जलवायु संकट: हिमालय और इंडो-बर्मा में औषधीय पौधे विलुप्ति की कगार पर

पूर्वी हिमालय और इंडो-बर्मा में जलवायु परिवर्तन से औषधीय पौधों, पारंपरिक ज्ञान और स्थानीय जीवन पर पड़ते प्रभाव का अध्ययन
जलवायु परिवर्तन से औषधीय पौधों के आवास और वितरण में बदलाव, उच्च तापमान और बारिश में बदलाव से जोखिम बढ़ा।
जलवायु परिवर्तन से औषधीय पौधों के आवास और वितरण में बदलाव, उच्च तापमान और बारिश में बदलाव से जोखिम बढ़ा।फोटो साभार: आईस्टॉक
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सारांश
  • जलवायु परिवर्तन से औषधीय पौधों के आवास और वितरण में बदलाव, उच्च तापमान और बारिश में बदलाव से जोखिम बढ़ा।

  • स्थानीय समुदायों की पारंपरिक चिकित्सा और ज्ञान प्रणाली प्रभावित हो रही हैं, नई पीढ़ियां इन प्रथाओं से कट सकती हैं।

  • कुछ जड़ें (रहिजोम्स) और महत्वपूर्ण औषधीय पौधे विलुप्त होने के कगार पर हैं, जिससे स्वास्थ्य और आजीविका खतरे में।

  • स्थानीय लोगों की सहभागिता और निगरानी आवश्यक है, ताकि वैज्ञानिक दृष्टिकोण और पारंपरिक ज्ञान मिलकर पौधों की रक्षा कर सकें।

  • वैश्विक सहयोग और संरक्षण रणनीतियां आवश्यक हैं, ताकि जैव विविधता, सांस्कृतिक धरोहर और स्थानीय समुदायों की सुरक्षा सुनिश्चित हो।

आज हमारा मौसम और पर्यावरण तेजी से बदल रहा है। इसे हम जलवायु परिवर्तन कहते हैं। यह सिर्फ मौसम पर असर नहीं डाल रहा, बल्कि हमारे जंगल, पौधे और जीव-जंतु भी बदल रहे हैं। भारत के पूर्वी हिमालय और भारत-बर्मा के जंगल बहुत खास हैं।

यहां के पौधे और जानवर बहुत अलग औरअनोखे हैं। यही नहीं, यहां के स्थानीय लोग इन जंगलों के औषधीय पौधों पर अपने इलाज और दवाइयों के लिए भरोसा करते हैं, लेकिन अब यह भरोसा खतरे में है।

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जलवायु परिवर्तन का औषधीय पौधों पर असर

शोधकर्ताओं ने इस क्षेत्र के औषधीय पौधों पर जलवायु परिवर्तन के असर का अध्ययन किया। उन्होंने पाया कि बढ़ता तापमान, कम या ज्यादा बारिश और बदलते मौसम ने इन पौधों के रहने की जगह को बदल दिया है। कुछ पौधे अब ऊंचे पहाड़ों की तरफ जा रहे हैं, जबकि कुछ ऐसे हैं जो बदलते मौसम के साथ तालमेल नहीं बैठा पा रहे और उनके खत्म होने का डर है।

स्थानीय लोगों पर असर

स्थानीय लोगों के लिए इसका मतलब बहुत बड़ा है। अगर औषधीय पौधे खत्म हो गए, तो उनके पास इलाज के लिए प्राकृतिक दवाइयां नहीं रहेंगी। इसके साथ ही पारंपरिक ज्ञान भी धीरे-धीरे खो जाएगा, क्योंकि नई पीढ़ियां इन पौधों और उनके उपयोग के बारे में सीखने का मौका नहीं पाएंगी।

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उदाहरण के तौर पर, कुछ खास जड़ें जैसे रहिजोम्स हैं जो पाचन और त्वचा के रोग में काम आती हैं। शोध में देखा गया कि अब ये जड़ें कम मिलने लगी हैं। अगर तापमान बढ़ता रहा, तो कई जगहें अब इन पौधों के लिए अनुकूल नहीं रहेंगी। इसका असर केवल स्वास्थ्य पर नहीं, बल्कि स्थानीय वैद्य और उनके परिवार की आमदनी पर भी पड़ेगा

समाधान: स्थानीय सहभागिता और संरक्षण

शोध पत्र में शोधकर्ता के हवाले से कहा गया है कि इस समस्या का समाधान सिर्फ जंगलों को बचाने में नहीं है। स्थानीय लोगों को भी इसमें शामिल करना जरूरी है। अगर लोग पौधों की संख्या और मौसम के बदलाव पर नजर रखें, तो वैज्ञानिकों के साथ मिलकर इन पौधों की रक्षा की जा सकती है। इससे न केवल पौधे बचेंगे, बल्कि पारंपरिक इलाज की कला भी बनी रहेगी।

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आर्थिक और सामाजिक असर

जलवायु परिवर्तन का असर केवल स्वास्थ्य पर नहीं है। जब औषधीय पौधे कम हो जाते हैं, तो वैद्य अब इन्हें दूर-दूर से लाने पर मजबूर हो जाते हैं। इससे खर्च बढ़ता है और स्थानीय अर्थव्यवस्था कमजोर होती है। इसलिए यह केवल पर्यावरण की समस्या नहीं, बल्कि हमारी रोजमर्रा की जिंदगी और आजीविका की भी चुनौती है।

वैश्विक नजरिया और सहयोग

वैश्विक स्तर पर भी इन जंगलों और पौधों की रक्षा के लिए कदम उठाना जरूरी है। अंतरराष्ट्रीय सहयोग से फंड और संसाधन मिल सकते हैं, जिनसे स्थानीय समुदायों को मदद मिलती है और औषधीय पौधों का संरक्षण आसान होता है।

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डिस्कवर प्लांट्स नामक पत्रिका में प्रकाशित शोध में कहा गया है कि औषधीय पौधों और उनके ज्ञान की रक्षा करना हमारी जिम्मेदारी है। अगर हम स्थानीय ज्ञान और वैज्ञानिक तरीकों को मिलाकर काम करें, तो पौधों को बचाया जा सकता है और स्वास्थ्य और सांस्कृतिक धरोहर भी सुरक्षित रह सकती है।

इस शोध का सबसे बड़ा संदेश यह है कि हम प्रकृति के साथ जुड़े हुए हैं। अगर हमने अभी कदम नहीं उठाए, तो आने वाली पीढ़ियों के लिए ये अमूल्य संसाधन खो सकते हैं। वैज्ञानिक, नीति निर्माता और स्थानीय लोग मिलकर ही एक स्थायी और सुरक्षित भविष्य की ओर बढ़ सकते हैं।

इस तरह, हिमालय और भारत -बर्मा के औषधीय पौधों की सुरक्षा सिर्फ जंगलों की नहीं, हमारी संस्कृति, स्वास्थ्य और जीवन की सुरक्षा है।

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