जंगल के मूल निवासियों को उनकी पारंपरिक जमीन पर मालिकाना हक देने वाले ऐतिहासिक कानून को बने 13 साल बीत गए हैं, लेकिन उनका भविष्य अब भी अधर में है। हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने उन्हें जमीन से लगभग बेदखल कर देने वाला फैसला दिया है, जिसने एक बार फिर वन अधिकार अधिनियम, 2006 के तहत अधिकार साबित करने वाली कठिन और थकाऊ प्रक्रिया की तरफ ध्यान दिलाया है।
13 फरवरी को भारत में जंगल के मूल निवासियों को उन पर बेघर होने के मंडराते खतरे के साथ अलग-थलग, असुरक्षित छोड़ दिया गया। वन्यजीव संरक्षणवादियों और वन विभाग के पूर्व अधिकारियों की याचिका पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने राज्य सरकारों को आदेश दिया कि जंगल में रह रहे “अतिक्रमणकारियों” या “अवैध” निवासियों को बाहर निकाल दिया जाए। अदालत में सुनवाई के दौरान मौजूद याचिकाकर्ता तो आक्रामक रुख अपनाए रहे, लेकिन बचाव पक्ष की तरफ से कोई नहीं दिखाई दिया। पूरा मामला एक संसदीय अधिनियम के बारे में था, लेकिन इसके आधिकारिक बचाव पक्ष केंद्र सरकार ने चुप्पी साधे रखी। इस फैसले ने देश के जंगलों को बेचैनी से भर दिया, जहां देश की लगभग 8 फीसदी आबादी रहती है। करीब 20 लाख वनवासियों को उन इलाकों से बेदखल का दिए जाने के खतरे का सामना करना पड़ा, जो उनके एकमात्र निवास स्थल है। (देखें “जंगल में अमंगल”)।
इसे विडंबना ही कहेंगे कि जिस वन अधिकार अधिनियम (एफआरए) की वैधता को लेकर चल रहे मामले में यह फैसला दिया गया, 13 साल पहले उसी कानून से आदिवासी समुदायों को पहली बार बसने का अधिकार हासिल हुआ था। उससे पहले तक वे “अतिक्रमणकारी” थे। लेकिन, इसमें आदिवासियों को कानूनी अधिकार देने के लिए एक आधिकारिक प्रक्रिया तय की गई थी। शीर्ष अदालत ने यह माना कि इस काम के पूरा होने के लिए 13 वर्ष की अवधि काफी लंबी है, इसलिए इतने वर्षों में जिन लोगों के बसने के अधिकार मंजूर नहीं हुए हैं, उन्हें बेदखल कर देना चाहिए। न्यायालय ने राज्यों को यह आदेश भी दिया कि जिनके आवेदन खारिज हुए हैं, उनके खिलाफ की गई कार्रवाई की रिपोर्ट भी पेश की जाए।
फैसले के तुरंत बाद देशभर के आदिवासी विरोध में सड़कों पर उतर आए। उनकी नाराजगी सर्वोच्च अदालत से नहीं, बल्कि सरकार से थी। चुनावों को देखते हुए उम्मीद के मुताबिक राजनीतिक दल कोरस में शामिल हो गए और सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी चौतरफा हमलों से घिर गई। 15 दिन बाद 28 फरवरी को एफआरए को लागू करने वाली नोडल एजेंसी जनजातीय कार्य मंत्रालय ने एक समीक्षा याचिका दायर करने के साथ मामले में हस्तक्षेप किया। इसके बाद शीर्ष अदालत ने अपने पिछले आदेश पर रोक लगा दी।
उथल-पुथल भरे इस पखवाड़े ने अनजाने में ही एफआरए को लागू करने के लिए अपनाए जा रहे लचर तौर-तरीकों को सामने ला दिया। इसके बाद सामने आईं जानकारियों से यह साफ हो गया कि आदिवासियों को मालिकाना हक देने के लिए योजनाबद्ध प्रयास नहीं हुए। खुद को शर्मसार होने से बचाने की जनजातीय कार्य मंत्रालय की कोशिशों से पर्दा हट गया।
आदिवासियों को महसूस हो रहा है कि उनके साथ विश्वासघात किया गया। 2000 के दशक की शुरुआत में भी जंगलों से “अतिक्रमणकारियों” को निकालने की ऐसी ही कोशिशों के चलते विरोध प्रदर्शन हुए थे जिसके परिणामस्वरूप 2006 में एफआरए अस्तित्व में आया। यह कानून लोगों के जंगल में बसने के अधिकार को मान्यता देता है और साथ ही उन्हें उनके पारंपरिक निवास स्थल पर मालिकाना हक के कानूनी दस्तावेज भी मुहैया कराता है। यह 4 हेक्टेयर तक की वन भूमि पर उनके पारंपरिक अधिकारों को मान्यता देने का वादा करता है। जब से यह कानून अस्तित्व में आया है, वन में बसने के अधिकार को हासिल करने के लिए 42.2 लाख आवेदन दाखिल किए जा चुके हैं। इनमें से 19.4 लाख आवेदन खारिज कर दिए गए हैं। इसमें सिर्फ 54,591.07 वर्ग किमी वन भूमि को ही मान्यता दी गई है, जबकि 2005 से पहले कुल कब्जे वाली वन भूमि 112,000 वर्ग किमी थी। यह वह जनसंख्या है, जिसकी बेदखली के लिए याचिकाकर्ताओं ने शीर्ष अदालत का ध्यान दिलाया है और इन्हें अवैध निवासी कहा जा रहा है। जनजातीय कार्य मंत्रालय ने शीर्ष अदालत में इन समुदायों के अधिकारों का बचाव नहीं किया। वहीं, राज्य सरकारों ने भी एफआरए के कार्यान्वयन का जायजा लेने की जहमत नहीं उठाई।
याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि एफआरए असंवैधानिक था और इसके तहत दिए गए सभी आदेशों को रद्द कर दिया जाए। 29 जनवरी 2016 को दिए गए अपने पहले आदेश में सर्वोच्च न्यायालय ने राज्यों से खारिज किए गए दावों की संख्या और जिनके आवेदन खारिज हो गए थे, उनके खिलाफ की गई कार्रवाई के बारे में रिपोर्ट मांगी थी। राज्यों को हलफनामा दाखिल करने के लिए दो सप्ताह का समय दिया गया था। लेकिन राज्यों ने जवाब नहीं दिया। अप्रैल 2018 में सर्वोच्च न्यायालय ने कर्नाटक, केरल, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, असम, ओडिशा, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना को दंडित करते हुए प्रत्येक पर 50,000 रुपए का जुर्माना भी लगाया था। यह एक तरह से राज्यों को संदेश भेजा गया कि याचिकाकर्ताओं का कानूनी तर्क मान्य था।
यह अशुभ संकेत थे। 2018 में सर्वोच्च न्यायालय में हुईं तीनों सुनवाई के दौरान जनजातीय कार्य मंत्रालय और पर्यावरण एवं वन व जलवायु परिवर्तन मंत्रालय या तो मौजूद नहीं रहे या फिर कुछ बोले ही नहीं। मंत्रालयों के इस रवैये के खिलाफ एफआरए पर काम कर रहीं संस्थाओं जैसे कि कैंपेन फॉर सर्वाइवल एंड डिग्निटी, ऑल इंडिया फोरम ऑफ फॉरेस्ट मूवमेंट, बृंदा करात व डी राजा जैसे राजनीतिज्ञों और आदिवासी कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष वी किशोर चंद्रा आदि ने केंद्रीय जनजातीय मामलों के मंत्री जुआल ओरम को 4 फरवरी, 2019 को पत्र लिखा।
इस चिट्ठी में लिखा गया, “याचिकाकर्ता अदालत से उन लोगों को निकालने की मांग कर रहे हैं, जिनके आवेदन खारिज हो गए हैं। जबकि, आपके मंत्रालय ने ही स्वीकार किया है कि काफी संख्या में आवेदनों के अस्वीकरण में गलतियां हैं और उनकी समीक्षा की जरूरत है।” इस पत्र में लापरवाही की तरफ ध्यान दिलाया गया, “हाल में हुईं सुनवाई के दौरान आपके वकील ने अदालत को इस संबंध में याद दिलाने की जहमत भी नहीं उठाई। इससे लाखों गरीब आदिवासी और वनवासी परिवारों के सामने बेदखल होने का खतरा पैदा हो गया है।” मंत्रालय ने इस पत्र पर ध्यान नहीं दिया।
अप्रत्याशित परिस्थितियों से घिरे जनजातीय कार्य मंत्रालय ने 20 फरवरी 2019 को सभी राज्यों को पत्र भेजकर अंतिम चरण में खारिज हुए दावों की संख्या पूछी। इससे पहले के पत्रों में इसने सभी स्तरों पर खारिज हुए दावों की स्थिति के बारे में पूछा था। एफआरए में तीन चरण हैं, जिनमें कोई दावा खारिज या मंजूर होता है- ग्राम सभा, उपखंड और जिला।
बेदखली के आदेश से पहले अदालत को भेजी गई रिपोर्ट में तीनों स्तरों पर खारिज हुए दावे शामिल थे। इसलिए यह साफ नहीं था कि इसमें एफआरए का पालन किया गया था या नहीं। 13 फरवरी को जनजातीय कार्य मंत्रालय के पासओवर मांगने के साथ कोर्ट में सुनवाई शुरू हुई। ऐसे में न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा, नवीन सिन्हा और इंदिरा बनर्जी की बेंच ने सिर्फ याचिकाकर्ताओं को ही सुना। दावों के निस्तारण से जुड़े अधूरे आंकड़ों की तरफ ध्यान दिलाने वाला वहां कोई नहीं था। इस तरह से याचिकाकर्ताओं के तर्कों के आधार पर फैसला सुना दिया गया, जो तर्कसम्मत था। हालांकि, आदेश में एक चेतावनी भी शामिल थी। फैसले के अंतिम पैराग्राफ में कहा गया कि राज्यों को सभी लंबित मामलों का सत्यापन, पुन: सत्यापन अथवा समीक्षा करनी होगी और चार महीनों के भीतर अपनी रिपोर्ट देनी होगी।
असली भू-माफिया
वन भूमि अधिकार मामले में सर्वोच्च न्यायालय के रोक वाले आदेश के तुरंत बाद जनजातीय कार्य मंत्रालय ने राज्य सरकारों के साथ एक बैठक की। बैठक में सभी दावों को सत्यापित करने के लिए एक योजना बनाई गई कि क्या दावों की जांच में सही प्रक्रियाओं का पालन किया गया है? साथ ही 10 जुलाई 2019 को अगली सुनवाई से पहले अपने हलफनामे में अंतिम सूची को शामिल किया। अधिकारियों के अनुसार, 42.2 लाख दावों को फिर से जांचा गया और 20 लाख खारिज किए गए दावों को सूचीबद्ध किया। इसमें बड़े पैमाने पर गड़बड़ी सामने आई, जिनके निपटारे के लिए कानूनी प्रक्रिया की मदद लेनी पड़ेगी। यह देखते हुए कि अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वनवासी आर्थिक पैमाने पर सबसे पीछे खड़े हैं, तो अधिकारों के दावे की प्रक्रिया को आसान बना दिया गया था, ताकि दावों के खारिज होने की गुंजाइश कम-से कम हो।
जब कोई वनवासी भूमि या पट्टा के लिए दावा करता है, तो उसे जांच के तीन स्तरों से गुजरना पड़ता है। इन प्रक्रियाओं में ग्राम सभा, उप प्रभागीय स्तर की समिति (एसडीएलसी) और जिला स्तरीय समिति (डीएलसी) शामिल हैं। ग्राम सभा की ओर से एक उच्च समावेशी निकाय, जिसे वन अधिकार समिति (एफआरसी) कहा जाता है, प्रक्रिया की सुविधा के लिए बनाई गई है। इस समिति में 10 से 15 लोग होते हैं। इनमें से दो-तिहाई अनुसूचित जनजाति और एक तिहाई सदस्य महिलाएं होनी चाहिए। एफएआर संशोधित नियम-2012 में 14 सबूतों की एक सूची दी गई है, जिसका इस्तेमाल दावेदार 13 दिसंबर 2005 से पहले के वन भूमि पर कब्जे को साबित करने के लिए कर सकता है।
सबूतों में सार्वजनिक दस्तावेज जैसे जनगणना, नक्शे, उपग्रह चित्र और सरकार अधिकृत दस्तावेज जैसे मतदाता पहचान कार्ड और राशन कार्ड शामिल हैं। यहां तक कि दावेदार से अधिक उम्र के गांव के बुजुर्ग का बयान भी प्रमाण के रूप में काम कर सकता है। एक बार दावा मिलने के बाद एफआरसी वन विभाग के अधिकारियों के साथ मौके पर जाकर सत्यापन करता है। समिति व्यक्तिगत और सामुदायिक वन अधिकार के दावों की पुष्टि करती है। इसके बाद एफआरसी और ग्राम सभा दावों को लेकर प्रस्ताव पारित करने के लिए एक बैठक करते हैं। बैठक में 50 प्रतिशत का कोरम पूरा होना चाहिए, जिनमें एक तिहाई महिलाएं होनी चाहिए। इसके बाद संकल्प एसडीएलसी को भेजा जाता है। वह इसे डीएलसी को भेजता है। डीएलसी से अनुमोदन के बाद ही किसी को पट्टे पर अधिकार मिलता है।
किसी दावे को तभी खारिज किया जा सकता है जब डीएलसी उसे नामंजूर कर दे। दरअसल, डीएलसी की ओर से दावों के खारिज होने के बाद भी दावेदार अदालत का रुख कर सकता है। इसलिए वनवासियों को अधिकार देना या उन्हें बेदखल करना एक लंबी प्रक्रिया हो सकती है। लेकिन राज्य सरकारें 13 फरवरी की सुनवाई में लड़खड़ा गईं, क्योंकि किसी भी राज्य के पास खारिज किए गए दावों को दिखाने के लिए उस स्तर के आंकड़े नहीं थे। ओडिशा, केरल और महाराष्ट्र ही ऐसे राज्य हैं जिनके पास समितिवार आंकड़े थे।
करोड़ों के सिर पर तलवार
भारत में लगभग 30 करोड़ वनवासी हैं। लेकिन केवल 42.2 लाख वनवासियों ने दावे दायर किए हैं, जिनमें से महज 17 लाख को मंजूरी दी गई है। जिस स्तर के दावों को खारिज किया गया है, उससे क्या किसी को “अवैध” या “अतिक्रमणकारी” कहा जा सकता है? यह ध्यान रखना दिलचस्प है कि अंतिम हस्ताक्षर प्राधिकारी यानी डीएलसी को ओर से खारिज दावों की दर कम है। उदाहरण के लिए, केरल में डीएलसी की ओर से कुल खारिज दावे केवल 2 प्रतिशत हैं। ओडिशा में यह 0.2 फीसदी है। इसलिए अधिकांश दावों को ग्राम सभा और एसडीएलसी स्तरों पर खारिज किया गया है।
खनन एफआरए को लागू करने में सबसे बड़ी बाधाओं में से एक है। वन और वनों में रहने वाले समुदाय ज्यादातर खनिजों से भरपूर क्षेत्रों में रहते हैं। खान मंत्रालय के आंकड़े बताते हैं कि ओडिशा, छत्तीसगढ़, झारखंड, राजस्थान और मध्य प्रदेश में अधिकांश जिले खनिज समृद्ध हैं। आदिवासी मामलों के मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, खनन से समृद्ध राज्यों में दावों को खारिज करने की दर सबसे अधिक है। यह आंकड़ा मध्य प्रदेश में 58 प्रतिशत और उसके बाद छत्तीसगढ़ में 52 प्रतिशत है। राज्य सरकारें वनवासियों को उनके अधिकार देने की जगह खनन या औद्योगिक विस्तार के लिए भूमि देने के लिए अधिक इच्छुक हैं।
सरगुजा के गढ़बरवा गांव में दावों का निपटारा किए बिना परसा ईस्ट कोयला ब्लॉक के लिए भूमि को आवंटित कर दिया गया था। दरअसल, 2015 में सामुदायिक वन अधिकार (सीएफआर) के तहत आने वाले गांव की पूरी 820 हेक्टेयर जमीन को रद्द कर दिया गया था। हरे-भरे वन क्षेत्र में अब केवल पेड़ों के ठूंठ बचे हैं। गौंड जनजाति बहुल गांव के निवासी जय नंदन कहते हैं, “अधिकारियों ने हमें बताया कि सीएफआर देने से पहले खनन की अनुमति दी गई थी, इसलिए इसे रद्द कर दिया गया। इस पर ग्राम सभा से सलाह नहीं ली गई। सीएफआर क्षेत्र के नुकसान के लिए कोई क्षतिपूर्ति नहीं की गई।” गांववालों ने 2016 में उच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की। फिलहाल सुनवाई के साथ खनन गतिविधियां भी चल रही हैं।
एफआरए उल्लंघन
इसके मानने के पर्याप्त कारण हैं कि सभी स्तरों पर एफआरए में उल्लंघन हो रहे हैं। 2013 में छत्तीसगढ़ के कोरबा जिले के बगदरा गांव के मुमा सिंह सुरजेव ने 2.8 हेक्टेयर के लिए दावा दायर किया। वह कहते हैं, “वन संरक्षक ने इसे बदलकर 12.14 वर्ग मीटर कर दिया। मुझे अभी तक कुछ नहीं मिला है। जब भी मैं इसके बारे में पूछता हूं, तो मुझे बताया जाता है कि प्रक्रिया चल रही है।”
छत्तीसगढ़ के कई जिलों में ग्राम पंचायत स्तर के बजाय पंचायत स्तर पर एफआरसी बनाए गए हैं। ग्राम पंचायत सचिव ही ग्राम सभा का सचिव होता है। इससे पूरी प्रक्रिया पंचायत के तहत आ जाती है। इस निकाय को उद्देश्य की प्रक्रिया से बाहर रखा गया है और इसके भीतर जाति और वर्ग आधारित विभाजन पैदा कर दिया है। छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जिले में एफआरए लागू कराने के लिए काम करने वाले गैर-लाभकारी संगठन नवरचना की कांता नंदी कहती हैं, “ग्राम सभा की बैठक बुलाने के लिए सचिव के काफी चक्कर लगाने पड़ते हैं। ज्यादातर मामलों में जिला आयुक्त से इसके लिए संपर्क किया जाता है।” नंदी कहती हैं, “वन-निवास समुदायों को अपनी बात रखने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ती है। पहाड़ की चोटी पर रहने वाला बैगा समुदाय ग्राम सभा तक पहुंचने के लिए घंटों पैदल चलता है। वहां उसे भेदभाव के सिवा कुछ नहीं मिलता।” बिलासपुर के फुलवारी पाड़ा गांव से कुछ दूरी पर रहने वाले बैगा जनजाति के 30 परिवारों ने कभी ग्राम सभा की बैठक में भाग नहीं लिया।
वह कहती हैं, “ग्राम सभा का गठन पंचायत स्तर पर किया गया था, ताकि उनके दावों को पारित नहीं किया जा सके।” उन्होंने बताया कि गैर-लाभकारी संगठन के दखल के बाद ग्राम स्तर पर ग्राम सभा का गठन किया गया और उनके दावे मार्च 2017 में दायर किए गए। नंदी का कहना है कि उनके दावे एसडीएल के पास लंबित हैं, लेकिन वन विभाग के अधिकारियों ने गांव की जमीन का अतिक्रमण करने के आरोप में दावेदारों से मारपीट की और 11 लोगों को जेल में बंद कर दिया।
अपील का अधिकार
पश्चिम बंगाल में 2015 से उच्च न्यायालय में एफआरए के साफ उल्लंघन के एक मामले की सुनवाई हो रही है। 2014 में वन और राजस्व विभाग के अधिकारियों ने खुद भूमि अधिकारों के लिए वन-निवासियों के दावों का सर्वेक्षण और सत्यापन किया। एफआरए एफआरसीएस के साथ ग्राम सभा को यह अधिकार देता है।
दरअसल, जनजातीय कार्य मंत्रालय ने खुद इन उल्लंघनों को माना है। 27 जुलाई, 2015 को राज्य सरकारों को लिखे गए अपने पत्र में मंत्रालय ने कहा कि गुजरात और छत्तीसगढ़ ने उपग्रह की तस्वीरों को उपलब्ध नहीं कराने वाले दावों को खारिज कर एफआरए का उल्लंघन किया है। कानून स्पष्ट रूप से कहता है कि इसका न होना दावों को खारिज करने का आधार नहीं होना चाहिए। छत्तीसगढ़ के बगदरा गांव में अन्य पारंपरिक वनवासियों से संबंधित लोगों के दावों को खारिज कर दिया गया। इसके लिए 75 साल तक भूमि पर कब्जे के सबूत की कमी का हवाला दिया गया। अधिकारियों के बीच कानूनी स्पष्टता लाने के लिए आदिवासी मामलों के मंत्रालय को कदम उठाना पड़ा। मंत्रालय ने 10 अप्रैल, 2015 को राज्य सरकारों को स्पष्ट करते हुए लिखा कि अन्य पारंपरिक वनवासियों को केवल पिछले 75 वर्षों तक या तीन पीढ़ियों के निवास के लिए प्रमाण देने की जरूरत है, न कि कब्जे का प्रमाण देने की आवश्यकता है। लेकिन वन विभागों ने इस अंतर को नहीं माना। हाल ही में जनवरी 2019 में वन विभाग ने दोहराया कि अन्य पारंपरिक वनवासियों को 75 साल के कब्जे का प्रमाण देना होगा। यह दावों के खारिज होने की उच्च दर का एक महत्वपूर्ण कारण है।
महाराष्ट्र में एफआरए से जुड़े मुद्दों पर शोध करने वाले टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज (मुंबई) के सहायक प्रोफेसर गीतांजॉय साहू कहते हैं, “कानून दावेदार को ग्राम सभा और एसडीएलसी द्वारा दावों को खारिज करने के खिलाफ अपील करने का अधिकार देता है।” इससे अधिक और क्या हो सकता है कि एफआरए खुद कहता है कि दावेदार को ग्राम सभा, एसडीएलसी या डीएलसी की ओर से दावों को खारिज करने की जानकारी दी जानी चाहिए और निर्णय के खिलाफ अपील करने के लिए कम-से-कम 90 दिनों का समय देना चाहिए। एफआरए का नियम कहता है, “पीड़ित पक्ष की याचिका का तब तक निपटारा नहीं जाना चाहिए, जब तक कि उसे अपना मामला पेश करने का उचित अवसर नहीं दिया जाता।”
आसान नहीं है न्याय की राह
पारंपरिक वनवासियों की सुरक्षा के लिए वन अधिकार अधिनियम, 2006 को सही तरीके से लागू करने की जरूरत है, न कि इसे उनके खिलाफ ही इस्तेमाल किया जाना चाहिए। संरक्षणवादी, वन विभाग और पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय विभिन्न समुदायों को वन भूमि पर अधिकार प्रदान करने वाले वन अधिकार अधिनियम, 2006 का विरोध करते रहे हैं। उनके अनुसार, जंगलों पर सरकार का अधिकार है और वहां रहने वाले समुदाय अतिक्रमणकारी हैं, जिन्हें वहां से बेदखल कर दिया जाना चाहिए।
वन अधिकार अधिनियम के लिए बनी राष्ट्रीय समिति के 2010 में अध्यक्ष रहे एनसी सक्सेना इन संस्थाओं के बारे में कहते हैं, “वन्यजीव और जैव विविधता के संरक्षण के लिए जंगलों में इंसानों का दखल नहीं होना चाहिए। लेकिन, उनका यह मॉडल अत्यधिक अव्यवहारिक है, क्योंकि सदियों से वन भूमि में रहकर वहां खेती-बाड़ी कर रहे समुदायों के अधिकारों को अब तक मान्यता नहीं दी गई है।” वह आगे कहते हैं कि इसी वजह से वन अधिकार अधिनियम के कार्यान्वयन के लिए वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय की जगह जनजातीय कार्य मंत्रालय को नोडल मंत्रालय बनाया गया है। कानूनी तौर पर वन विभाग को वन अधिकार अधिनिम के कार्यान्वयन के लिए बनीं ग्राम सभाओं, उपमंडल स्तरीय समितियों और जिला स्तरीय समितियों के कामकाज में दखल देने का अधिकार नहीं है। लेकिन, गांव या जंगलों में जनजातीय विभाग में कर्मचारियों के अभाव के चलते जनजातीय कार्य मंत्रालय वन विभाग को काम सौंपने के लिए मजबूर होना पड़ता है।
सक्सेना कहते हैं कि कई जगह वन भूमि पर उन लोगों ने कब्जे कर लिए हैं, जो असलियत में जंगलों पर आश्रित ही नहीं हैं। उदाहरण के तौर पर हिमाचल प्रदेश में सरकारी कर्मचारियों ने ही वन भूमि पर अतिक्रमण कर लिया है। कब्जे हटाने के लिए चलाए जाने वाले अभियानों के दौरान इन अतिक्रमणकारियों को कोई नुकसान नहीं पहुंचता, जबकि वनवासियों को विस्थापन का दंश झेलना पड़ता है। इसलिए यह कतई आश्चर्यजनक बात नहीं है कि वन अधिकार अधिनियम लागू होने के एक साल के भीतर ही संरक्षणवादियों और वन विभाग के सेवानिवृत्त अधिकारियों ने कानून के विरोध में कई उच्च न्यायालयों में ढेर सारी याचिकाएं दायर कर दीं। बाद में इन सारी याचिकाओं को मिला दिया गया और सर्वोच्च न्यायालय ने 2015 में इन पर सुनवाई शुरू की।
सबसे महत्वपूर्ण याचिका
यह याचिका गैर-लाभकारी संगठन वाइल्डलाइफ फर्स्ट ने दायर की है जिसमें कहा गया है कि इन समुदायों को वन भूमि से बेदखल कर दिया जाना चाहिए, क्योंकि वे जंगलों को नुकसान पहुंचा रहे हैं, जिससे वन्यजीवन प्रणाली बर्बाद हो रही है।
हालांकि, सरकार के आंकड़ों के अनुसार, तस्वीर इन दावों के उलट है। देश के वन संसाधनों के सर्वेक्षण और मूल्यांकन के लिए उत्तरदायी सरकारी संस्था भारतीय वन सर्वेक्षण जंगलों की स्थिति पर सटीक जानकारी के लिए सबसे भरोसेमंद स्रोत है। इसकी 2017 की रिपोर्ट “स्टेट ऑफ फॉरेस्ट” में वनों को हुए नुकसान के लिए वहां हो रही विकास गतिविधियों जैसे कि खनन को जिम्मेदार माना गया है, न कि इन समुदायों को।
संरक्षणवादी विभिन्न वन्यजीवों को आश्रय प्रदान करने वाले देश के 1,65,088 वर्ग किमी के संरक्षित क्षेत्र के प्रति अत्यधिक चिंता जाहिर करते हैं। यह कुल वन क्षेत्र का 23 फीसदी हिस्सा है। संसद की स्थायी समिति ने जंगलों की स्थिति पर फरवरी, 2019 में एक रिपोर्ट जारी की, जिसके अनुसार, 2013 से 2018 के बीच 3,015 वर्ग किमी क्षेत्र खनन व अन्य विकास परियोजनाओं के लिए आवंटित कर दिया गया। संरक्षित क्षेत्र और वन क्षेत्र का खनन के लिए आवंटन किया जा रहा है, जिससे वनों का क्षरण होगा। ऐसे समय में वनाश्रित समुदायों के हाथों जंगलों के सुरक्षित रहने की संभावना अधिक है। जनजातीय कार्य मंत्रालय द्वारा जारी किए गए आंकड़े बताते हैं कि 54,591 वर्ग किमी भूमि का आवंटन भूमि अधिकार अधिनियम के तहत किया गया है और वहां वनवासियों के जंगलों को नुकसान पहुंचाने की सूचना न के बराबर मिली है।
सर्वोच्च न्यायालय ने अपने 13 फरवरी के आदेश से मची हलचल को 28 फरवरी को शांत कर दिया। इस आदेश के बाद आई तीखी प्रतिक्रियाओं ने केंद्र सरकार को अदालत में समीक्षा याचिका दायर करने के लिए मजबूर किया। साथ ही मंत्रालय ने भी सभी राज्यों को सटीक मूल्यांकन करने और जिला स्तरीय समितियों द्वारा अंतिम चरण में अस्वीकृत किए गए दावों से संबंधित आंकड़े भेजने का आदेश दिया। इसने व्यक्तिगत दावों सहित सभी अस्वीकृत मामलों पर स्वत: संज्ञान लेते हुए राज्यों को इनकी समीक्षा के लिए समयबद्ध योजना तैयार करने का आदेश भी दिया। मंत्रालय ने कहा कि एसडीएलसी और डीएलसी द्वारा गलत आधारों पर खारिज किए गए सभी मामले अस्वीकृत सूची से बाहर रखे जाने चाहिए। वन अधिकार अधिनियम के तहत यह राज्यों की जिम्मेदारी है कि वह लोगों को शिक्षित और जागरूक करें। कई जगहों पर वनवासी समुदायों को अनुसूचित जाति प्रमाण-पत्र नहीं प्रदान किया गया है जिसकी वजह से वन अधिकार अधिनियम के तहत मिलने वालों अधिकारों को हासिल कर पाना काफी कष्टप्रद हो गया है। जनजातीय कार्य मंत्रालय और राज्य के जनजातीय विभागों की कार्य क्षमता में भी सुधार की जरूरत है। वन और राजस्व विभाग के विपरीत वन अधिकार अधिनियम से जुड़े एक भी जनजातीय विभाग की गांव स्तर पर मौजूदगी नहीं है। मध्य प्रदेश में बैगा जनजातियों के साथ काम करने वाले कार्यकर्ता बलवंत रंगदले कहते हैं कि यहां विभाग के शिक्षकों को इस काम में शामिल किया जा सकता है।
भारत के वनवासियों का भाग्य, जो अक्सर बहसों में गुम हो जाता है, अब जनजातीय कार्य मंत्रालय और एक ऐसे अधिनियम के कार्यान्वयन पर निर्भर करता है, जो 3,000 लाख लोगों के साथ हुए ऐतिहासिक अन्याय के प्रभाव को दूर करने के लिए प्रतिबद्धता जताता है।
(यह लेख डाउन टू अर्थ, हिंदी के अप्रैल 2019 अंक में प्रकाशित हो चुका है)