खेती-किसानी आसान नहीं और ऐसे में जब साल दर साल आपदाओं का जोखिम बढ़ रहा है तो इसे करना महंगा सौदा बनता जा रहा है। खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) द्वारा जारी आंकड़ों के मुताबिक इन आपदाएं के चलते दुनिया भर के किसानों पर हर साल 10.2 लाख करोड़ रुपए (12,300 करोड़ डॉलर) से ज्यादा की मार पड़ रही है। जो वैश्विक स्तर पर कृषि क्षेत्र के वार्षिक सकल घरेलू उत्पाद के करीब पांच फीसदी हिस्से के बराबर है।
इतना ही नहीं यदि 1991 से 2021 के पिछले तीन दशकों के आंकड़ों को देखें तो इस दौरान किसानों को बाढ़, सूखा, तूफान, ओला, जैसी आपदाओं के चलते फसल उत्पादन और पशुधन के रूप में करीब 316.6 लाख करोड़ रुपए (3.8 लाख करोड़ डॉलर) का नुकसान झेलना पड़ा है।
इसमें कोई शक नहीं कि खेती-किसानी इन आपदाओं के प्रति बेहद संवेदनशील है और ऐसा होना स्वाभाविक भी है क्योंकि वो प्रकृति और जलवायु पर बहुत ज्यादा निर्भर करती है। ऐसे में जलवायु में आते बदलावों के साथ बार-बार आने वाली आपदाएं खाद्य सुरक्षा और कृषि प्रणालियों की स्थिरता को कमजोर कर सकती हैं।
एफएओ के मुताबिक इन आपदाओं का सबसे ज्यादा खामियाजा भारत सहित पूरे एशिया के किसानों को भुगतना पड़ा है, जिन्हें इन तीन दशकों के दौरान करीब 143.3 लाख करोड़ रुपए (1.72 लाख करोड़ डॉलर) का नुकसान हुआ है। इसके बाद अमेरिका, यूरोप, अफ्रीका को नुकसान हुआ है।
इसके विपरीत, अफ्रीका, अमेरिका और यूरोप अपने कृषि क्षेत्र के संबंध में आनुपातिक रूप से कहीं अधिक प्रभावित हुए हैं। यदि कृषि क्षेत्र के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के लिहाज से देखें तो इन आपदाओं से अफ्रीका में किसानों पर सबसे ज्यादा गाज पड़ी है। जहां इन आपदाओं की वजह से जीडीपी के करीब 7.7 फीसदी हिस्से के बराबर नुकसान का सामना किसानों को करना पड़ा है। वहीं एशिया में यह आंकड़ा 3.6 फीसदी है।
तेजी से बढ़ी कीटनाशकों की खपत, आधे के लिए अमेरिका जिम्मेवार
खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) ने अपनी इस नई स्टैटिस्टिकल ईयरबुक: वर्ल्ड फूड एंड एग्रीकल्चर 2023 में और भी कई चौंकाने वाले खुलासे किए हैं। अपनी इस रिपोर्ट में एफएओ ने वैश्विक कृषि खाद्य प्रणालियों से जुड़े नवीनतम रुझानों को साझा किया है। इसके साथ ही कृषि क्षेत्र पर पड़ते आपदाओं के प्रभाव के साथ-साथ आम आदमी के लिए स्वस्थ आहार और पोषण की कीमतों और पहुंच पर भी पहली बार प्रकाश डाला है।
रिपोर्ट के मुताबिक धीरे-धीरे किसानों और कृषि श्रमिकों का खेती-किसानी से लगाव घट रहा है। यही वजह है कि पिछले 21 वर्षों में कृषि क्षेत्र से जुड़े लोगों में गिरावट देखी गई है। आंकड़ों की मानें तो जहां साल 2000 में करीब 102.7 करोड़ लोग यानी वैश्विक श्रमबल का करीब 40 फीसदी हिस्सा कृषि से जुड़ा था। जो 2021 में घटकर केवल 27 फीसदी रह गया। मतलब की अब केवल 87.3 करोड़ लोग अपनी जीविका के लिए कृषि पर निर्भर हैं।
यदि 2000 से 2021 के बीच कीटनाशकों के उपयोग को देखें तो वो तेजी से बढ़ रहा है। इन 21 वर्षों में कीटनाशकों के वैश्विक उपयोग में करीब 62 फीसदी का इजाफा हुआ है। हालांकि 2021 में दुनिया भर के आधे कीटनाशकों की खपत केवल अमेरिका में हुई थी।
बढ़ती कीमतों के चलते आम आदमी से दूर होता पौष्टिक आहार
इस दौरान प्रमुख फसलों के उत्पादन में भी 54 फीसदी की वृद्धि दर्ज की गई है। जो 2021 में बढ़कर 950 करोड़ टन तक पहुंच गया है। इस उत्पादन में चार प्रमुख फसलों गेहूं, चावल, मक्का और गन्ना की करीब आधी हिस्सेदारी थी।
देखा जाए तो 2030 के लिए जारी सतत विकास के लक्ष्यों को हासिल करने में कृषि और खाद्य प्रणालियों की बेहद अहम भूमिका हैं। लेकिन इन आपदाओं, महामारी, संघर्ष, जलवायु परिवर्तन और जैवविविधता में आती गिरावट जैसे वैश्विक संकटों ने इसकी राह में अनगिनत चुनौतियां पैदा कर दी हैं। यही वजह है कि तमाम प्रयासों के बावजूद भी 2022 में करीब 73.5 करोड़ लोग खाने की कमी से जूझ रहे थे। अनुमान है कि यदि ऐसा ही चलता रहा तो 2030 तक करीब 60 करोड़ लोग दाने-दाने को मोहताज होंगें।
इसी तरह यदि 2021 के आंकड़ों को देखें तो दुनिया भर में पौष्टिक आहार की लागत हर दिन करीब 305 रुपए प्रति व्यक्ति थी, जो 2020 की तुलना में 4.3 फीसदी की वृद्धि को दर्शाती है। उत्तरी अमेरिका को छोड़ दें तो सभी क्षेत्रों में स्वस्थ आहार की लागत पांच प्रतिशत से अधिक बढ़ गई है। यह बढ़ती कीमतों का ही असर है कि 2021 में करीब 310 करोड़ से ज्यादा लोगों को पौष्टिक आहार नहीं मिल पाया था। मतलब की 42 फीसदी आबादी अभी भी स्वस्थ आहार के लिए जूझ रही है।
कृषि न केवल जलवायु में आते बदलावों की मार झेल रही है साथ ही वो बढ़ते उत्सर्जन में भी योगदान दे रही है। रिपोर्ट के मुताबिक 2000 से 2021 के बीच कृषि खाद्य प्रणालियों के कारण होते ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में दस फीसदी का इजाफा हुआ है। गौरतलब है कि एफएओ ने अपनी एक अन्य रिपोर्ट “स्टेट ऑफ फूड एंड एग्रीकल्चर रिपोर्ट 2023” में खाद्य उत्पादों की स्वास्थ्य और पर्यावरण संबंधी वास्तविक लागतों का खुलासा किया है। इस रिपोर्ट के मुताबिक वैश्विक स्तर पर खाद्य प्रणालियों की छुपी लागत करीब 1,057.7 लाख करोड़ रुपए है। इसमें भारत की हिस्सेदारी करीब 8.8 फीसदी की है।
भारत में कृषि खाद्य प्रणालियों की छुपी लागत को देखें तो वो 91.6 लाख करोड़ रुपए (1.1 लाख करोड़ डॉलर) से ज्यादा है। जो चीन और अमेरिका के बाद दुनिया में तीसरी सबसे अधिक है।
गौरतलब है कि कृषि खाद्य प्रणालियों की इन छिपी लागतों में ग्रीनहाउस गैसों और नाइट्रोजन उत्सर्जन के साथ भूमि उपयोग में आता बदलाव और जल संसाधनों पर बढ़ता दबाव जैसे पर्यावरणीय खर्च शामिल हैं। साथ ही इसमें स्वस्थ आहार और पोषण की कमी के साथ-साथ पर्याप्त आहार ने मिल पाने के कारण उपजी स्वास्थ्य समस्याएं भी शामिल हैं, जो लोगों को बीमार बना सकती हैं। साथ ही इसमें गरीबी से जुड़ी सामाजिक लागत और पोषण की कमी से उत्पादकता को होने वाले नुकसान को भी शामिल किया गया है।
यही वजह है कि पर्यावरण पर बढ़ते दबाव को देखते हुए एफएओ ने भी खाद्य प्रणालियों में बड़े फेरबदल के संकेत दिए हैं। इस बार अंतराष्ट्रीय जलवायु सम्मेलन कॉप-28 ने खाद्य प्रणालियों पर ध्यान केंद्रित करने के लिए एक विशिष्ट दिन निर्धारित किया है। गौरतलब है किट 30 नवंबर से 12 दिसंबर 2023 तक चलने वाले इस सम्मलेन में जलवायु परिवर्तन के साथ-साथ उससे जुड़े कई मुद्दों पर चर्चा की जाएगी।
बता दें कॉप-28 के दौरान 10 दिसंबर 2023 का दिन कृषि और खाद्य प्रणालियों को समर्पित किया गया है। इस दिन कृषि, आहार, और जल जैसे मुद्दों पर चर्चा की जाएगी। यूएई ने भी विश्व नेताओं से सशक्त खाद्य प्रणालियों, पर्यावरण अनुकूल कृषि और जलवायु परिवर्तन के खिलाफ कार्रवाई पर उनके कॉप-28 घोषणापत्र का समर्थन करने का आह्वान किया है।
आपकी जानकारी के लिए बता दें कि वैश्विक खाद्य प्रणालियां ग्रीनहाउस गैसों के बढ़ते उत्सर्जन में 34 फीसदी का योगदान देने के साथ-साथ दुनिया की करीब आधी आबादी की जीविका का साधन हैं।
इस घोषणापत्र में खाद्य प्रणालियों और जलवायु परिवर्तन के बीच के संबंधों को स्वीकार किया गया है। साथ ही देशों से आग्रह किया है कि वे अपनी राष्ट्रीय खाद्य प्रणालियों और कृषि रणनीतियों को राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (एनडीसी) में जताई अपनी प्रतिबद्धताओं के अनुरूप ढालने का प्रयास करें।
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