जलवायु संकट: उज्बेकिस्तान में वैश्विक औसत से तीन गुणा तेजी से बढ़ा तापमान, गहरा रहा जल संकट

संयुक्त राष्ट्र द्वारा जारी नई एटलस से पता चला है कि पिछले छह दशकों में उज्बेकिस्तान का औसत तापमान 1.6 डिग्री सेल्सियस बढ़ चुका है, जोकि वैश्विक औसत से करीब तीन गुणा है
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सारांश
  • उज्बेकिस्तान में जलवायु परिवर्तन के कारण तापमान वैश्विक औसत से तीन गुणा तेजी से बढ़ा है, जिससे जल संकट गहराता जा रहा है।

  • पिछले 60 वर्षों में औसत तापमान 1.6 डिग्री सेल्सियस बढ़ा है। सूखा, कम बारिश और चरागाहों की घटती उत्पादकता ने स्थिति को और गंभीर बना दिया है।

  • चिंता की बात है कि अरल सागर क्षेत्र में यह बढ़ोतरी 1.8 डिग्री सेल्सियस से 2.5 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच गई है, जो आने वाले संकट का स्पष्ट संकेत है।

  • आशंका है कि बेहद गर्म और सूखे वर्षों में नदी घाटियों में जल प्रवाह 25 से 50 फीसदी तक घट सकता है, जिससे सिंचाई पर मंडराता संकट और गहरा जाएगा।

  • एटलस में इस बात पर भी प्रकाश डाला है कि देश के 60 फीसदी चरागाहों की उत्पादकता गिर रही है।

उज्बेकिस्तान में बढ़ता तापमान अब महज एक आंकड़ा नहीं, बल्कि लोगों के जीवन की कड़वी सचाई बन चुका है। इस देश में जलवायु परिवर्तन का असर किस कदर गंभीर हो चुका है इसी बात से समझा जा सकता है कि पिछले छह दशकों में यहां तापमान वैश्विक औसत से तीन गुणा तेजी से बढ़ा है, और इसका असर सूखे, पानी की कमी और बर्बाद होते चरागाहों के रूप में हर जगह दिखाई दे रहा है।

संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) द्वारा जारी ‘एटलस ऑफ एनवायरनमेंटल चेंज ऑफ द रिपब्लिक ऑफ उज्बेकिस्तान’ के मुताबिक पिछले 60 वर्षों में देश का औसत तापमान 1.6 डिग्री सेल्सियस बढ़ चुका है, जोकि वैश्विक औसत से करीब तीन गुणा है।

चिंता की बात है कि अरल सागर क्षेत्र में यह बढ़ोतरी 1.8 डिग्री सेल्सियस से 2.5 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच गई है, जो आने वाले संकट का स्पष्ट संकेत है।

लगातार सूखा, बेहद कम बारिश और बढ़ता जल संकट

एटलस के मुताबिक उज्बेकिस्तान के निचले मैदानी इलाकों में बेहद कम बारिश होती है और करीब-करीब पूरा देश गंभीर जल-संकट से जूझ रहा है। यही वजह है कि उज्बेकिस्तान को दुनिया के 20 सबसे सूखा-प्रभावित देशों में गिना जाता है।

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रिपोर्ट ने चेताया है कि आने वाले वर्षों में जलवायु परिवर्तन इस जल संकट को और बढ़ा देगा। स्थिति इतनी नाजुक है कि 2050 तक ग्लेशियरों का पिघलना बुरी तरह प्रभावित होगा, जिससे बांधों और जलाशयों तक पहुंचने वाला पानी कम हो जाएगा। आशंका है कि बेहद गर्म और सूखे वर्षों में नदी घाटियों में जल प्रवाह 25 से 50 फीसदी तक घट सकता है, जिससे सिंचाई पर मंडराता संकट और गहरा जाएगा।

हालांकि साथ ही एटलस में इस बात की भी उम्मीद जताई है कि बेहतर स्थानीय प्रशासन, सीमा पार सहयोग बढ़ाने और एकीकृत जल संसाधन प्रबंधन जैसी नीतियां जल संकट का समाधान खोजने में मददगार साबित हो सकती हैं। यूएनईपी यूरोप कार्यालय के निदेशक, आर्नोल्ड क्रेइलहुबर का प्रेस विज्ञप्ति में कहना है, “उज्बेकिस्तान गंभीर जल संकट, भूमि क्षरण और तेजी से बढ़ते तापमान से जूझ रहा है।“

चरागाहों की स्थिति खराब, 60 फीसदी क्षेत्रों में घटी उत्पादकता

एटलस में इस बात पर भी प्रकाश डाला है कि देश के 60 फीसदी चरागाहों की उत्पादकता गिर रही है। ऐसे में रिपोर्ट जोर देती है कि इन चरागाहों को बचाने के लिए बेहतर प्रबंधन और पर्यावरण अनुकूल चराई प्रथाओं को बढ़ावा देना बेहद जरूरी है। इसके लिए ऐसी पद्धतियां अपनाना जरूरी हैं जो इन जमीनों की सेहत को बनाए रखें।

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दुष्काल के बीच भी बढ़ रहे जंगल

राहत की खबर यह है कि सीमित वन संसाधनों के बावजूद, उज्बेकिस्तान ने पिछले कुछ दशकों में अपना वन क्षेत्र 20 फीसदी से अधिक बढ़ाया है। यहां तक कि गंभीर सूखों के बीच भी इनमें इजाफा दर्ज किया गया है। 2021 में शुरू की गई ‘यशिल मकॉन’ (ग्रीन स्पेस) परियोजना के तहत 2021 से अब तक एक अरब पेड़ लगाने का लक्ष्य रखा गया है।

इसका मकसद शहरी हरियाली को 7.6 फीसदी से बढ़ाकर 30 फीसदी तक करना है। साथ ही जैव विविधता व जलवायु अनुकूलन को मजबूत बनाना है।

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रिपोर्ट में यह भी सामने आया है कि प्राकृतिक आपदाओं से देश में हर साल औसतन 9.2 करोड़ अमेरिकी डॉलर का नुकसान हो रहा है, जो जीडीपी का करीब 0.2 फीसदी है। उज्बेकिस्तान भूकंपीय जोखिम के मामले में दुनिया में दूसरे स्थान पर है। देश में एक मजबूत वैज्ञानिक केंद्र मौजूद है, जो प्रभावी निगरानी और जोखिम मूल्यांकन के लिए ठोस आधार प्रदान करता है।

रिपोर्ट साफ संकेत देती है कि उज्बेकिस्तान को जलवायु संकट से निपटने के लिए तेज़ और मजबूत कदम उठाने होंगे, वरना आने वाले दशकों में पानी, कृषि, जीविका और जीवन, सब पर गहरा असर पड़ेगा।

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