जानलेवा गर्मी का कहर: उबलते मौसम में काम कर रहे हैं भारत के मजदूर

इस सीरीज के पहले भाग में डाउन टू अर्थ ने पड़ताल की कि तेज गर्मी असंगठित क्षेत्र के मजदूरों को कैसे प्रभावित कर रही है
बाएं से दाएं, निर्माण श्रमिक रोहित कुमार पासवान, बॉयलर प्लांट श्रमिक भीम सिंह और दर्जी काजलबेन इन सभी को काम के दौरान अत्यधिक व तीव्र गर्मी का सामना करना पड़ रहा है। तस्वीरें: जोएल माइकल / सीएसई
बाएं से दाएं, निर्माण श्रमिक रोहित कुमार पासवान, बॉयलर प्लांट श्रमिक भीम सिंह और दर्जी काजलबेन इन सभी को काम के दौरान अत्यधिक व तीव्र गर्मी का सामना करना पड़ रहा है। तस्वीरें: जोएल माइकल / सीएसई
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इस सीरीज को पुलित्जर सेंटर का सहयोग हासिल है

रोहित कुमार पासवान इन दिनों 47 डिग्री के तापमान में एक निर्माणाधीन इमारत के दसवें फ्लोर पर काम कर रहे हैं। काम के साथ तपती गर्मी में खुद को बचाए रखने का संघर्ष भी शामिल है।

भीम सिंह कपड़ा बनाने वाली एक यूनिट के बॉयलर प्लांट के अंदर काम करते हैं।

काजलबेन अपने टूटे हुए घर में सिलाई मशीन चलाकर कपड़े सिलती हैं, दिन के अधिकांश हिस्से में उन्हें तपती गर्मी का कहर झेलना पड़ता है 

अलग-अलग कामों में लगे ये तीनों लोग अलग जगहों पर काम कर रहे हैं- पहले को काम के घंटों के दौरान धूप का सीधे सामना करना पड़ता है, दूसरा एक फैक्ट्री के अंदर काम करता है, जबकि तीसरी अपने घर में काम करती है। हालांकि तीनों में जो बात समान है, वह यह कि तेज गर्मी इन तीनों के लिए असहनीय बन चुकी है।

डाउन टू अर्थ की शगुन और जोएल माइकल ने दिल्ली, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और गुजरात की यात्राएं कर यह समझने की कोशिश की कि ईट के भट्ठों, निर्माणाधीन साइटों, फैक्ट्रियों, छोटे स्तर की इकाईयों और घर को काम करने की जगह की तौर पर इस्तेमाल कर रहे हजारों मजदूरों के लिए भीषण गर्मी कितनी चुनौतीपूर्ण हो चुकी है और कैसे उनकी सहने की क्षमता का इम्तेहान ले रही है।

भारत में काम करने वाले कुल कार्यबल का लगभग 82 प्रतिशत हिस्सा असंगठित क्षेत्रों में काम कर रहा है और इसके करीब 90 प्रतिशत लोगों के पास औपचारिक तौर पर रोजगार है

सीरीज के इस पहले हिस्से में डाउन टू अर्थ आउटडोर काम करने उन मजदूरों की बात करेगी, जो हमारी साइटों पर काम करते हैं और झुलसा देने वाली गर्मी का  सीधे सामना करते हैं।

34 साल के बिरेश कुमार दिल्ली-एनसीआर मे हरियाणा के फरीदाबाद जिले के भोपानी गांव में ईटों के भट्ठे पर काम करते हैं। वह इस धूप में खुले में बैठकर मिट्टी को सांचे में ढालकर ईंटें बना रहे हैं। भट्ठे में तपाकर पकाने से पहले इन ईंटों को धूप में सुखाया जाता हैं। वह कहते हैं, ‘ ऐसा लगता है कि जैसे मेरा शरीर बुरी तरह तप रहा है और पसीने में ढूब गया है। अगर कोई दूसरा काम मिले तो मैं यह काम नहीं करूंगा। बिरेश आजकल पहले सुबह आठ से दोपहर एक बजे तक और फिर दो घंटे के आराम के बाद इस काम में जुटते हैं।

डाउन टू अर्थ ने उनसे पहले मध्य-अप्रैल में बात की थी, और एक पार्टिकल काउंटर उपकरण की मदद से तब का तापमान दर्ज किया था। यह उपकरण दूसरे कारकों के अलावा वायु का तापमान, आनुपातिक नमी और वेट बल्ब तापमान को नापता है। वेट-बल्ब तापमान वह तापमान है, जो पानी से भीगे हुए कपड़े से ढके थर्मामीटर द्वारा पढ़ा जाता है, जिसके ऊपर से हवा गुजरती है।

सौ प्रतिशत सापेक्ष आर्द्रता पर, वेट-बल्ब तापमान हवा के तापमान के बराबर होता है; कम आर्द्रता पर वाष्पीकरणीय शीतलन के कारण गीले-बल्ब का तापमान सूखे-बल्ब के तापमान से कम होता है। उस समय इस क्षेत्र का तापमान 38.4 डिग्री सेल्सियस था।

भट्ठों पर काम करने वाले मजदूरों को बाहर की तेज गर्मी के साथ ही उस जगह की असहनीय आग की गर्मी का भी सामना करना पड़ता है, जहां ईंटों का पकाया जाता है। बिरेश  कहते हैं, ‘ इतनी तेज गर्मी में कोई आदमी एक घंटे तक धूप में नहीं चल सकता लेकिन हमारा काम ऐसा है कि हमें लगातार धूप में ही काम करना होता है। ईंट ढालने के लिए घंटों धूप में बैठकर काम करने की वजह से मेरे घुटनों में दर्द रहने लगा है और ऐसा लगता है कि जैसे शरीर के निचले हिस्से में खून का दौरान कम हो गया है।’

ईंट के भट्ठे पर काम करने का बिरेश  का यह पहला ही साल है। पड़ोसी राज्य यूपी के हाथरस के रहने वाले बिरेष 2020 तक राजस्थान के श्रीगंगानगर में जूस की दुकान चलाते थे। कोविड-19 के चलते लॉकडाउन की वजह से उन्हें अपना काम बंद करना पड़ा। उनकी दुकान किराये की थी। महामारी में किराया न चुका पाने की वजह से उन्हें पत्नी और तीन बच्चों के साथ यूपी के अपने गृहनगर लौटना पड़ा, हालांकि उनके पास न कोई बचत थी और न ही आय का कोई जरिया।

वहीं, उनकी मुलाकात ईंट-भट्ठे के ठेकेदार से हुई, जिसने उसे मजदूरी के बदले कर्ज दिलाने की पेशकश  की, ऐसा कर्ज, जिसका कोई नियम-कानून नहीं होता। बिरेश  के परिवार ने मजबूरी में ठेकेदार की शर्त मानकर फरवरी 2024 में फरीदाबाद का रुख किया, जहां वह अभी ईंट-भट्ठे पर काम कर रहे हैं।

थोड़ी ही दूरी पर एक खाट पर कुमार के सहकर्मी सोमवीर बैठे हैं (उन्होंने केवल अपना पहला नाम ही बताया है)। सोमवीर को दो दिनों से शरीर में दर्द, कमजोरी और बुखार लग रहा था, जिसके कारण उन्हें काम छोड़ना पड़ा और परिणामस्वरूप उनकी मजदूरी भी गई। वह अपनी हालत की सटीक वजह के बारे में निश्चित तौर पर कुछ नहीं कह पा रहे थे लेकिन उन्हें लग रहा था कि उनकी बीमारी गर्मी से थकावट के कारण हो सकती है।

फरीदाबाद के खेड़ी कलां के सरकारी स्वास्थ्य केंद्र के मेडिकल ऑफिसर इंचार्ज नीरज कौशिक ने बताया कि हाल के दिनों में उन्होंने पाया है कि अस्पताल में डिहाईड्र्रेशन और बेहोशी की शिकायत लेकर आने वाले ईंट-भट्ठे के मजदूरों की संख्या बढ़ रही है। 

वह कहते हैं, ‘ऐसे मरीजों की संख्या मई और जून में बढ़ जाती है। कभी-कभी वे गंभीर तौर पर डिहाईड्र्रेशन का शिकार होते हैं, उनके होंठ सूखे होते हैं और वे पूरी तरह से कमजोर हो चुके होते हैं। ऐसे में हमें उन्हें तुरंत रिहाइड्रेट करने वाले द्रव्य देने पड़ते हैं। अगर उन्हें पहले से डायबिटीज जैसी बीमारी होती है, तो हालत और खराब हो जाती है, ऐसी हालत में उन्हें ठीक होने में भी वक्त लगता है।’ उनके मुताबिक, ऐसे मरीजों में ज्यादातर वे लोग होते हैं, जो ईंट-भट्ठे पर, निर्माणाधीन साइटों पर या फिर खेतों में काम करते हैं।

लू की चपेट में भारत

24 मई को, जब डाउन टू अर्थ ने दो ईंट-भट्ठों (जिसमें कुमार और सोमवीर काम करते हैं) का दोबारा दौरा किया, तो तापमान नापने वाले उपकरण ने साइट पर 43 डिग्री सेल्सियस का तापमान दर्ज किया, जबकि आनुपातिक नमी 38.5 प्रतिशत और वेट बल्ब तापमान 30 डिग्री सेल्सियस था, जो तापमान और नमी, दोनों को दर्शाता  है।

देश के उत्तरी, उत्तर- पश्चिमी और केंद्रीय क्षेत्र इन दिनों कठोर लू की चपेट में हैं, जहां 28 मई को राजस्थान, हरियाणा और दिल्ली के कुछ हिस्सों में तापमान 50 से ज्यादा दर्ज किया गया। भारतीय मौसम विज्ञान विभाग (आईएमडी) लू की सीमा को तब परिभाषित करता है, जब मैदानी इलाकों में अधिकतम तापमान 40 डिग्री सेल्सियस, पहाड़ी क्षेत्रों में 30 डिग्री सेल्सियस और तटीय क्षेत्रों में 37 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाता है, जो सामान्य अधिकतम तापमान से कम से कम 4.5 डिग्री कम होता है।

आईएमडी ने अपने पूर्वानुमान में कहा, ‘सभी आयु-समूहों में गर्मी और लू से जुड़ी बीमारी और विकसित होने की बहुत अधिक आशंका  है।’ मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, राजस्थान में संदिग्ध लू से 11 और गुजरात में दो मौतें हुई हैं।

कितनी गर्मी काम करने के लिहाज से बहुत ज्यादा है

संयुक्त राज्य अमेरिका में व्यावसायिक सुरक्षा और स्वास्थ्य के लिए राष्ट्रीय संस्थान की सिफारिशें, गरम वातावरण में लगातार 34 डिग्री सेल्सियस तापमान और 30 प्रतिशत आनुपातिक नमी के मौसम में काम करने की अनुमति देती हैं। 2024 का हर महीना वैश्विक गर्मी का रिकॉर्ड तोड़ने का गवाह बना है। इस साल 1850 के बाद पहली बार इतनी गरम जनवरी देखी गई, उसके बाद मार्च बहुत ही गरम महीना रहा और अब मई रिकॉर्ड तोड़ने वाले तापमान का सिलसिला जारी रखने वाला 12वां महीना बनने की ओर अग्रसर है।

15 मई, 2024 को एक वैश्विक अध्ययन में वर्ल्ड वेदर एट्रिब्यूशन ग्रुप के 13 प्रमुख जलवायु वैज्ञानिकों की एक अंतरराष्ट्रीय टीम द्वारा विश्लेषण के अनुसार, भारत समेत पूरे एशिया में रिकॉर्ड तोड़ने वाली इस गर्मी के उछाल में जलवायु परिवर्तन और अलनीनो के प्रभाव ने महत्वपूर्ण योगदान दिया है। जलवायु परिवर्तन से उपजी कठोर लू ने एक तरफ पूरी दुनिया पर असर डाला है, वहीं दूसरी ओर कड़े शारीरिक श्रम करने वालों मजदूरों को पहले से ज्यादा खतरे में डाल दिया है क्योंकि वे बाहर काम करते हुए सीधे धूप का सामना करते हैं।

ईंट-भट्ठे के मजदूरों की तरह ही कई और काम करने वालों को कड़ी धूप में काम करना पड़ता है। इनमें खेतों में कठोर शारीरिक श्रम करने वाले मजदूर, निर्माणाधीन साइटों के मजदूर, गिग वर्कर्स, ऑटो रिक्शा ड्राईवर्स, गलियों में ठेले पर सामान बेचने वाले लोग शामिल हैं। इनका काम भी ऐसा है और आर्थिक स्थितियां भी कि उन्हें लू के मौसम में भी बाहर निकलकर काम करना पड़ता है।

बिरेश ने बताया, ‘ मैं पहली बार किसी ईंट-भट्ठे पर बीस साल पहले अपने पिता के साथ तब गया था, जब मैं बच्चा था। पिता जी वहीं काम करते थे, मैं उनके आसपास खेला करता था। उस समय भी, सुबह से षाम तक काम करना होता था लेकिन तब गर्मी कम थी। तबमें और आज में यह बड़ा फर्क है।’

इसी तरह सोमवीर छह साल से अलग- अलग ईंट-भट्ठों पर काम रहे हैं। वह कहते हैं- पिछले दो- तीन साल से गर्मी, हमारे शरीर के सहने की क्षमता का इम्तेहान ले रही है। यही काम दो साल पहले तक सामान्य लगता था।’

दोनों मिलकर प्रतिदिन औसतन लगभग 2,500 ईंटें बनाते हैं और प्रति 1,000 ईंटों पर 520 रुपये कमाते हैं। हालाँकि, तापमान बढ़ने पर उनके द्वारा बनाई जाने वाली ईंटों की संख्या कम हो जाती है।

अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) ने अपनी 2019 की रिपोर्ट में अनुमान लगाया है कि ग्लोबल वार्मिंग के कारण भारत में 2030 में 5.8 प्रतिशत कामकाजी घंटों का नुकसान हो सकता है, जो उत्पादकता के हिसाब से 3.4 करोड़  पूर्णकालिक नौकरियों के बराबर है। परिणामस्वरूप, इससे उन अनौपचारिक मजदूरो की आय और आजीविका का नुकसान होगा, जो अत्यधिक और तीव्र गर्मी के प्रति सबसे अधिक संवेदनशील होते हैं।

विश्व बैंक के अनुमान के अनुसार, भारत का लगभग 75 प्रतिशत कार्यबल या 3.8 करोड़ लोग ऐसी मजदूरी करते हैं, जिस पर गर्मी का प्रभाव पड़ता है।

2013 और 2014 में चेन्नई में ईंट-भट्ठों पर किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि गर्मी के महीनों के दौरान भट्ठों में गर्मी का जोखिम कभी-कभी सुरक्षित काम के लिए अंतरराष्ट्रीय मानक सीमा से अधिक हो जाता है।

2021-22 के आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक, बिरेश कुमार और सोमवीर उन 44 करोड़ लोगों में से केवल दो उदाहरण हैं, जो असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं। हालांकि ये दोनों ही सटीक तरीके से इस बात का उदाहरण पेश करते हैं कि तेज गर्मी किस तरह से उनके काम में बाधा बन रही है, बल्कि जिसकी वजह से काम ही ऐसी सजा बन गया है, जिसे सहना मुश्किल होता जा रहा है। 

ईंट निर्माण एक कड़ी मेहनत वाला उद्योग है। इसके हर चरण में बड़ी संख्या में मजदूरों की जरूरत होती है, जिसमें ईंटों को ढालना, सूखी और पकी हुई ईंटों को भट्ठे तक ले जाना, भट्ठे में ईंधन डालना और ईंटों को ठंडा होने के बाद उन्हें आगे ले जाने के लिए निकालना शामिल है।

मई में, ईंट भट्ठा स्थलों पर ईंटों की ढलाई और परिवहन का काम रात के समय में करना शुरू कर दिया गया था। हालांकि, नमी के साथ-साथ रात के तापमान में भी काफी वृद्धि हुई है। इसके अलावा, रात में मच्छरों का प्रकोप बढ़ जाता है। आईएमडी ने 24 मई, 2024 के अपने पूर्वानुमान में आगाह किया कि उत्तर भारत के विभिन्न हिस्सों में रात के समय में भी तेज गर्मी पड़ सकती है।

दूसरी ओर, भट्ठे को जलाने और यह सुनिश्चित करने के लिए कि ईंटें पर्याप्त रूप से जली हैं, इंचार्ज मजदूरों को अपना शेड्यूल बदलने की अनुमति नहीं होती  क्योंकि यह 24 घंटे का काम है। दिल्ली-एनसीआर में भट्ठे 1 मार्च को शुरू होते हैं और जून के मध्य में मानसून आने पर ही बंद होते हैं।

भट्ठे में ईधन डालने वाले यानी तीसरे चरण का काम करने वाले मजदूर लगातार सूरज की रोशनी के साथ ही भट्ठे के अंदर की सतह की गर्मी का भी सामना करते हैं। वे चैंबर, जो ईंधन (इस मामले में भूसी) प्रदान करते हैं और 1,100 डिग्री सेल्सियस से 1,200 डिग्री सेल्सियस के तापमान पर ईंटों को जलाते हैं, वे चिलचिलाती गर्मी पैदा करते हैं। जिस क्षेत्र में ईंटें पकाई जाती हैं, वहां का तापमान साइट के अन्य क्षेत्रों की तुलना में काफी बढ़ जाता है।

डाउन टू अर्थ ने 24 मई को जिन दो भट्ठों का दौरा किया, उनमें से एक में सात समर्पित मजदूरों का एक समूह लगातार हर चैंबर में ईंधन डालने के काम में लगा हुआ था। उस समय दिन के साढ़े तीन बजे सामान्य तापमान 48 डिग्री और वेट बल्ब तापमान 30.3 डिग्री था। वहां से महज दो सौ मीटर की दूरी पर तापमान दो डिग्री कम यानी 46 डिग्री था।

हमने जब राजेंद्र कुमार से पूछा कि काम करना कैसा लगता है, तो उन्होंने पलटकर पूछा, कि जब पारा 50 डिग्री पार कर रहा है, तब।  वह उन सात मजदूरों में से एक हैं, जो चैंबर में छह घंटे काम करते हैं। उनकी दो शिफ्ट हैं, पहली दोपहर एक से शाम सात बजे तक और दूसरी रात एक बजे से सुबह सात बजे तक। बारह घंटे की इस ड्यूटी के लिए उन्हें छह सौ रुपये रोज मिलते हैं। इन बारह में से छह घंटे उन्हें चैंबर के पास गुजारने होते हैं।

इसका मतलब कि दिन के समय करीब तीन घंटे समूह के लोगों को चैंबर के पास रहकर काम करना होता है। ज्यादातर मजदूर अपने परिवार से दूर रहकर काम करते हैं। राजेंद्र उल्टे सवाल करते हैं- ‘ यहां आएंगे घरवाले, मरना है क्या।

भारत दुनिया में दूसरा सबसे बड़ा ईंट उत्पादक देश है। यहां इस क्षेत्र में हर साल 2.33 खरब ईंटों का उत्पादन होता है और लगभग 2.3 करोड़ लोगों को रोजगार मिलता है। इन मजदूरों को अत्यधिक गर्मी का खतरा ज्यादा होता है। ईंट उद्योग तेजी से आगे बढ़ रहा है क्योंकि तेजी से बढ़ते शहरीकरण और देश में निर्माण परियोजनाओं की बढ़ती संख्या के कारण ईंटों की मांग भी बढ़ रही है।

ईंट-भट्ठा क्षेत्र तेजी से बढ़ते निर्माण उद्योग को सहयोग देता है, जिसके 2024 से 2033 तक छह प्रतिशत की चक्रवृद्धि वार्षिक वृद्धि दर से बढ़ने का अनुमान है, और जो सरकार के बुनियादी ढांचे को बढ़ावा देने और तेजी से शहरीकरण करने के विचार से प्रेरित है।

मंडल जैसे मजदूर, भारत में इस आर्थिक गतिविधि की रीढ़ हैं। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय 2016-17 के अनुसार, यह क्षेत्र भारत में कृषि के बाद दूसरा सबसे बड़ा नियोक्ता है, जो लगभग 7.4 करोड़ मजदूरों को रोजगार देता है। वैज्ञानिकों का कहना है कि लू न केवल फिलहाल बनी रहेगी बल्कि आने वालों सालों में बढ़ेगी। एक ऐसे देश में जहां सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी का लगभग 50 प्रतिशत योगदान उन मजदूरों द्वारा किया जाता है, जो सीधे गर्मी के संपर्क में रहकर काम करते हैं, क्या वहां सुरक्षा के पर्याप्त उपाय हैं?

मोटे तौर पर इसका जवाब है, नहीं। गुजरात के अहमदाबाद में एक निर्माणाधीन शापिंग मॉल के टॉप फ्लोर पर काम करने वाले पासवान अपने मैनेजर से उनके काम करने वाली जगह पर एक ग्रीन नेट लगाने का अनुरोध कर रहे हैं, लेकिन उनकी बात नहीं सुनी जा रही।

उन्हें छत पर धूप में घंटों खड़ा रहकर काम करना होता है। जब उन्हें ब्रेक मिलता है, तो वह ऐसी जगह तलाशते हैं, जहां थोड़ी छाया हो लेकिन इसके लिए उन्हें सीढ़ियों से नीचे जाना पड़ता है, जो मुश्किल काम है। वह बताते हैं, ‘ हम अपने मैनेजर से टॉप फ्लोर पर ग्रीन नेट के लिए कह रहे हैं, जहां  ब्रेक के दौरान छाया मिल सके।

बाहरी कार्यस्थल पर विभिन्न स्थानों पर तापमान रीडिंग से पता चला कि खुले क्षेत्र की तुलना में छायादार क्षेत्र में तापमान 3-4 डिग्री सेल्सियस तक कम हो जाता है। इस प्रकार एक सरल समाधान जैसे ग्रीन नेट यानी हरे रंग का जाल लगाने, एक छायादार क्षेत्र बनाने से  मजदूरों को अपने शरीर को ठंडा करने और काम के दौरान आराम करने की सुविधा मिलेगी।

दिल्ली स्थित थिंक टैंक सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) के एक हालिया अध्ययन से पता चला है कि हरे स्थानों को बढ़ाने से तापमान को 5 डिग्री सेल्सियस तक और 250 मीटर से अधिक की दूरी तक कम किया जा सकता है। जब मई के मध्य में डाउन टू अर्थ ने पासवान से मुलाकात की, तो सामान्य तापमान 46.7 डिग्री जबकि वेट बल्ब तापमान 31.2 डिग्री था।

22 साल के पासवान कहते हैं, ‘मैं सुबह आठ बजे काम पर जाता हूं दो घंटे के बाद ही दस बजे से मुझे गर्मी लगने लगती है। इसके बाद हर 20-30 मिनट के बाद ब्रेक लेने का मन करने लगता है। ’ हालांकि यह काम ऐसा नहीं कि जिसमें इतनी जल्दी-जल्दी आराम मिल मिल सके, इसलिए ऐसा नहीं हो पाता। पासवान के मुताबिक, दिन में कई बाद ऐसा मन करता है कि काम रोककर आराम कर लूं।’ 

अहमदाबाद में नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ ऑक्यूपेशनल हेल्थ-इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च द्वारा 29 युवा पुरुष निर्माण मजदूरों के साथ किए गए एक अध्ययन के अनुसार, गर्मी के महीनों के दौरान निर्माण कार्यस्थल पर गर्मी का जोखिम बहुत ज्यादा था। उनका वेट बल्ब तापमान ही तापमान 33 डिग्री तक पहुंच गया था। यह गर्म वातावरण में मध्यम स्तर की कार्य गतिविधियों के लिए अंतरराष्ट्रीय मानक सीमा से अधिक है, जो कि 30 डिग्री निर्धारित है।

नेचुरल रिसोर्सेज डिफेंस काउंसिल इंडिया में स्वास्थ्य और क्लाईमेट रेसीलेंस यानी जलवायु-लचीलापन के प्रमुख अभियंत तिवारी के मुताबिक, ‘जलवायु परिवर्तन से बढ़े सभी खतरों के बीच, गर्मी निस्संदेह एक बड़ी आपदा है, जो आगे और बढ़ जाएगी। किसी देश के विकास के दौरान आपदा जोखिम पर भी निश्चित तौर पर विचार किया जाना चाहिए।’

वह आगे कहते हैं, ‘जिस हिसाब से आधारभूत ढांचा तैयार हो रहा है, लगभग 70 प्रतिशत निर्माण तो भविष्य में होना है। यह निर्माण ऐसे समय में होना है, जब पूरी दुनिया खासकर दक्षिणी हिस्सा गर्मी झेल रहा हैं। अगर हम इसका ध्यान नहीं रखेंगे तो बुरी तरह नाकाम होंगे।’ तिवारी 2013 में दक्षिण एशिया के पहले ‘ हीट एक्शन प्लान’ का हिस्सा थे। 

इस तरह, काम की नीतियां बनाते समए भारत में गर्मी के तथ्य को गंभीरता से शामिल करने की जरूरत है। क्या हमारे शहरों को बनाने और चलाने वाले मजदूर, जलवायु-परिवर्तन के केंद्र में हैं। क्या सरकारें, कंपनियां और सिविल सोसाइटीज उनके काम करने की जगहों पर गर्मी की गंभीरता और उससे निपटने के सहज सुझावों पर काम कर रही हैं। इस सीरीज के अगले हिस्से में इम इन्हीं सवालों पर आगे बढ़ेंगे।

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