बातों, वादों पर जोर, उम्मीदों पर खरी नहीं रही कॉप-30 वार्ता: सीएसई

कॉप-30 में घोषणाएं हुईं, रोडमैप बने, लेकिन वास्तविक जवाबदेही और ठोस कदम की कमी ने एक बार फिर विश्वसनीयता पर सवाल खड़े कर दिए
विनाश की राह पर मानवता; प्रतीकात्मक तस्वीर: आईस्टॉक
विनाश की राह पर मानवता; प्रतीकात्मक तस्वीर: आईस्टॉक
Published on
सारांश
  • ब्राजील के बेलेम में आयोजित कॉप-30 सम्मेलन से दुनिया को बड़ी उम्मीदें थीं, लेकिन यह महज बातों और वादों की कॉप बनकर रह गई।

  • सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट के अनुसार, इस बैठक में न्यायसंगत बदलाव और अनुकूलन वित्त पर कुछ वादे किए गए, लेकिन फॉसिल फ्यूल्स पर कोई स्पष्ट निर्णय नहीं लिया गया, जिससे दुनिया को निराशा हुई।

ब्राजील के बेलेम में आयोजित संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन (कॉप-30) से दुनिया को बड़ी उम्मीदें थी, लेकिन परिणाम उम्मीदों पर खरे नहीं उतरे, इसके नतीजों ने दुनिया को निराश किया है।

सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट की उस टीम का जो इस बैठक पर लगातार नजर बनाए हुए थी, उसका कहना है दुनिया को उम्मीद थी यह कॉप सच बोलने और कड़े कदम उठाने वाला मोड़ साबित होगी, लेकिन इस बार भी यह बैठक महज बातों और वादों की कॉप बनकर रह गई। इस दौरान जहां वार्ताओं का लम्बा दौर चला लेकिन नतीजों के नाम पर, कुछ संवाद, कुछ वादे और एक एक अस्पष्ट-सा तंत्र…बस इतना ही सामने आया।

क्या हुआ हासिल?

22 नवंबर को ब्राजील की कॉप-30 अध्यक्षता ने ‘बेलेम पॉलिटिकल पैकेज’ जारी किया। इसमें तीन मुख्य बातें शामिल की गई, पहला न्यायसंगत बदलाव (जस्ट ट्रांजिशन) के लिए अंतरराष्ट्रीय सहयोग तंत्र, दूसरा अनुकूलन के लिए वित्त (एडाप्टेशन फाइनेंस) को 2035 तक तीन गुना बढ़ाने का वादा, और तीसरा पेरिस समझौते के अनुच्छेद 9 के तहत वित्त प्रवाह की जांच के लिए नए कार्यक्रम को मंजूरी।

लेकिन सबसे बड़ा सवाल बना रहा फॉसिल फ्यूल्स, क्योंकि इस पर कोई स्पष्ट निर्णय नहीं लिया गया। हालांकि इसके बदले ब्राजील ने औपचारिक प्रक्रिया के बाहर दो अलग रोडमैप प्रस्तुत किए। इसी तरह वन विनाश के मुद्दे पर भी चर्चाएं कॉप की औपचारिक प्रक्रिया के बाहर हुईं।

यह भी पढ़ें
कॉप-30: ऊर्जा ढांचे में बदलाव का संकल्प, अरबों डॉलर के वैश्विक निवेश का ऐलान
विनाश की राह पर मानवता; प्रतीकात्मक तस्वीर: आईस्टॉक

जस्ट ट्रांजिशन—जीत भी, चिंता भी

सीएसई में क्लाइमेट प्रोग्राम टीम की मैनेजर अवंतिका गोस्वामी का कहना है, भले ही जस्ट ट्रांजिशन पर बना यह नया तंत्र, विकासशील देशों और समाज की जीत है, क्योंकि वे लोग लम्बे समय से इसकी मांग कर रहे थे। इसका उद्देश्य न्यायपूर्ण बदलाव के लिए अंतरराष्ट्रीय सहयोग, तकनीकी मदद, ज्ञान साझा करने और क्षमता बढ़ाने को मजबूत करना है।

लेकिन इसकी समयसीमा, तकनीकी भूमिका और अनुकूलन वित्त (एडाप्टेशन फाइनेंस) अब भी अस्पष्ट और कमजोर है। यह इस तंत्र की सफलता को लेकर सवाल खड़ा करता है।

जी77 और चीन समूह ने इस बार साफ तौर पर अपनी सामूहिक ताकत का प्रदर्शन किया और अपनी प्राथमिकताओं को केंद्र में रखा। लेकिन विकसित देशों ने बार-बार चर्चा को भटकाने की कोशिश की, जैसे बड़े विकासशील देशों पर ‘महत्वाकांक्षा रोकने’ का आरोप लगाना और विकासशील देशों को आपस में बांटने की कोशिशें करना।

गोस्वामी का कहना है, इससे कॉप प्रक्रिया की विश्वसनीयता पर बड़ा सवाल उठ खड़ा हुआ है। अब यह साफ नहीं है कि यह प्रक्रिया किसके हित में काम कर रही है और क्या यह अपने उद्देश्य पर खरी भी उतर पा रही है।

पेरिस समझौते की कमजोरियां अब खुलकर सामने

गोस्वामी के मुताबिक पेरिस समझौते ने जलवायु कार्रवाई की दिशा ही बदल दी। इस समझौते ने क्योटो प्रोटोकॉल की तरह देशों पर ऊपर से लक्ष्य थोपने के बजाय, स्वैच्छिक वादों पर जोर दिया और विकसित-विकासशील देशों के बीच का फर्क कम कर दिया।

अब इस ढांचे की खामियां सामने आ रही हैं, इसके चलते विकसित देश तो जीवाश्म ईंधन का उत्पादन और इस्तेमाल जारी रखकर भी जवाबदेही से बच जाते हैं, जबकि दोष दक्षिण की तेजी से उभरती अर्थव्यवस्थाओं पर मढ़ दिया जाता है। गौरतलब है कि पेरिस समझौते में देशों को अपनी मर्जी से लक्ष्य तय करने की छूट दी गई है।

यह भी पढ़ें
भारत पेश करेगा नए संशोधित जलवायु लक्ष्य: कॉप-30 में भूपेंद्र यादव का ऐलान
विनाश की राह पर मानवता; प्रतीकात्मक तस्वीर: आईस्टॉक

विशेषज्ञों के मुताबिक ऐसे समय में जब चीन दुनिया का सबसे बड़ा स्वच्छ तकनीकी कार्यक्रम चला रहा है और भारत लगातार अक्षय ऊर्जा को बढ़ा रहा है, तब विकासशील देशों को ‘रोड़ा’ बताने की यह कहानी झूठी और बांटने वाली लगती है। ऐसी बंटी और टकराव भरी स्थिति में सहमति और सहयोग की गुंजाइश बहुत कम रह जाती है, जबकि हमारी तेजी से गर्म होती दुनिया को इनकी सबसे ज्यादा जरूरत है।

देखा जाए तो इस समय विकसित देशों को अपनी वित्तीय जिम्मेदारियां निभाकर मौजूदा राष्ट्रीय जलवायु प्रतिबद्धताओं (एनडीसी) को लागू करने में मदद करनी चाहिए थी। लेकिन इसके बजाय, विकसित देश खुद को ‘क्लाइमेट लीडर’ दिखाने में लगे रहे, जबकि उनके अपने खुद के एनडीसी बेहद कमजोर हैं। इसके साथ ही बातचीत में अब भी विकसित देशों और उनकी मीडिया की सामूहिक ताकत हावी दिखाई देती है।

एडॉप्टेशन: कागज पर होती प्रगति

वैश्विक अनुकूलन लक्ष्य के लिए संकेतकों की सूची तो अपनाई गई है, लेकिन निर्णय पर गंभीर चिंताएं बनी हुई हैं। लेकिन उन्हें लागू करने और प्रभावी बनाने के लिए वित्त और साधन तय नहीं किए गए। साथ ही क्रियान्वयन के उपायों की भी कमी है। वार्ता में कुछ महत्वपूर्ण बदलाव बहुत देर से पेश किए गए, जिससे उनकी समीक्षा या चर्चा का समय कम रह गया। देखा जाए तो कागजों पर यह ढांचा तो आगे बढ़ा है, लेकिन धरातल पर कमजोर दिख रहा है।

सीएसई के त्रिशांत देव ने कहा, “संकेतक तभी मायने रखते हैं जब विकासशील देशों को उन्हें पूरा करने के लिए सहायता मिले।“

यदि विकासशील देशों के लिए उन्हें लागू करने के उपाय नहीं हैं, तो वैश्विक अनुकूलन लक्ष्य केवल उम्मीदें तय करता है, लेकिन उन्हें पूरा करने का तरीका नहीं देता। अनुकूलन वित्त को 2035 तक तीन गुणा करने की घोषणा भी कमजोर मानी गई क्योंकि इसमें यह स्पष्ट नहीं कि पैसा कौन देगा और किस आधार पर लिया जाएगा।

वित्त: जवाबदेही से बचते विकसित देश

विकासशील देशों ने कॉप-29 की वित्तीय विफलता को सुधारने का लक्ष्य लेकर कॉप-30 में प्रवेश किया। लेकिन उनकी प्रमुख मांगें, जैसे सार्वजनिक वित्त की जवाबदेही तय करना बार-बार रोकी गईं। उनका प्रयास, अनुच्छेद 9.1 को एजेंडे में शामिल कराने का, विफल रहा। इसके बजाय, उन्हें अनुच्छेद 9 पर दो साल का कमजोर कार्य कार्यक्रम सौंपा गया, जिसमें एक नोट शामिल है जो इसे कॉप 29 में अपनाए गए नए सामूहिक वित्त लक्ष्य से अलग कर देता है।

यह भी पढ़ें
वित्त-व्यापार की तकरार में फंसा कॉप-30, पहले सप्ताह अहम मुद्दों पर नहीं बन सकी आम सहमति
विनाश की राह पर मानवता; प्रतीकात्मक तस्वीर: आईस्टॉक

जवाबदेही को एक और झटका तब लगा। जब अनुच्छेद 9.5 के तहत अहम पारदर्शिता प्रावधान हटा दिए गए। सीएसई की सेहर रहेजा के अनुसार, “हर क्षेत्र में विकासशील देशों ने मजबूत जवाबदेही, वित्तीय वितरण की छोटी समयसीमा और सार्वजनिक वित्त पर ध्यान देने की मांग की, लेकिन कोई खास सहमति नहीं बन पाई। कॉप 30 में मुख्य वित्त एजेंडा न होने के बावजूद, बाकू वित्त परिणाम से पैदा हुआ अविश्वास स्पष्ट रूप से दिखा।”

फॉसिल फ्यूल विवाद ने बढ़ाई गर्मी

जीवाश्म ईंधन पर आधिकारिक एजेंडा नहीं था, फिर भी दूसरे सप्ताह अचानक रोडमैप टू ट्रांजिशन अवे फ्रॉम फॉसिल फ्यूल्स (टीएएफएफ) सामने आया, जिसका कुछ विकसित और विकासशील देशों ने समर्थन किया। जल्द ही यह कॉप में चर्चा का मुख्य विषय बन गया। इसने अनुकूलन और न्यायपूर्ण बदलाव पर होने वाली आधिकारिक बातचीत को पीछे कर दिया।

हालांकि, अधिकांश विकासशील देशों ने कहा कि वित्तीय प्रावधान के बिना तय किए गए इस रोडमैप को स्वीकार नहीं किया जा सकता, और अंततः इसे अंतिम दस्तावेज से हटा दिया गया।

तनाव तब चरम पर पहुंच गया जब कोलंबिया ने समापन सत्र में जीवाश्म ईंधन को चरणबद्ध तरीके से खत्म करने की महत्वाकांक्षा में कमी पर आपत्ति जताई। अध्यक्ष ने कोलंबिया के अप्रैल 2026 सम्मेलन से जुड़े एक समानांतर, बिना बातचीत वाले रोडमैप प्रक्रिया की घोषणा की, जो मध्य मार्ग का नतीजा बनी।

गोस्वामी के मुताबिक, “कॉरिडोर में यह साफ था कि यूरोपियन यूनियन और उसके सहयोगी देशों ने अनुकूलन के लिए पैसे को रोक रखा था और जब भी पैसा या जवाबदेही पर सवाल उठता, वे नियम बदल देते थे। टीएएफएफ महत्वपूर्ण है, लेकिन इसे औपचारिक अनुकूलन और न्यायपूर्ण बदलाव की बातचीत को पीछे करने के लिए इस्तेमाल करना यह दिखाता है कि जी77 के महीनों के काम को कमजोर करने की नीयत थी।“

व्यापार बनाम जलवायु: नया तनाव

एकतरफा व्यापार उपाय, जैसे यूरोपियन यूनियन का कार्बन बॉर्डर एडजस्टमेंट मैकेनिज्म (सीबीएएम) भी बैठक में बड़ा मुद्दा रहा। भारत सहित कई देशों ने चेतावनी दी कि ये कदम “महत्वाकांक्षा बढ़ाने के लिए नहीं, बल्कि विकासशील देशों की अर्थव्यवस्थाओं पर बोझ बढ़ाने वाले हैं।“

हालांकि इसे औपचारिक एजेंडा नहीं बनाया गया, लेकिन अगले तीन वर्षों में इस पर औपचारिक संवाद जारी रहेंगे। विशेषज्ञों के अनुसार चर्चा का उद्देश्य “अंतरराष्ट्रीय सहयोग बढ़ाने में व्यापार की भूमिका से जुड़े अवसर, चुनौतियों और बाधाओं पर विचार करना” होगा, जोकि इस मुद्दे को महत्वपूर्ण दर्जा देता है।

देखा जाए तो हमारी दुनिया तेजी से गर्म हो रही है, लेकिन कॉप-30 में ठोस कदम और जवाबदेही ठंडी पड़ती दिखी। हालांकि बेलेम में कुछ घोषणाएं और ढांचे जरूर बने, लेकिन वास्तविक कार्रवाई और वित्तीय समर्थन की कमी सबके सामने है। समय के साथ जलवायु संकट हर साल गहराता जा रहा है, फिर भी दुनिया की सबसे बड़ी जलवायु बैठक अविश्वास, टूटी जिम्मेदारियों और कमजोर फैसलों के बोझ से जूझ रही है।

Related Stories

No stories found.
Down to Earth- Hindi
hindi.downtoearth.org.in