
दुनिया में बढ़ते तापमान का असर अब साफ तौर पर हमारी थाली तक पहुंचने लगा है। एक नए अंतरराष्ट्रीय अध्ययन से पता चला है कि जलवायु में आते बदलावों के चलते सदी के अंत तक प्रमुख फसलों से मिलने वाली कैलोरी की मात्रा 24 फीसदी तक घट सकती है।
अध्ययन के मुताबिक जैसे-जैसे पृथ्वी गर्म होती जाएगी, वैसे-वैसे गेहूँ, मक्का, सोयाबीन, जौ और कसावा जैसी प्रमुख फसलों की पैदावार में तेज गिरावट आएगी, चाहे किसान कितनी भी मेहनत क्यों न करें।
अध्ययन में पाया गया कि वैश्विक तापमान में हर एक डिग्री सेल्सियस की वृद्धि के साथ प्रति व्यक्ति रोजाना औसतन 120 कैलोरी कम भोजन मिलेगा। यह आज की प्रति व्यक्ति दैनिक खपत का करीब 4.4 फीसदी है।
यह अब तक का सबसे विस्तृत विश्लेषण है, जिसके नतीजे अंतराष्ट्रीय जर्नल नेचर में प्रकाशित हुए हैं। इस अध्ययन में उन फसलों का विश्लेषण किया है, जो इंसानों की दो-तिहाई कैलोरी का स्रोत हैं, इनमें गेहूं, मक्का, धान, सोयाबीन, जौ और कसावा जैसी फसलें शामिल हैं।
हर एक डिग्री सेल्सियस से घटेंगी 120 कैलोरी
स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय में प्रोफेसर और अध्ययन से जुड़े शोधकर्ताओं सोलोमन हसियांग का कहना है, जब वैश्विक खाद्य उत्पादन में गिरावट आती है, तो इसका खामियाजा आम लोगों को भुगतना पड़ता है, क्योंकि कीमतें बढ़ती हैं और खाना मिलना मुश्किल हो जाता है।
उनके मुताबिक अगर धरती का तापमान तीन डिग्री सेल्सियस बढ़ गया, तो यह ऐसा होगा जैसे दुनिया के हर व्यक्ति ने अपना नाश्ता छोड़ दिया हो। गौरतलब है कि तापमान में हर डिग्री की वृद्धि के साथ प्रति व्यक्ति 120 कैलोरी कम मिलेंगी, मतलब कि तीन डिग्री के साथ यह आंकड़ा बढ़कर करीब-करीब उतना हो जाएगा जितना एक आम आदमी अपने नाश्ते में लेता है। उनका आगे कहना है, यह एक बड़ा खतरा है, खासकर तब जब आज भी 80 करोड़ से ज्यादा लोगों को कभी-कभी पूरा दिन भूखा रहना पड़ता है।
अमेरिका में कृषि को सबसे ज्यादा नुकसान होने की आशंका है। शोधकर्ताओं के मुताबिक मिडवेस्ट के ऐसे इलाके जो आज मक्का और सोयाबीन की खेती के लिए बेहद उपयुक्त हैं, भविष्य में ज्यादा गर्म होने पर बेहद प्रभावित होंगे। ऐसे में यह सोचने पर मजबूर करता है कि क्या भविष्य में कॉर्न बेल्ट आज जैसी ही रहेगी?
किसानों की कोशिशें मदद करेंगी, पर पूरी तरह नहीं बचा पाएंगी
अपने इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने 55 देशों के 12,000 से ज्यादा इलाकों के आंकड़ों का विश्लेषण किया है।
अध्ययन में पाया गया है कि किसान बदलते मौसम के अनुसार फसलों, बीजों और खाद की मात्रा में बदलाव करेंगे। लेकिन उत्सर्जन में वृद्धि जारी रही तो ये बदलाव भी सदी के अंत तक जलवायु से होने वाले नुकसान की करीब एक तिहाई भरपाई ही कर पाएंगे। मतलब की बाकी नुकसान फिर भी बरकरार रहेगा।
शोधकर्ताओं ने पुष्टि की है कि भले ही किसान कितना भी अनुकूलन करें, लेकिन तापमान बढ़ने से वैश्विक उत्पादन में कमी आएगी।
शोधकर्ताओं के मुताबिक इसका सबसे ज्यादा असर दो तरह की जगहों पर होगा, एक जहां आधुनिक तरीके से बड़े पैमाने पर खेती की जाती है। यह वो क्षेत्र हैं जहां आज दुनिया की सबसे अच्छी फसली पैदावार होती है। दूसरी वहां जहां छोटे सीमान्त किसान थोड़ी-बहुत फसलें उगाकर अपना गुजारा करते हैं।
बढ़ते तापमान की वजह से सदी के अंत तक अमीर देशों में फसल की पैदावार 41 फीसदी तक घट सकती है। वहीं कमजोर देशों में 28 फीसदी की गिरावट आ सकती है। यानी इसका असर सभी पर होगा, चाहे आधुनिक तकनीक हो या पारंपरिक खेती।
मॉडल के अनुसार, धरती के गर्म होने पर वैश्विक स्तर पर चावल की पैदावार बढ़ने की 50 फीसदी संभावना है, क्योंकि चावल को गर्म रातों से फायदा होता है। लेकिन बाकी प्रमुख फसलों की पैदावार में सदी के अंत तक गिरावट आने की आशंका करीब 70 से 90 फीसदी के बीच है।
देखा जाए तो धरती का तापमान पहले ही औद्योगिक काल से करीब डेढ़ डिग्री सेल्सियस बढ़ चुका है। इसके चलते कई जगहों पर किसान अब लंबे सूखे, असमय गर्मी और अनिश्चित मौसम का सामना कर रहे हैं, जिससे फसलों की पैदावार घट रही है, भले ही खाद और पानी जैसे साधनों की उपलब्धता पहले से बेहतर हुई है।
भविष्य के लिए चेतावनी
अध्ययन में तापमान में वृद्धि और अनुकूलन स्थितियों के आधार पर भविष्य की पैदावार का अनुमान लगाया गया है। शोधकर्ताओं के मुताबिक, अगर उत्सर्जन तेजी से घटाकर नेट जीरो भी कर दिया जाए, तो भी सदी के अंत तक फसलों की वैश्विक पैदावार में 11 फीसदी की गिरावट आ सकती है। लेकिन अगर उत्सर्जन ऐसे ही बढ़ता रहा, तो यह गिरावट 24 फीसदी तक पहुंच सकती है।
अध्ययन में यह भी सामने आया है कि 2050 तक, जलवायु परिवर्तन की वजह से फसलों की पैदावार 8 फीसदी तक कम हो जाएगी — चाहे आने वाले दशकों में उत्सर्जन बढ़े या घटे। इसका कारण है कि कार्बन डाइऑक्साइड वातावरण में सैकड़ों सालों तक बनी रहती है, जो बढ़ते तापमान की वजह बन रही है।
अमेरिका जैसे देशों, खासकर मक्का और सोयाबीन उगाने वाले क्षेत्रों को बढ़ते तापमान से सबसे ज्यादा नुकसान होगा। वहीं कनाडा, रूस और चीन जैसे ठंडे देशों में थोड़े फायदे की उम्मीद जताई गई है।
अब भी है बदलाव का समय
वैज्ञानिकों के मुताबिक अभी भी बदलाव का समय है, लेकिन वक्त बेहद कम है। विशेषज्ञों का कहना है कि अगर हम अभी से उत्सर्जन में तेजी से कमी करें और किसानों को सही जानकारी व संसाधन दें, तो हालात बेहतर हो सकते हैं।