जलवायु संकट: दुनिया में आधे मैंग्रोव को प्रभावित करती अल नीनो और ला नीना की घटनाएं

नए अध्ययन से पता चला है कि दुनिया के करीब आधे मैंग्रोव अल नीनो और ला नीना जैसी जलवायु घटनाओं से प्रभावित होते हैं
तट पर खड़ा अकेला मैन्ग्रोव का पेड़; फोटो: आईस्टॉक
तट पर खड़ा अकेला मैन्ग्रोव का पेड़; फोटो: आईस्टॉक
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दुनिया के करीब आधे मैंग्रोव अल नीनो और ला नीना जैसी जलवायु घटनाओं से प्रभावित होते हैं। यह खुलासा तुलाने विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों की अगुवाई में किए एक अंतरराष्ट्रीय अध्ययन में हुआ है। इस अध्ययन के नतीजे जर्नल नेचर जियोसाइंस में प्रकाशित हुए हैं। अध्ययन 2001 से 2020 के बीच करीब दो दशकों के सैटेलाइट आंकड़ों पर आधारित है।

गौरतलब है कि मैंग्रोव वे पेड़ या झाड़ियां होते हैं जो खारे या खारे-मीठे पानी वाले तटीय क्षेत्रों में घने झुरमुटों के रूप में पाए जाते हैं। ये जंगल न केवल समुद्री तूफानों से बचाव करते हैं साथ ही कार्बन को स्टोर करने के साथ मछली पालन जैसे अहम कार्यों में भी मदद करते हैं।

लेकिन रिसर्च से पता चला है कि जिस तरह से जलवायु में बदलाव आ रहे हैं ये जंगल इन बदलावों की मार के प्रति बेहद संवेदनशील साबित हो रहे हैं।

बता दें कि यह अपनी तरह का पहला अध्ययन है जो दर्शाता है कि अल नीनो-दक्षिणी दोलन (ईएनएसओ) पूरी दुनिया में मैंग्रोव के बढ़ने और नष्ट होने के पैटर्न को कैसे प्रभावित कर रहा है। इससे पहले, अल नीनो और ला नीना का असर केवल कुछ खास जगहों पर ही देखा गया था। जैसे 2015 में उत्तरी ऑस्ट्रेलिया में 1,200 मील लम्बी तटरेखा पर चार करोड़ से ज्यादा मैंग्रोव के पेड़ सूख गए थे।

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तट पर खड़ा अकेला मैन्ग्रोव का पेड़; फोटो: आईस्टॉक

किस हद तक मैंग्रोव को प्रभावित कर रही यह मौसमी घटनाएं

तुलाने विश्वविद्यालय से जुड़े अध्ययन के प्रमुख शोधकर्ता झेन झांग ने इस बारे में प्रेस विज्ञप्ति में जानकारी देते हुए कहा, “हम यह जानना चाहते थे कि क्या ये घटनाएं सिर्फ अलग-थलग मामले हैं या किसी बड़े पैटर्न का हिस्सा।" उनके मुताबिक रिसर्च से साफ हो गया है कि ईएनएसओ का दुनियाभर के मैंग्रोव पारिस्थितिकी तंत्रों पर बार-बार और बड़े पैमाने पर असर पड़ता है।

आपकी जानकारी के लिए बता दें कि अल नीनो और ला नीना दोनों ही भूमध्यरेखीय प्रशांत महासागर में घटित होने वाली मौसमी हलचलें हैं। यह दोनों ही घटनाएं अल नीनो दक्षिणी दोलन (ईएनएसओ) नामक घटना के दो विपरीत चरण हैं। जहां अल नीनो भूमध्यरेखीय प्रशांत महासागर के पूर्वी और मध्य भागों के तापमान में वृद्धि से जुड़ा है, वहीं दूसरी तरफ ला नीना तापमान में आने वाली गिरावट को दर्शाता है।

ये मौसमी बदलाव दुनिया भर में बारिश के पैटर्न, तूफान और तापमान में गड़बड़ी की वजह बनते हैं। इनकी वजह से दुनिया के कई हिस्सों में बाढ़, सूखा और तूफान गतिविधि में बदलाव जैसे हालात पैदा होते हैं।

इसके साथ ही अल नीनो की वजह से अक्सर कोरल ब्लीचिंग, सूखा और जंगलों में आग लगने की घटनाएं होती हैं। इसके साथ ही अब वैज्ञानिकों ने यह भी साबित कर दिया है कि अल नीनो का मैंग्रोव की सेहत पर भी गहरा असर पड़ता है।

क्या है 'सीसॉ' इफेक्ट?

इस अध्ययन में एक दिलचस्प 'सीसॉ' प्रभाव भी सामने आया है। शोधकर्ताओं के मुताबिक अल नीनो के दौरान जहां पश्चिमी प्रशांत क्षेत्र में मैंग्रोव के जंगलों को भारी नुकसान होता है, जबकि पूर्वी प्रशांत क्षेत्र में उनका विकास होता है। वहीं इसके विपरीत ला नीना के दौरान यह पैटर्न उलट जाता है। यानी पश्चिम में विकास और पूर्व में गिरावट होती है।

वैज्ञानिकों ने समुद्र के स्तर में होने वाले बदलावों को इन पैटर्न के पीछे का सबसे बड़ा कारण बताया है।

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वैज्ञानिकों ने समुद्र के स्तर में होने वाले बदलावों को इन पैटर्न के पीछे का सबसे बड़ा कारण बताया है। उदाहरण के लिए, अल नीनो के दौरान पश्चिमी प्रशांत क्षेत्र में समुद्र का स्तर कुछ समय के लिए घट जाता है, जिससे मिट्टी में नमक (लवणता) की मात्रा बढ़ जाता है और मैंग्रोव के पेड़ सूखने लगते हैं।

इस अध्ययन से जुड़े अन्य शोधकर्ता प्रोफेसर डैनियल फ्रीस के मुताबिक मैंग्रोव दुनिया के सबसे मूल्यवान पारिस्थितिकी तंत्रों में से एक हैं, यह करोड़ों लोगों को आवश्यक सेवाएं प्रदान करते हैं। लेकिन उनका अस्तित्व पर्यावरण की सीमित परिस्थितियों पर ही निर्भर करता है। ऐसे में यह पेड़ अल नीनो जैसे जलवायु बदलावों के प्रति बेहद संवेदनशील होते हैं।

ऐसे में इन्हें बचाने के लिए हमें इन पर जलवायु प्रभावों की बेहतर तरह से समझना होगा। यह समझ हमें इन पेड़ों को बचाने और बहाल करने में मदद करेगी, साथ ही इसका फायदा उन तटीय समुदायों को भी मिलेगा जो उन पर निर्भर हैं। एक अध्ययन से पता चला है कि मैंग्रोव दुनिया को सालाना बाढ़ से होने वाले 85,500 करोड़ डॉलर के नुकसान से बचाते हैं।

संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) ने अपनी हालिया रिपोर्ट “द वर्ल्ड्स मैंग्रोव्स 2000-2020” में खुलासा किया है कि पिछले दो दशकों में करीब 677,000 हेक्टेयर में फैले मैन्ग्रोव नष्ट हो गए हैं। अनुमान है कि पिछले 40 वर्षों में दुनिया भर के 123 देशों के समुद्र तट पर फैले 20 फीसदी मैन्ग्रोव खत्म हो गए हैं।

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लखनऊ स्थित बीरबल साहनी पुराविज्ञान संस्थान (बीएसआईपी); अन्नामलाई विश्वविद्यालय, तमिलनाडु; एकेडेमी ऑफ साइंटिफिक ऐंड इनोवेटिव रिसर्च, गाजियाबाद; और इंस्टीट्यूट फॉर बायोडायवर्सिटी कन्जर्वेशन ऐंड ट्रेनिंग, बेंगलुरु के शोधकर्ताओं द्वारा किए एक अन्य अध्ययन से पता चला है कि 2070 तक भारत के पूर्वी और पश्चिमी तट पर कई मैंग्रोव आवास क्षेत्र सिकुड़कर भूमि की ओर स्थानांतरित हो सकते हैं।

मैंग्रोव आवास क्षेत्रों के सिकुड़ने के लिए शोधकर्ताओं ने बरसात और समुद्री जलस्तर में बदलाव को जिम्मेदार ठहराया है।

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