कॉप-30: कैसे नई ‘ग्रीन’ अर्थव्यवस्था में अपनी जगह मजबूत कर सकते हैं विकासशील देश, सीएसई ने सुझाई राह

सीएसई की नई रिपोर्ट श्रृंखला ‘टुवर्ड्स अ न्यू ग्रीन वर्ल्ड का कहना है, स्थानीय उत्पादन, आर्थिक मजबूती, और न्यायपूर्ण नीतियों के जरिए विकासशील देश न केवल अपने आप को आर्थिक रूप से मजबूत बना सकते हैं, साथ ही जलवायु परिवर्तन के खिलाफ जंग में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं
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सारांश
  • सीएसई की रिपोर्ट के अनुसार, विकासशील देशों को हरित अर्थव्यवस्था में अपनी जगह बनाने के लिए स्थानीय उत्पादन और मूल्य संवर्धन को प्राथमिकता देनी होगी।

  • रिपोर्ट में कृषि, खनिज और स्वच्छ तकनीक के क्षेत्रों में विकासशील देशों की चुनौतियों और अवसरों पर प्रकाश डाला गया है, जिससे वे वैश्विक व्यापार में अधिक मुनाफा कमा सकें।

  • सीएसई ने चेताया है कि अगर दक्षिण के विकासशील देश अपनी जलवायु नीतियों में आर्थिक मजबूती, मूल्य संवर्धन और पर्यावरण अनुकूल औद्योगीकरण को प्राथमिकता नहीं देंगें, तो वे एक बार फिर संसाधनों के महज सप्लायर बनकर रह जाएंगे, जबकि असली मुनाफा समृद्ध देशों के हिस्से में चला जाएगा।

  • रिपोर्ट सुझाव देती है कि जलवायु, व्यापार और विकास के बीच के इस संतुलन में समानता और न्याय को केंद्र में रखकर ही ग्लोबल साउथ के लिए आगे का रास्ता तय किया जा सकता है।

क्या नई ‘हरित अर्थव्यवस्था’ की दौड़ में विकासशील देश पीछे छूट जाएंगे? दिल्ली स्थित थिंक टैंक सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) ने रिपोर्ट की अपनी नई श्रृंखला में इस बढ़ते खतरे को लेकर चेताया है।

'टुवर्ड्स अ न्यू ग्रीन वर्ल्ड' नामक इस रिपोर्ट को ब्राजील के बेलेम शहर में हो रहे संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन कॉप-30 की पूर्वसंध्या पर जारी किया गया है। गौरतलब है कि यह यह सम्मेलन ऐसे समय में हो रहा है जब वैश्विक राजनीतिक अस्थिरता के बीच जलवायु लक्ष्यों की रफ्तार धीमी पड़ती दिख रही है। मतलब कि कहीं न कहीं जलवायु परिवर्तन से लड़ने की कोशिशें कमजोर पड़ती जा रही हैं।

सीएसई ने चेताया है कि अगर दक्षिण के विकासशील देश अपनी जलवायु नीतियों में आर्थिक मजबूती, मूल्य संवर्धन और पर्यावरण अनुकूल औद्योगीकरण को प्राथमिकता नहीं देंगें, तो वे एक बार फिर संसाधनों के महज सप्लायर बनकर रह जाएंगे, जबकि असली मुनाफा समृद्ध देशों के हिस्से में चला जाएगा।

श्रृंखला को जारी करते हुए सीएसई की महानिदेशक सुनीता नारायण ने कहा, “समावेशी और किफायती विकास आर्थिक मजबूती की कुंजी है और यही जलवायु परिवर्तन से निपटने में मदद करेगा।“

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उनका आगे कहना है, “हर देश को हरित बदलाव (ग्रीन ट्रांजिशन) में आर्थिक हिस्सेदारी मिलनी चाहिए। इसके लिए देशों को अपने घरेलू उत्पादन, रोजगार और स्थानीय उद्योग को बढ़ावा देना होगा।" उनके मुताबिक अब समय है कि वैश्विक व्यापार और वित्तीय नियमों को फिर से गढ़ा जाए ताकि स्थानीय उत्पादन और मूल्य संवर्धन को बढ़ावा मिल सके। यही रास्ता पर्यावरण अनुकूल औद्योगीकरण की असली नींव बन सकता है।

रिपोर्ट की इस श्रृंखला में हरित विकास के तीन अहम क्षेत्रों पर ध्यान दिया गया है, इसमें पहला कृषि और वन उत्पाद, दूसरा महत्वपूर्ण खनिज, और स्वच्छ तकनीक व विनिर्माण शामिल हैं। यह श्रृंखला बताती है कि कैसे विकासशील देश नई हरित अर्थव्यवस्था में अपनी जगह बना सकते हैं और टिके रह सकते हैं।

रिपोर्ट के अनुसार, चाहे बात कृषि उत्पादों की हो, खनिजों की या उद्योगों की, विकासशील देशों के सामने एक जैसी समस्या है, वे दुनिया को संसाधन तो देते हैं, लेकिन उसके बदले बहुत कम मुनाफा पाते हैं। कोको और तांबे से लेकर लिथियम और सौर पैनलों तक, हरित विकास की यह दौड़ शोषण और निर्भरता के पुराने ढर्रे को दोहरा रही है।

कृषि और वन उत्पादों की सच्चाई: संसाधन किसके, मुनाफा किसका

श्रृंखला के पहले पेपर के मुताबिक, विकासशील देश अब भी कम मूल्य वाले कच्चे निर्यात के जाल में फंसे हैं। उदाहरण के लिए, आइवरी कोस्ट और घाना दुनिया की आधी से ज्यादा कोको बीन्स पैदा करते हैं, लेकिन चॉकलेट और कोको उत्पादों से होने वाली कमाई में उनकी हिस्सेदारी महज 6.2 फीसदी है।

वहीं, 80 से 90 फीसदी मुनाफा उत्तरी देशों की कंपनियां ले जाती हैं। ऐसे में रिपोर्ट का कहना है कि इन देशों को कच्चे निर्यात से आगे निकलकर स्थानीय प्रोसेसिंग और विविधीकरण की दिशा में बढ़ना आवश्यक है।

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महत्वपूर्ण खनिज: फिर दोहराया जा रहा पुराना खेल

दूसरा पेपर बताता है कि ऊर्जा क्षेत्र में बदलाव के लिए जरूरी क्रिटिकल मिनरल्स (जैसे लिथियम, कोबाल्ट, निकेल) का एक बड़ा हिस्सा ग्लोबल साउथ के पास है, लेकिन इन देशों को रिफाइनिंग और मैन्युफैक्चरिंग से बहुत कम मुनाफा मिल रहा है।

सीएसई की जलवायु कार्यक्रम की प्रबंधक अवंतिका गोस्वामी का कहना है, "इन देशों को अब भी कीमतों में अस्थिरता, व्यापार घाटे और भू-राजनीतिक जोखिमों का सामना करना पड़ता है।"

पेपर में चिली, इंडोनेशिया और डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कांगो के उदाहरण लेकर उनकी खनिज संबंधी नीतियों और योजनाओं की ताकत, कमजोरियों, अवसर और चुनौतियों का विश्लेषण किया गया है। रिपोर्ट सुझाव देती है कि जलवायु, व्यापार और विकास के बीच के इस संतुलन में समानता और न्याय को केंद्र में रखकर ही ग्लोबल साउथ के लिए आगे का रास्ता तय किया जा सकता है।

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स्वच्छ तकनीक निर्माण: असमानता की नई दीवार

श्रंखला का तीसरा पेपर बताता है कि स्वच्छ तकनीक (क्लीन टेक) निर्माण ज्यादातर चीन, यूरोपियन यूनियन और अमेरिका में केंद्रित है। वहीं दक्षिण अमेरिका, अफ्रीका और दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों की कुल हिस्सेदारी पांच फीसदी से भी कम है। यह देश दोहरी चुनौती से जूझ रहे हैं, इन्हें औद्योगिक विकास भी करना है और साथ ही उत्सर्जन को भी घटाना है।

ऐसे में रिपोर्ट में भारत, चीन, इंडोनेशिया और मेक्सिको के उदाहरणों से दिखाया है कि कैसे नई औद्योगिक नीतियों, दक्षिण के देशों के बीच सहयोग और वैश्विक नियमों में सुधार से पर्यावरण अनुकूल औद्योगीकरण को गति दी जा सकती है। साथ ही यह विकासशील देश अपनी उत्पादन क्षमता भी बढ़ा सकते हैं।

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सीएसई की यह रिपोर्ट बताती है कि कैसे विकासशील देश अधिक मुनाफा कमा सकते हैं, अपनी आमदनी बढ़ा सकते हैं, और नई पर्यावरण अनुकूल अर्थव्यवस्था में मजबूत भूमिका निभा सकते हैं, ताकि जलवायु परिवर्तन से प्रभावी ढंग से निपटा जा सके।

सुनीता नारायण का कहना है, भविष्य की पर्यावरण अनुकूल अर्थव्यवस्था, पुरानी आर्थिक असमानताओं की नकल नहीं होनी चाहिए। ग्लोबल साउथ को केवल ‘हरा’ नहीं, बल्कि ‘न्यायपूर्ण और मजबूत’ भविष्य चाहिए, जहां जलवायु कार्रवाई और विकास साथ-साथ चलें।"

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