कौन बचाएगा फिन बया को? तराई के घास के मैदानों से गायब होती एक दुर्लभ चिड़िया

पक्षी विशेषज्ञों का कहना है कि फिन बया को बचाने का यही आख़िरी मौका है — हम बड़े जीवों के संरक्षण पर तो ध्यान देते हैं, लेकिन फिन बया जैसी छोटी प्रजातियां चुपचाप विलुप्ति के कगार पर हैं
 वर्ष 2022 में हरिपुरा बांध के पास फिन बया के घोंसलों की कॉलोनी, तस्वीर: डॉ रजत भार्गव, बीएनएचएस
वर्ष 2022 में हरिपुरा बांध के पास फिन बया के घोंसलों की कॉलोनी, तस्वीर: डॉ रजत भार्गव, बीएनएचएस
Published on
  • उधमसिंह नगर का तराई क्षेत्र फिन बया का सबसे प्रमुख प्राकृतिक आवास माना जाता है, लेकिन यहां इसकी आबादी लगातार घट रही है और इस वर्ष एक भी फिन बया न तो इस क्षेत्र में, न ही पूरे राज्य में दिखी।

  • 2017 में बीएनएचएस के अध्ययन ने फिन बया की तेजी से घटती संख्या पर चेतावनी दी थी और तत्काल संरक्षण कार्रवाई की सिफारिश की थी।

  • पक्षी विशेषज्ञों का कहना है कि फिन बया को बचाने का यही आख़िरी मौका है — हम बड़े जीवों के संरक्षण पर तो ध्यान देते हैं, लेकिन फिन बया जैसी छोटी प्रजातियां चुपचाप विलुप्ति के कगार पर हैं।

वर्ष 2024 में रुद्रपुर के हरिपुरा बांध के पास दलदली मिट्टी में जलीय घास पर घोंसले बनाकर नर फिन बया पक्षी अपने पंख फड़फड़ाकर मादा फिन बया का इंतजार करते रहे,, लेकिन एक भी मादा फिन बया इस क्षेत्र में नहीं दिखी। साल 2025 में इस क्षेत्र में नर या मादा, किसी फिन बया की मौजूदगी नहीं दर्ज की जा सकी।

फिन बया स्थानीय तौर पर कई नामों से पहचानी जाती है। अपने पीले रंग के चलते पीले बुनकर, हिमालयी बुनकर और उत्तराखंड में इसे पहाड़ी बया पुकारा जाता है। उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश और नेपाल तक के तराई क्षेत्र में बांधों और जलाशयों के नजदीक रहती हैं। पानी, दलदली मिट्टी, ऊंची घास, सेमल (और शीशम  जैसे वृक्ष मिलकर इसका प्राकृतिक आवास यानी हैबिटेट बनाते हैं। ऊंची घास और इन पेड़ों पर ये पक्षी अपने घोंसले बनाते हैं।

उधमसिंहनगर का हरिपुरा बांध और इसके आसपास का तराई क्षेत्र फिन बया का अब तक बचा हुआ प्राकृतिक आवास रहा है। इस क्षेत्र से इसकी गैर-मौजूदगी पक्षी विज्ञानियों को इसकी विलुप्ति की आशंका से चिंतित कर रही है।

वर्ष 2021 से हरिपुरा बांध क्षेत्र का अध्ययन कर रही और उत्तराखंड वन विभाग की अनुसंधान इकाई की रिसर्च असोसिएट तनुजा कहती हैं, “मैंने अपने अध्ययन के दौरान इनकी संख्या घटती देखी है। मई में प्रजनन काल शुरू होते ही ये पक्षी हरिपुरा बांध के नजदीक घोंसले बनाना शुरू कर देते थे और अगस्त तक घोंसले छोड़कर चले जाते। वर्ष 2021 में सबसे अधिक 17 नर और 10 मादा फिन बया दिखीं। ये संख्या हर साल कम होती गई। 2024 में एक भी मादा फिन बया नहीं दिखी और 2025 में ये बया दिखी ही नहीं। मैंने हरिपुरा से बौर बांध तक और उस क्षेत्र के जंगल में भी उनका घोंसला ढूंढा लेकिन मुझे एक भी फिन बया या उनका घोंसला नहीं मिला”।

वह निराशा जताती हैं कि अपने अध्ययन के इन पांच वर्षों में उन्होंने पक्षी, उनके घोंसले और कॉलोनी तो देखी लेकिन एक भी अंडा या उससे निकला चूजा नहीं देखा। 

तनुजा अपने नोट्स में मौसमी अनियमितता भी दर्ज करती हैं। वर्ष 2021 में जून के पहले हफ्ते तक बारिश न होने की वजह से पूरा क्षेत्र बिलकुल सूखा हुआ था। जबकि फिन बया को दलदली मिट्टी और पानी की दरकार होती है। वहीं, 2023 में जून में हरिपुरा बांध के आसपास बाढ़ की स्थिति थी। वह बताती हैं, “बाढ़ में उनके सारे घोंसले बह गए थे। 2023 में मैंने देखा कि वे लगातार नए घोंसले बना रही थीं और पुराने घोंसले छोड़ रही थीं, जैसे उन्हें वो हैबिटेट जंच नहीं रहा था, या कोई खतरा महसूस हो रहा हो”।

ये परिस्थितियां सिंचाई के उद्देश्य से बने हरिपुरा बांध में पानी के प्रबंधन के तहत लिए गए फैसले को भी दर्शाती हैं। 

तराई क्षेत्र में खेती समेत मानवीय गतिविधियां बढ़ने से फिन बया का प्राकृतिक आवास प्रभावित हुआ है। तस्वीर: राजेश पंवार
तराई क्षेत्र में खेती समेत मानवीय गतिविधियां बढ़ने से फिन बया का प्राकृतिक आवास प्रभावित हुआ है। तस्वीर: राजेश पंवार


पक्षियों की निगरानी करने वाले अंतर्राष्ट्रीय ऑनलाइन मंच ई-बर्ड से जुड़े उधमसिंह नगर के बर्ड वॉचर राजेश पंवार बताते हैं “रुद्रपुर और आसपास तराई के घास के मैदान काटकर लोग वहां खेती कर रहे हैं। बांध की झील में पानी कम होने पर गेहूं उगाते हैं। खेती के लिए वहां मौजूद पेड़ भी सुखाकर काट देते हैं।”

उधमसिंह नगर के सितारगंज, किच्छा, बाजपुर समेत कई अन्य क्षेत्रों से ये पक्षी पहले ही दिखने बंद हो चुके हैं। राज्य में नैनीताल और हरिद्वार के तराई के वेट लैंड्स में ऊंचे घास के मैदानों में कभी खूब दिखने वाली ये चिड़िया पहले ही गायब हो चुकी है।  

संरक्षण की कार्रवाई अब तक क्यों नहीं

इस साल राज्य में इस पक्षी का न दिखना, वर्ष 2017 की “स्टेटस ऑफ फिन वीवर इन इंडिया: पास्ट एंड प्रेजेंट” रिपोर्ट में जतायी गई आशंकाओं को सच साबित करता है।

बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी (बीएनएचएस) में सहायक निदेशक रह चुके वरिष्ठ पक्षी विज्ञानी डॉ रजत भार्गव ने नब्बे के दशक से  वर्ष 2017 तक देशभर में फिन बया की मौजूदगी वाले जगहों का अध्ययन कर ये महत्वपूर्ण रिपोर्ट लिखी थी। इसके मुताबिक तराई क्षेत्र में खेती के विस्तार, घास काटने, निर्माण कार्य, रिहायशी इमारतें, औद्योगिक इकाइयां बढ़ने समेत मानवीय गतिविधियों के चलते इन पक्षियों का प्राकृतिक आवास प्रभावित हुआ है और इसमें व्यवधान बढ़ा है, जिससे इनकी आबादी तेजी से घटी है।

इस रिपोर्ट में वर्ष 2012 से 2017 के बीच उधमसिंह नगर में फिन बया पक्षियों की आबादी में 84-96 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई। उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश में इन पक्षियों की संख्या मात्र 200 होने का अनुमान जताया गया है। 

इस साल उत्तराखंड में फिन बया के न दिखाई देने पर डॉ भार्गव चेतावनी देते हैं कि ये समय फिन बया को बचाने का है, “जब आप किसी प्रजाति को बचाने के लिए तत्काल कार्रवाई नहीं कर रहे तो आप उसकी विलुप्ति होने दे रहे होते हैं। जब तक सरकार की इच्छा नहीं होगी ये चिड़िया नहीं बचेगी। और किसी प्रजाति को बचाने का समय तभी होता है जब वो अच्छी तादाद में मौजूद हों।”

 फिन बया की एक उप प्रजाति (Ploceus megarhynchus salimalii) उत्तर पूर्वी राज्य असम के काजीरंगा और मानस राष्ट्रीय उद्यान में मौजूद है। कभी पश्चिम बंगाल में भी इनकी मौजूदगी रही।  2017 की स्टेटस रिपोर्ट में वहां इनकी संख्या 300 के आसपास होने का अनुमान था। इस उप प्रजाति को मिलाकर देशभर में तकरीबन 500 फिन पक्षी बचने का अनुमान था। 

बीएचएनएस के अध्यक्ष रह चुके और फिन बया पर अध्यक्ष कर चुके डॉ असद रहमानी बताते हैं कि  नब्बे के दशक में उधमसिंह नगर से करीब 100 किलोमीटर दूर नेपाल के शुक्लाफांटा के तराई में घास के मैदानों में भी फिन बया की आबादी रिकॉर्ड हुई। हम मानते हैं कि भारत के तराई क्षेत्र से ही इस चिड़िया ने नेपाल की ओर स्थानीय तौर पर पलायन किया होगा। लेकिन वहां भी इनकी आबादी बढ़ नहीं रही है।

वह सरकार से कड़ी नाराजगी दर्ज कराते हैं, “आप बाघ, हाथी और गैंडे के अलावा कुछ और नहीं सोचते। आपके पास संकटग्रस्त फिन बया की सूचना क्यों नहीं है। बीएचएनएस ने 2017 में फिन वीवर की स्टडी कर, इसकी कंजर्वेशन ब्रीडिंग का प्रस्ताव दिया था लेकिन उसे स्वीकार नहीं किया गया। जबकि इसके लिए कोई बड़ा बजट भी नहीं चाहिए था। फिन बया को बचाने के लिए उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश सरकार को मिलकर काम करना चाहिए। अगर इसका हैबिटेट सुरक्षित किया जाएगा तभी ये चिड़िया बचेगी।” इनकी लगातार गिरती आबादी के चलते वर्ष 2016 में बर्डलाइफ इंटरनेशनल पहली बार “असुरक्षित” श्रेणी में रखा गया। वर्ष 2021 में इसकी संरक्षण श्रेणी बढ़ाकर “संकटग्रस्त” की गई।

नर फिन बया प्रजननकाल में अपने चमकीले पीले रंग की वजह से दूर से पहचाने जाते हैं। फोटो: पीसी तनेजा
नर फिन बया प्रजननकाल में अपने चमकीले पीले रंग की वजह से दूर से पहचाने जाते हैं। फोटो: पीसी तनेजा


संरक्षण कब

उत्तराखंड वन अनुसंधान संस्थान के अध्ययन में हरिपुरा बांध से फिन बया की गैर-मौजूदगी खतरे के बढ़े स्तर को दर्शाती है।

उत्तराखंड जैव-विवधता बोर्ड ने भी इस पक्षी को लेकर राज्य स्तरीय संस्था नेचर साइंस इनिशिएटिव से एक और अध्ययन का करार किया है। बोर्ड के अध्यक्ष डॉ एसपी सुबुद्धि, राज्य वेटलैंड प्राधिकरण के सदस्य सचिव और राज्य पर्यावरण संरक्षण और जलवायु परिवर्तन निदेशालय के निदेशक भी हैं। वह कहते हैं, “ये तय है फिन बया के हैबिटेट में बाधा है। इससे इनका प्रजनन प्रभावित हो रहा है। हरिपुरा बांध से पानी के प्रबंधन को लेकर सिंचाई विभाग के साथ भी मिलकर काम करने की जरूरत है। अध्ययन रिपोर्ट के बाद हम इसके संरक्षण से जुड़ा फैसला लेंगे”।

उत्तराखंड वन विभाग में अपर प्रधान मुख्य वन संरक्षक, वन्यजीव, डॉ विवेक पांडे इस मामले पर तराई केंद्रीय वन प्रभाग के डीएफओ से मिली जानकारी साझा करते हैं। इसके मुताबिक इस चिड़िया को ढूंढ़ने के लिए कई प्रयास किए गए लेकिन सफलता नहीं मिली। केवल बरसात में प्रजनन काल के दौरान गहरे पीले रंग से इस पक्षी का पहचान हो पाती है। इसलिए केवल बरसात के मौसम के आधार पर इस प्रजाति की उपस्थिति या अनुपस्थिति की पुष्टि नहीं की जा सकती।

ये भी बताया गया कि तराई केंद्रीय वन प्रभाग स्थानीय लोगों, संस्थाओं और बर्ड वॉचर की मदद से हरिपुरा बांध के वेटलैंड में इनकी गतिविधियों की लगातार मॉनीटरिंग कर रहा है। लेकिन आज तक यहां सफल प्रजनन का प्रमाण नहीं मिला, न ही इस चिड़िया के प्रजनन स्थल से पलायन का कोई साक्ष्य है। इसका ये अर्थ निकाला जा सकता है कि वे  इसी क्षेत्र में घोंसले बना रही हैं, लेकिन हम उन स्थानों का पता नहीं लगा पा रहे हैं।

कौव्वों से खतरा

उत्तराखंड वन विभाग जिस चिड़िया की तलाश नहीं कर पा रहा है, उसकी पीली रंगत ने प्रख्यात पक्षी विज्ञानियों का ध्यान आकर्षित किया और उन्होंने देशभर में इसकी मौजूदगी का पता लगाया। 

भारतीय पक्षी विज्ञान का जनक कहे जाने वाले एओ ह्यूम ने वर्ष 1866 में पहली बार इनकी पहचान की। प्रजनन काल में चमकीले पीले रंगत की पहचान करने वाले अंग्रेज अफसर फ्रैंक फिन के नाम पर इस बुनकर चिड़िया को फिन वीवर कहा गया। भारत के ‘बर्डमैन’ कहे जाने वाले डॉ सलीम अली ने इस पक्षी की तलाश में खोज अभियान चलाकर उधमसिंह नगर समेत देशभर में इनके ठिकाने तलाशे।

डॉ अली के खोजे ठिकानों पर नब्बे के दशक और उसके बाद डॉ रजत भार्गव ने एक बार फिर सर्वे किया और  इसकी मौजूदगी की कुछ नई जगहें भी खोजी। उनके अध्ययन में हैबिटेट के अलावा कव्वों का हमला इस पक्षी के लिए एक बड़े खतरे के तौर पर सामने आया। आबादी कम होने के कारण ये बया हमलावर कव्वों से अपने अंडों और चूजों की सुरक्षा कर पाने में असमर्थ दिखीं। 

वह बताते हैं, “मैंने देखा कि पूरी कॉलोनी पर कुछ जंगली कौवों ने धावा बोला और कम से कम 8-10 अंडे और चार चूज़े खा लिए। अगले दो दिनों मे कोई भी पक्षी कॉलोनी में वापस नहीं आया”।

जून 2024, हरिपुरा बांध में मछली पकड़ने के लिए पानी निकाला जा रहा है। तस्वीर: डॉ रजत भार्गव
जून 2024, हरिपुरा बांध में मछली पकड़ने के लिए पानी निकाला जा रहा है। तस्वीर: डॉ रजत भार्गव


संरक्षण के इंतज़ार में फिन बया

फिन बया को लेकर किए गए अध्ययन के दौरान बीएनएचएस के निदेशक रहे डॉ दीपक आप्टे इस पक्षी को बचाने का आखिरी मौका मानते हैं। 

ग्रेड इंडियन बस्टर्ड और गिद्ध के संरक्षण मॉडल का उदाहरण देते हुए वह कहते हैं, “फिन बया को बचाने के दो ही विकल्प हैं। प्राकृतिक आवास सुरक्षित बनाने के साथ कव्वों जैसे शिकारियों से इनके घोंसले की सुरक्षा। और, कैप्टिव ब्रीडिंग यानी उसके प्राकृतिक आवास के बाहर, नियंत्रित माहौल में प्रजनन कराना ताकि उनकी संख्या बढ़ाई जा सके। चूंकि ये घास के मैदान से जुड़ी प्रजाति है इसलिए स्थानीय समुदाय को भी साथ लेना होगा। इस सबके लिए राजनीतिक और प्रशासनिक इच्छाशक्ति चाहिए।”

फिन बया के श्रेष्ठ प्राकृतिक आवास रहे उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के तराई इलाके से ये चिड़िया गायब हो रही है। आईयूसीएन के सीनियर रेड लिस्ट ऑफिसर एलेक्स बेरीमैन इस वर्ष अगस्त में हरिपुरा बांध क्षेत्र आए।  एक ईमेल के जवाब में उन्होंने बताया, “हरिपुरा में मुझे फिन बया नहीं दिखी। स्पष्ट तौर पर ये चिंता का विषय है और स्थानीय स्तर पर प्रजाति की बिगड़ती स्थिति का संकेत।”

वह लिखते हैं, “2021 में आईयूसीएन ने इसका आखिरी परीक्षण किया था, ये आशंका तो है कि कम से कम स्थानीय तौर पर इसकी स्थिति बिगड़ी हो। नेपाल समेत इसकी मौजूदगी के अन्य क्षेत्र से भी इनकी आबादी को समझने के लिए लगातार मॉनीटरिंग की जरूरत है। यदि ये डेटा भी इनकी आबादी में गिरावट दर्शाता है और ये प्रजाति गंभीर तौर पर संकटग्रस्त की सीमा को पूरा कर लेती है, तो मैं इसके संरक्षण श्रेणी के पुनर्मूल्यांकन को तेजी से कराने के लिए तैयार हूं।”

Related Stories

No stories found.
Down to Earth- Hindi
hindi.downtoearth.org.in