थाली पर मंडराता संकट: 2 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि से 52 फीसदी खेतों में घट जाएगी विविधता

आशंका है कि वैश्विक तापमान में दो डिग्री सेल्सियस की वृद्धि के साथ 52 फीसदी कृषि भूमि पर फसलों की विविधता में गिरावट आ सकती है
भीषण गर्मी में अपनी तैयार पैदावार को संजोते किसान; फोटो: आईस्टॉक
भीषण गर्मी में अपनी तैयार पैदावार को संजोते किसान; फोटो: आईस्टॉक
Published on

जलवायु परिवर्तन अब दूर की कौड़ी नहीं रह गया है, यह एक ऐसी कड़वी सच्चाई है जो आपकी-हमारी रोजमर्रा की जिंदगी को प्रभावित कर रही है। खेती-किसानी भी इससे अलग नहीं है।

इस बारे में किए एक नए अध्ययन से पता चला है कि यदि वैश्विक तापमान डेढ़ डिग्री सेल्सियस से ज्यादा की वृद्धि होती है तो दुनिया में खाद्य सुरक्षा पर संकट गहरा सकता है, क्योंकि इसके चलते फसलों की विविधता में भारी गिरावट आ सकती है।

अंतराष्ट्रीय जर्नल नेचर फूड में प्रकाशित इस अध्ययन के मुताबिक वैश्विक तापमान में दो डिग्री सेल्सियस की वृद्धि के साथ 52 फीसदी कृषि भूमि पर फसलों की विविधता में गिरावट आ सकती है। वहीं तापमान में तीन डिग्री सेल्सियस के इजाफे के साथ यह आंकड़ा बढ़कर 56 फीसदी पर पहुंच जाएगा। मतलब कि बढ़ते तापमान के साथ हमारी थाली में परोसी जाने वाली कई दाल-सब्जियां गायब हो सकती हैं।

अध्ययन में फसलों की विविधता में कमी के मामले में सबसे बड़ी गिरावट भूमध्य रेखा के आसपास देखी गई, जैसे कि उप-सहारा अफ्रीका और दक्षिण एशिया में, जहां यदि वैश्विक तापमान दो डिग्री सेल्सियस से अधिक बढ़ता है, तो मौजूदा कृषि भूमि के 70 फीसदी से अधिक हिस्से पर फसलों की विविधता में कमी आ सकती है।

यह भी पढ़ें
जलवायु परिवर्तन के चलते दुनिया के एक तिहाई खाद्य उत्पादन पर मंडरा रहा है संकट
भीषण गर्मी में अपनी तैयार पैदावार को संजोते किसान; फोटो: आईस्टॉक

इस बात को लेकर भी चिंता जताई गई है कि अगर तापमान इसी तरह बढ़ता रहा, तो दुनिया का एक-तिहाई खाद्य उत्पादन संकट में आ सकता है।

यह अध्ययन फिनलैंड की आल्टो यूनिवर्सिटी, जर्मनी के गौटिंगेन विश्वविद्यालय, और स्विट्जरलैंड के ज्यूरिख विश्वविद्यालय से जुड़े शोधकर्ताओं द्वारा किया गया है। अपने इस शोध में वैज्ञानिकों ने डेढ़ से चार डिग्री सेल्सियस की वृद्धि के चार अलग-अलग जलवायु परिदृश्यों में 30 प्रमुख फसलों का अध्ययन किया है।

इस दौरान उन्होंने फसलों पर तापमान, बारिश और सूखा जैसी मौसमी परिस्थितियों के प्रभावों का अध्ययन किया है। अध्ययन में इस बात की सटीक तस्वीर प्रस्तुत की गई है कि तापमान में होने वाली वृद्धि हमारी खाद्य उत्पादन क्षमता को कहां और कैसे प्रभावित करेगी।

अध्ययन के जो निष्कर्ष सामने आए हैं उनके मुताबिक निम्न अक्षांश वाले क्षेत्र, मध्य और उच्च अक्षांश क्षेत्रों की तुलना में कहीं ज्यादा प्रभावित होंगें। इनमें उष्णकटिबंधीय क्षेत्र के बड़े हिस्से शामिल हैं। आशंका है कि तापमान में वृद्धि के साथ-साथ इन क्षेत्रों में कृषि के लिए उपयुक्त जमीन में गिरावट आ जाएगी और उगने वाली फसलों की विविधता तेजी से घट जाएगी।

यह भी पढ़ें
जलवायु परिवर्तन से पौधों के अंकुरण में हो रहा बदलाव, बिगड़ रहा पारिस्थितिकी तंत्र का संतुलन
भीषण गर्मी में अपनी तैयार पैदावार को संजोते किसान; फोटो: आईस्टॉक

घट जाएगी फसलों के अनुकूल जमीन

शोधकर्ताओं के अनुसार वैश्विक तापमान में दो डिग्री सेल्सियस से ज्यादा वृद्धि के साथ कृषि योग्य जमीन का बड़ा हिस्सा ऐसे जलवायु हालातों में चला जाएगा जो पहले कभी नहीं देखे गए थे। ऐसे में भूमध्यरेखा के पास स्थित देशों जैसे भारत, अफ्रीकी और दक्षिण अन्य एशियाई देश को सबसे ज्यादा नुकसान होगा।

आशंका है कि वैश्विक तापमान दो डिग्री सेल्सियस की वृद्धि के साथ निम्न अक्षांश क्षेत्रों में मौजूदा 10 से 31 फीसदी कृषि उत्पादन ऐसे इलाकों में शिफ्ट हो जाएगा, जहां का मौसम इन फसलों के अनुकूल नहीं होगा। वहीं अगर तापमान तीन डिग्री सेल्सियस तक बढ़ता है, तो यह बढ़कर 20 से 48 फीसदी तक पहुंच सकता है।

वहीं अगर तापमान में होती वृद्धि तीन डिग्री सेल्सियस को पार कर जाती है तो उप-सहारा अफ्रीका में तीन-चौथाई तक फसल उत्पादन प्रभावित हो सकता है। इसका असर खासतौर पर धान, मक्का, गेहूं, आलू और सोयाबीन जैसी फसलों पर पड़ेगा, जो दुनिया की दो-तिहाई खाद्य जरूरतों को पूरी करती हैं।

शोधकर्ताओं के मुताबिक इन क्षेत्रों में न केवल उत्पादन में गिरावट आएगी साथ ही फसलों की विविधता भी घट जाएगी। इसकी वजह से लोगों के लिए आवश्यक पोषण पहुंच से दूर हो सकता है। अध्ययन से जुड़ी प्रमुख शोधकर्ता सारा हेइकोनेन के मुताबिक अगर खाद्यान्न फसलों की किस्में घट जाएं, तो कैलोरी और प्रोटीन की मात्रा पूरी करना मुश्किल हो जाएगा।

अध्ययन में इस बात पर भी प्रकाश डाला गया है कि तापमान में वृद्धि के साथ दुनिया में कृषि भूमि घट जाएगी। मतलब की कई क्षेत्रों में जमीन खेती लायक नहीं रह जाएगी। खासकर धान, मक्का, गेहूं, आलू और सोयाबीन जैसी प्रमुख फसलों के मामले में ऐसा देखने को मिल सकता है। यह फसलें दुनिया के खाने की जरूरत के दो तिहाई हिस्से को पूरा करती हैं।

इसके अलावा, उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों की कंद फसलें—जैसे याम—जो कम आय वाले क्षेत्रों में भोजन का मुख्य आधार हैं, विशेष रूप से खतरे में होंगी। अनाज और दालों की फसलें भी इस बदलाव से बुरी तरह प्रभावित हो सकती हैं। उप-सहारा अफ्रीका, जो इन परिवर्तनों से सबसे ज्यादा प्रभावित होगा, वहां यदि वैश्विक तापमान तीन डिग्री सेल्सियस से अधिक बढ़ता है, तो मौजूदा उत्पादन का करीब तीन-चौथाई हिस्सा खतरे में पड़ जाएगा।

यह भी पढ़ें
गरीबी घटाने के लक्ष्य को चुनौतीपूर्ण बना देगा जलवायु परिवर्तन
भीषण गर्मी में अपनी तैयार पैदावार को संजोते किसान; फोटो: आईस्टॉक

इसके विपरीत मध्य और उच्च अक्षांश वाले क्षेत्रों जैसे यूरोप और अमेरिका को कम नुकसान झेलना पड़ेगा। उम्मीद है कि इन क्षेत्रों में फसलों की विविधता बढ़ सकती है। इसकी वजह से कुछ क्षेत्रों में फल-सब्जियों की नई किस्में उगाना भी संभव हो सकता है।

हालांकि अध्ययन से जुड़े शोधकर्ता प्रोफेसर मैट्टी कुम्मु ने प्रेस विज्ञप्ति में चेताते हुए कहा कि यह सब इतना आसान भी नहीं। नई जलवायु में कीटों और चरम मौसमी आपदाओं का खतरा भी बढ़ सकता है।

क्या हैं किसानों के पास विकल्प

ऐसे में मध्य और उच्च अक्षांश वाले क्षेत्रों में किसानों और नीति-निर्माताओं को लचीलापन अपनाना होगा। भले ही तापमान बढ़ने से कुछ नई फसलों की खेती के मौके मिलें, लेकिन वैश्विक मांग और बाजार की ताकतें यह तय करेंगी कि किसान असल में क्या उगाएंगे। ऐसे में इन बदलावों के लिए खुद को तैयार करने के लिए जरूरी होगा कि किसान फसलों की नई किस्मों को आजमाएं, बुवाई के समय में बदलाव करें और ऐसी सुविधाओं में निवेश करें जो मौसम की मार और कीटों से निपटने में मदद कर सकें।

गौरतलब है कि अफ्रीका जैसे निम्न अक्षांश वाले क्षेत्र पहले ही खाद्य असुरक्षा, गरीबी और संसाधनों की कमी जैसी समस्याओं से जूझ रहे हैं। लेकिन शोधकर्ताओं को उम्मीद है कि इन क्षेत्रों में अगर उर्वरक, सिंचाई और भंडारण की बेहतर व्यवस्था की जाए, तो उत्पादन को बढ़ाया जा सकता है।

सारा का कहना है यदि भविष्य में खाद्य व्यवस्था को सुरक्षित रखना है तो हमें जलवायु परिवर्तन को रोकने के साथ-साथ उसके असर के अनुसार खुद को ढालना भी होगा। उनके मुताबिक इसका असर चाहे कहीं भी हो, लेकिन वैश्विक खाद्य तंत्र से जुड़े होने के कारण उसका असर हम सभी तक पहुंचेगा।

इसका मतलब है कि दुनिया के किसी एक हिस्से में फसलें बर्बाद होने से उसका असर पूरी आपूर्ति श्रृंखला पर पड़ सकता है। नतीजन खाद्य कीमतें बढ़ सकती हैं और कई जगहों पर भोजन की उपलब्धता घट सकती है। ऐसे में हमें मिलकर काम करने की आवश्यकता है।

हालांकि, शोधकर्ताओं के मुताबिक लगातार बढ़ते तापमान के चलते इन उपायों पर भी अनिश्चितता के बादल मंडराते रहेंगें।

ऐसे में फसलों के चयन और नई किस्मों को बोए जाने जैसे अतिरिक्त कदम उठाने की जरूरत पड़ेगी। रिपोर्ट बताती है कि खासकर गर्म जलवायु वाले देशों में नीति-निर्माताओं को कृषि ढांचे की कमियों को दूर करने के रास्ते खोजने होंगे और साथ ही बदलती जलवायु के कठिन हालातों के लिए भी तैयार रहना होगा।

अगर ऐसा नहीं हुआ, तो जो समुदायों पहले ही खाने की कमी से जूझ रहे हैं, उनके लिए आने वाले साल और मुश्किल हो सकते हैं।

Related Stories

No stories found.
Down to Earth- Hindi
hindi.downtoearth.org.in