कैसे करोड़ों साल पहले अंटार्कटिका ने भारत में मानसून को दिया आकार, नागालैंड की पत्तियों ने खोला रहस्य

अध्ययन याद दिलाता है कि पृथ्वी की जलवायु एक वैश्विक जाल की तरह है—जहां एक छोर पर हुआ बदलाव दूसरे छोर तक असर डाल सकता है
यह खोज केवल अतीत की कहानी नहीं है, बल्कि भविष्य के लिए चेतावनी भी है। ; प्रतीकात्मक तस्वीर: आईस्टॉक
यह खोज केवल अतीत की कहानी नहीं है, बल्कि भविष्य के लिए चेतावनी भी है। ; प्रतीकात्मक तस्वीर: आईस्टॉक
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Summary
  • भारतीय वैज्ञानिकों ने 3.4 करोड़ साल पहले अंटार्कटिका के निर्माण और भारत में मानसून के विकास के बीच संबंध का खुलासा किया है।

  • नागालैंड में मिले पत्तियों के जीवाश्म से पता चला कि उस समय की जलवायु गर्म और नमी से भरपूर थी।

  • यह अध्ययन अंटार्कटिका की बर्फ और भारतीय मानसून के बीच संबंध को दर्शाता है।

  • अध्ययन से सामने आया है कि अंटार्कटिका की बर्फ में हुई बढ़ोतरी से इंटरट्रॉपिकल कन्वर्जेंस जोन (आईटीसीजेड) यानी बारिश की एक प्रमुख पट्टी दक्षिण ध्रुव से खिसककर उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों की और स्थानांतरित हो गई।

भारतीय वैज्ञानिकों ने अपने एक नए अध्ययन में करीब 3.4 करोड़ साल पहले अंटार्कटिका के निर्माण और भारत में मानसूनी प्रणाली के शुरुआती विकास के बीच के संबंध को उजागर किया है। यह वो समय था जब अंटार्कटिका में बर्फ की चादरें बनने लगीं, और उसी दौर में भारत में मानसून की शुरुआती रूपरेखा तैयार हुई।

नागालैंड में मिले पत्तियों के जीवाश्म के किए गए अध्ययन से यह चौंकाने वाली कड़ी सामने आई है। इस अध्ययन के नतीजे जर्नल पैलियोजियोग्राफी, पैलियोक्लाइमेटोलॉजी, पैलियोइकोलॉजी में प्रकाशित हुए हैं।

यह अध्ययन बीरबल साहनी पुराविज्ञान संस्थान, लखनऊ और वाडिया हिमालय भूविज्ञान संस्थान, देहरादून से जुड़े वैज्ञानिकों द्वारा किया गया है। अपने इस अध्ययन में वैज्ञानिकों ने नागालैंड की लाइसोंग फॉर्मेशन से प्राप्त 3.4 करोड़ साल पुराने पत्तों के जीवाश्म का विश्लेषण किया है। यह पत्तियां बेहद पुरानी होने के बावजूद बहुत अच्छी तरह संरक्षित थी।

इन पत्तियों के जीवाश्म का अध्ययन करने के लिए वैज्ञानिकों ने क्लाइमेट लीफ एनालिसिस मल्टीवेरिएट प्रोग्राम (सीएलएएमपी) नामक तकनीक का उपयोग किया है। इन पुरातन पत्तियों के आकार, आकृति और संरचना का अध्ययन करके वैज्ञानिकों ने अतीत की जलवायु का विवरण तैयार किया।

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यह खोज केवल अतीत की कहानी नहीं है, बल्कि भविष्य के लिए चेतावनी भी है। ; प्रतीकात्मक तस्वीर: आईस्टॉक

विश्लेषण के निष्कर्षों से पता चला है कि आज की तुलना में उस समय नागालैंड की जलवायु बेहद गर्म और नमी से भरपूर थी। वैज्ञानिकों ने जब उस समय की जलवायु का पुनर्निर्माण किया तो उन्हें कुछ चौंकाने वाली बातें पता चली।

उन्हें पता चला कि उस दौर में यहां असाधारण रूप से भारी बारिश और उच्च तापमान था। इसके पीछे के क्या कारण हो सकते हैं जब इसे समझने के लिए उन्होंने गहन अध्ययन शुरू किया, तो शोधकर्ताओं ने पाया कि यह वही समय था जब अंटार्कटिका में विशाल बर्फ की चादरें बनना शुरू हुई थीं।

कैसे भारतीय मानसूनी प्रणाली का हुआ विकास

इस बदलाव ने वैश्विक स्तर पर हवाओं और बारिश के पैटर्न को प्रभावित किया। इससे पूर्वोत्तर भारत में भी प्रचंड मानसूनी बारिश हुई। हैरानी की बात यह है कि ये परिणाम अंटार्कटिका में बर्फ जमने के वैश्विक समय से मेल खाते हैं, जो दक्षिणी ध्रुव पर बर्फ बढ़ने और भारत में उष्णकटिबंधीय बारिश के बीच संबंध को दर्शाता है।

अध्ययन से सामने आया है कि अंटार्कटिका की बर्फ में हुई बढ़ोतरी से इंटरट्रॉपिकल कन्वर्जेंस जोन (आईटीसीजेड) यानी बारिश की एक प्रमुख पट्टी दक्षिण ध्रुव से खिसककर उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों की और स्थानांतरित हो गई। इसने वैश्विक स्तर पर बारिश और हवा के पैटर्न को नया रूप दिया। इसकी वजह से भारत में बारिश और तापमान दोनों असामान्य रूप से बढ़ गए और भारतीय मानसूनी प्रणाली का विकास हुआ।

देखा जाए तो यह खोज केवल अतीत की कहानी नहीं है, बल्कि भविष्य के लिए चेतावनी भी है। आज जब जलवायु परिवर्तन के कारण अंटार्कटिका की बर्फ तेजी से पिघल रही है, तो एक बार फिर इंटरट्रॉपिकल कन्वर्जेंस जोन की स्थिति बदल सकती है। इसका सीधा असर भारत और पड़ोसी देशों के मानसून पर पड़ेगा, जिससे कृषि, जल आपूर्ति और करोड़ों लोगों का जीवन प्रभावित हो सकता है।

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अध्ययन याद दिलाता है कि पृथ्वी की जलवायु एक वैश्विक जाल की तरह है—जहां एक छोर पर हुआ बदलाव दूसरे छोर तक असर डाल सकता है।

अंटार्कटिका की बर्फ और नागालैंड की पत्तियां हमें यह सिखाती हैं कि अतीत को समझकर कि कैसे लाखों साल पहले पृथ्वी ने बड़े बदलावों पर प्रतिक्रिया दी, हम भविष्य की चुनौतियों से निपटने की तैयारी कर सकते हैं।

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