंत कार्रवाई की जरूरत है।

रिपोर्ट में इस बात पर भी प्रकाश डाला है कि 20 डिग्री सेल्सियस के बाद तापमान में हर एक डिग्री सेल्सियस की वृद्धि के साथ श्रमिकों की उत्पादकता 2 से 3 फीसदी तक घट जाती है।

इतना ही नहीं गर्मी से हीटस्ट्रोक, डिहाइड्रेशन, किडनी खराब होना, और न्यूरोलॉजिकल समस्याओं का खतरा भी काफी बढ़ जाता है।

रुझानों के मुताबिक दुनिया की करीब आधी आबादी बढ़ते तापमान और उसके दुष्प्रभावों से प्रभावित है।

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डब्ल्यूएमओ की डिप्टी सेक्रेटरी जनरल को बैरेट का कहना है, "काम के दौरान गर्मी से होने वाला तनाव अब केवल भूमध्य रेखा के आसपास के देशों तक सीमित नहीं रहा, बल्कि यह एक वैश्विक चुनौती बन चुका है। हाल ही में यूरोप में आई लू इसका साफ संकेत है।" उन्होंने जोर देते हुए कहा कि "श्रमिकों को भीषण गर्मी से बचाना सिर्फ स्वास्थ्य से जुड़ा मामला नहीं, बल्कि अब एक आर्थिक जरूरत भी है।"

देखा जाए तो यह समस्या भारत सहित एशिया के अन्य देशों में भी बेहद गंभीर है। विश्व मौसम विज्ञान संगठन (डब्ल्यूएमओ) द्वारा जारी एक अन्य रिपोर्ट के मुताबिक एशिया वैश्विक औसत के मुकाबले करीब दो गुना तेजी से गर्म हो रहा है। इसका असर सिर्फ मौसम पर ही नहीं, बल्कि अर्थव्यवस्था, पारिस्थितिकी और समाज पर भी गंभीर रूप से पड़ रहा है।

"स्टेट ऑफ द क्लाइमेट इन एशिया 2024" नामक इस रिपोर्ट के मुताबिक 2024 एशिया के इतिहास का सबसे गर्म वर्ष रहा जब औसत तापमान 1991 से 2020 के औसत से करीब 1.04 डिग्री सेल्सियस अधिक था। भारतीय मौसम विज्ञान विभाग (आईएमडी) ने भी पुष्टि की है कि साल 2024 भारत के लिए भी अब तक का सबसे गर्म साल साबित हुआ है।

भारत में मजदूरों पर बढ़ती तापमान के प्रभावों को समझने के लिए डाउन टू अर्थ द्वारा की गई पड़ताल से पता चला है कि देश में मजदूर उबलते मौसम में भी काम करने को मजबूर हैं।

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अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) ने अपनी 2019 की रिपोर्ट में अनुमान लगाया है कि ग्लोबल वार्मिंग के कारण भारत में 2030 में 5.8 फीसदी कामकाजी घंटों का नुकसान हो सकता है, जो उत्पादकता के हिसाब से 3.4 करोड़ नौकरियों के बराबर है।

इसकी वजह से अनौपचारिक क्षेत्र से जुड़े मजदूरो की आय और आजीविका का नुकसान होगा, जो अत्यधिक और तीव्र गर्मी के प्रति सबसे अधिक संवेदनशील होते हैं। विश्व बैंक द्वारा जारी एक अनुमान के मुताबिक, भारत का करीब 75 फीसदी कार्यबल यानी 3.8 करोड़ लोग ऐसे मेहनत भरे कामों में लगे हैं, जिस पर गर्मी का प्रभाव पड़ता है।

क्या करना चाहिए?

रिपोर्ट में इन चुनौतियों से निपटने के लिए कुछ स्पष्ट उपाय सुझाए गए हैं। इसमें हर क्षेत्र और उद्योग की जरूरतों, स्थानीय मौसम और समुदाय को ध्यान में रखते हुए "हीट एक्शन प्लान" बनाने पर जोर दिया है। साथ ही कमजोर वर्गों जैसे बुजुर्ग मजदूरों और बीमार लोगों को विशेष सुरक्षा की बात कही है। कामगारों, नियोक्ताओं, स्वास्थ्यकर्मियों और यूनियनों को गर्मी से जुड़ी बीमारियों को पहचानने और प्राथमिक इलाज की ट्रेनिंग दी जाए।

साथ ही सरकार, उद्योग और स्वास्थ्य विशेषज्ञ मिलकर ऐसे समाधान तैयार करें जो प्रभावी, किफायती और पर्यावरण के अनुकूल हों। इसके साथ ही रिपोर्ट में नई तकनीकों और शोध को बढ़ावा देने की बात कही है, जिससे गर्मी के बीच भी सेहत और उत्पादकता दोनों सुरक्षित रह सकें।

अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) के मुताबिक यह रिपोर्ट श्रमिकों की सुरक्षा को मौलिक अधिकार मानने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है।

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वहीं विश्व स्वास्थ्य संगठन के सह-निदेशक डॉक्टर जेरमी फर्रार ने प्रेस विज्ञप्ति में कहा, “गर्मी का तनाव अब करोड़ों मजदूरों की सेहत और आजीविका को प्रभावित कर रहा है। यह नई गाइडलाइन जिंदगियों को बचाने, असमानता कम करने और मजबूत कार्यबल तैयार करने का अवसर देती है।”

इस रिपोर्ट के माध्यम से संयुक्त राष्ट्र ने सभी सरकारों और संस्थाओं से अपील की है कि वे सतत विकास के लक्ष्यों के तहत जल्द से जल्द ऐसी नीतियां और कार्यक्रम बनाएं जो उत्पादकता को सुनिश्चित करने के साथ-साथ श्रमिकों की सेहत को भी ध्यान में रखें।

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