3 जनवरी 2022 को हिमाचल प्रदेश के किन्नौर जिले में उपायुक्त की अध्यक्षता वाली जिला स्तरीय वनाधिकार समिति ने पहली बार व्यक्तिगत वनाधिकार के दावे मंजूर किए। इसे प्रदेश में वनाधिकार कानून के क्रियान्वयन की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम माना जा रहा है। इसे एक यादगार तिथि के तौर पर दर्ज किया जा रहा है।
ये दावे मंजूर होने के बाद अब दावेदारों उनके आवास और खेती के लिए उपयोग में इस्तेमाल हुई वन भूमि पर कानून की धारा 3(1) (अ) के तहत अधिकार मिल गया है। उन्हें अब अवैध कबजाधारी नहीं माना जाएगा, बल्कि वे खेती से जुड़ी तमाम केंद्रीय व राज्य द्वारा प्रोत्साहित योजनाओं मसलन खाद -बीज में सब्सिडी, फसल बीमा योजनाओं को लाभ ले सकेंगे।
दरअसल, 1 जनवरी 2008 को लागू हुए वनाधिकार मान्यता कानून के तहत हिमाचल प्रदेश में 14 सालों के बाद भी वन अधिकार कानून के क्रियान्वयन की स्थिति बेहद निराशाजनक रही है। 31 अगस्त 2021 तक भारत सरकार के जनजाति कार्य मंत्रालय के पास उपलब्ध जानकारी के अनुसार हिमाचल प्रदेश में अब तक कुल 164 दावों को ही स्वीकृत किया जा सका है जिनमें 129 व्यक्तिगत वनाधिकार के दावे हैं और 35 सामुदायिक वन अधिकार के दावे शामिल हैं।
कुल 164 दावों के तहत महज 1920 हेक्टेयर वन भूमि ही दी जा सकी है। कुल दावे जो अब तक विभिन्न स्तरों पर जमा किए गए हैं उनकी संख्या महज 3,021 है, जिनमें 2764 दावे व्यक्तिगत वनाधिकार के लिए भरे गए हैं, जबकि 275 दावे सामुदायिक वनाधिकार के हैं। हिमाचल प्रदेश सरकार द्वारा जनजाति कार्य मंत्रालय को दिये गए प्रतिवेदन के मुताबिक अभी तक महज 47 दावे ही निरस्त किए गए हैं। इसका मतलब है कि 2,810 दावे अभी भी प्रक्रिया के अधीन हैं।
एक ऐसा राज्य जहां के भौगोलिक क्षेत्र का 70 प्रतिशत भू-भाग जंगल है और जहां की 90 प्रतिशत आबादी इन जंगलों पर ही पूरी तरह आश्रित है, वनाधिकार कानून के निराशाजनक क्रियान्वयन की इस स्थिति को लेकर कई सवाल पैदा होते हैं। और इसके साथ ही किन्नौर जिले में मंजूर हुए इन पांच दावों की अहमियत और उनकी प्रासंगिकता को समझा जा सकता है।
यह जानना दिलचस्प है कि 2008 में जब पूरे देश में वनाधिकार कानून लागू हुआ तब हिमाचल प्रदेश ने इस कानून को तीन जिलों किन्नौर, लाहौल स्पीति और चंबा में ही लागू किया। इसके पीछे यह तर्क दिया गया कि ये कानून केवल आदिवासी बाहुल्य और पांचवीं अनूसूची में शामिल जिलों में ही लागू किया जाएगा। शेष हिमाचल प्रदेश में 1921 में ही वन व्यवस्थापन और बंदोबस्त के तहत वनाश्रित समुदायों के अधिकारों को स्वीकार किया जा चुका है। इसके अलावा 1984 में हुए राजस्व बंदोबस्त के तहत भी गांवों की सामुदायिक भूमि और व्यक्तिगत हक की जमीन का बंदोबस्त किया जा चुका है।
इस लिहाज से देखें तो किन्नौर जिले में पांच दावेदारों को हासिल हुए इन अधिकार पत्रों की अहमियत समझ में आती है। प्रदेश में जहां सबसे पहले वनधिकार कानून लागू किया गया। वहां पूरे 14 साल बाद पहली दफा दावे मंजूर हुए हैं।
किन्नौर जिला स्तरीय वनाधिकार के सदस्य शांता कुमार नेगी इसे किन्नौर के लिए बहुत महत्वपूर्ण कदम मानते हैं। उन्होंने बताया कि- “हम 2008 से ही इस कानून के क्रियान्वयन के लिए संघर्ष कर रहे हैं। कानून में लिखी एक-एक बात का पालन करते हुए प्रमाण जुटा रहे हैं लेकिन हमारे दावे कभी भी उप-खंड स्तरीय समिति तक भी मंजूर नहीं हो रहे थे। वनाधिकार जो इस प्रदेश में एक आशा की किरण लेकर आया था, उसे लेकर हम लगभग निराश हो चुके थे। ऐसे में मालिंग गांव से आए इन दावों का मंजूर होना पूरे जिले में एक उम्मीद पैदा करता है”।
शांता कुमार ने इन दावों की प्रकृति के बारे में भी बताया कि “फिलहाल ये वो दावे हैं जिन्हें 1984 के भू-बंदोबस्त के बाद नाजायज कब्जों एक तौर पर दर्शाया गया था। जिसका रिकॉर्ड मौजूद है। 1984 के बंदोबस्त के दौरान ऐसे कितने ही लोग हैं जिन्हें इस तरह से नाजायज कब्ज़ेदारों के तौर पर दर्ज किया गया है। किन्नौर जिले के हर गांव/टोले में ऐसे कब्जेदारों की बहुत बड़ी संख्या है। इन दावों के मंजूर होने से कम से कम उनके लिए अब दरवाजा खुल गया है”।
उन्होंने बताया कि “कुल सात दावे अंतिम रूप से जिला स्तरीय वनधिकार समिति के समक्ष आए थे जिनमें से दो दावे सामुदायिक वन अधिकार के थे जिन्हें अभी अंतिम रूप से मंजूर नहीं किया गया है क्योंकि उन्हीं जमीनों पर कुछ व्यक्तिगत वनाधिकार के दावे भी प्रक्रिया में हैं। जैसे ही इस गांव के समस्त दावे अंतिम रूप से मंजूर कर लिए जाएंगे, उसके बाद इन सामुदायिक दावों को लेकर भी निर्णय लिया जाएगा”।
यह जानना दिलचस्प है कि अपनी मंशा में यह कानून वनाश्रित समुदायों के साथ हुए ‘ऐतिहासिक अन्यायों’ को दुरुस्त करने और न्याय सुनिश्चित करने के उद्देश्य से लाया गया था जिसे हिमाचल प्रदेश की सरकार ने लंबे समय तक एक ‘ऐतिहासिक झूठ’ का सहारा लेते हुए इसे अपने यहाँ लागू नहीं माने जाने के लिए भारत सरकार के वन, पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन के मंत्रालय को बजाफ़्ता हलफनामा देकर यह बताया कि इस प्रदेश में लोगों व समुदायों के वनाधिकार बहुत पहले से ही मान्य कर लिए गए हैं।
हालांकि चार साल बाद यानी 2012-13 में इस कानून का विस्तार पूरे प्रदेश में किया गया। जनवरी, 2016 में मनननीय सर्वोच्च न्यायालय में यह माना कि प्रदेश में वनांधिकार कानून का क्रियान्वयन किया जाएगा।
लेकिन दो साल बाद ही दिसंबर, 2018 में किन्नौर जिले लिम्पा गांव के 47 दावों को निरस्त कर दिया गया, क्योंकि किन्नौर जिला प्रशासन के अनुसार 1921 और 1984 में क्रमश: वन और राजस्व भूमि के बंदोबस्त के दौरान ही इन अधिकारों पर निर्णय लिया जा चुका है। और इसलिए वनाधिकार कानून, 2006 में दिये गए प्रावधानों के तहत व्यक्तिगत वनाधिकार दावों की अनुशंसा नहीं की जा सकती।
2008 के बाद से इस प्रदेश में वनाधिकार कानून को लेकर एक गंभीर अस्पष्टता रही है जिसके पीछे कई कारण हैं। वनाधिकार कानून के क्रियानवायन में सक्रिय अक्षय जसरोटिया ने इस बाबत बताया, “कानून के क्रियान्वयन की निराशाजनक स्थिति और लचर प्रगति के पीछे दो सबसे महत्वपूर्ण कारण रहे हैं। पहला, यह अस्पष्टतता लंबे समय तक बनी रही कि हिमाचल प्रदेश जैसे पर्वतीय राज्य में जहां औपनिवेशिक दौर में ही वन व्यवस्थापन और बंदोबस्त हो चुका है वहां इस कानून के क्रियान्वयन की ज़रूरत है या नहीं? और दूसरा महत्वपूर्ण कारण 2008 की नियमावली के अनुसार दावेदारों की पात्रता या पात्र दावेदारों की अर्हता को लेकर हिमाचल प्रशासन की संकीर्ण व्याख्या”।
अक्षय बताते हैं कि “हिमाचल प्रदेश में यह बड़ा और सैद्धान्तिक सवाल यह बना रहा कि इस प्रदेश में वनाधिकार कानून लागू है या नहीं? जिसके बारे में हिमाचल प्रदेश की विभिन्न दलों की सरकारें यह कहती आयीं कि यहां यह कानून लागू ही नहीं होता है। अगर होता भी है तो केवल पांचवीं अनुसूची में शामिल क्षेत्रों में”। इसके पीछे इन सरकारों का यह तर्क रहा है कि यहाँ भूमि-बंदोबस्त (1984) किया जा चुका है और वन क्षेत्र में भी औपनिवेशिककाल में ही बंदोबस्त (1921) हो चुका है। उल्लेखनीय है कि इस हिमालयी राज्य का 80 प्रतिशत भू-भाग सीधे तौर पर वन विभाग के नियंत्रण में है।
दूसरे कारण के बारे में अक्षय बताते हैं कि “2008 में कानून और इसकी नियमावली में दिये गए कुछ शब्दों और उनके अभिप्रायों को लेकर प्रशासन की व्याख्या रही है। इस समय तक दावेदारों की अर्हता को लेकर यहा कहा गया था कि -ऐसे लोग ही इस कानून के तहत ज़मीन का दावा कर सकते हैं जो अपने सस्टेनेंस यानी गुज़ारे के लिए जंगल पर ही आश्रित हैं। अब यह सस्टीनेंस या गुजारा बहुत ही संकीर्ण व भ्रामक शब्द था। इस शब्द के अपने ही मायने निकालते हुए शुरूआत में हिमाचल प्रशासन ने दावेदारों के दावे इस वजह से भी खारिज कर दिये, क्योंकि दावेदार का नाम गरीबी रेखा के नीचे यानी बीपीएल की सूची में नहीं था, या दावेदार के परिवार का एक सदस्य सरकारी नौकरी में था या उनके पास मोटर साइकिल थी। यह सारा मामला इस कानून के खिलाफ था। कानून स्पष्ट रूप से कहता है कि वनाधिकार के तहत दावेदारों को उनकी आर्थिक या सामाजिक हैसियत के आधार पर खारिज नहीं किया जा सकता।
हालांकि 2012 में इन्हें दुरुस्त करते हुए स्पष्ट कर दिया गया और इस तथ्य को पुनर्स्थापित किया गया कि जो भी लोग 13 दिसंबर 2005 से पहले तक वन भूमि (सभी श्रेणियों की) पर काबिज रहे हैं या उनकी भी निर्भरता किसी भी रूप में वनों पर है वो इस कानून के तहत दावेदार होने के लिए पात्र हैं। लेकिन अभी भी हिमाचल प्रदेश का प्रशासन उसी लकीर को पीट रहा है।
इस पर्वतीय राज्य की परिस्थितियां अन्य राज्यों की तुलना में दो वजहों से अलग और विशिष्ट हैं जिन्हें तवज्जो दिये बगैर वन अधिकार कानून को इसकी मूल मंशा के अनुसार लागू नहीं किया जा सकता। हाल ही में बैजनाथ तहसील में परंपरागत पशुपालन से जुड़े समुदायों के अधिकारों को लेकर एक बड़ी बढ़त 28 दावों की स्वीकृति के साथ मिली है। इन दावों की प्रक्रिया भी काफी जटिल और उलझी हुई रही है क्योंकि इन पशुपालकेएल समुदायों को राज्य में अनुसूचित जनजाति का रज़ा प्राप्त नहीं है जबकि कई पीढ़ियों से उनकी सम्पूर्ण आजीविका, अस्तित्व और सांस्कृतिक पहचान जंगल पर निर्भर इसी पेशे से बनी है।
फौरी तौर पर किन्नौर जिले में स्वीकृत हुए इन दावों को वनाधिकार कानून के क्रियान्वयन की दिशा में एक महत्वपूर्ण पड़ाव के तौर पर देखा जा सकता है।