राजाजी नेशनल पार्क में वन गुर्जरों पर कार्रवाई के पीछे क्या राज छिपा है?

उत्तराखंड वन विभाग के कर्मचारी राजाजी नेशनल पार्क में रह रहे वन गुर्जरों के डेरे तोड़ दिए। आरोप है कि वन गुर्जर परिवारों के साथ मारपीट भी की गई
राजाजी नेशनल पार्क में हुई कार्रवाई में घायल महिला। फोटो: रोबिन चौहान
राजाजी नेशनल पार्क में हुई कार्रवाई में घायल महिला। फोटो: रोबिन चौहान
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श्वेता त्रिपाठी

कोविड-19 महामारी के दौरान उत्तराखंड के राजा जी पार्क में वन गुर्जरों पर वन विभाग का कहर टूट पड़ा है। 16 जून को वन विभाग के कर्मचारियों ने सुप्रीम कोर्ट के 13 फरवरी के आदेश का हवाला देते हुए वन गुर्जरों के डेरों को तोड़ने का प्रयास किया, जबकि वन अधिकार समिति के अध्यक्ष ने सुप्रीम कोर्ट के 28 फरवरी 2019 के स्थगन आदेश भी दिखाया, लेकिन वन विभाग के अधिकारियों ने मानने से इंकार कर दिया।

आरोप है कि वन कर्मियों ने गांव वालों को घेर कर लाठी-डंडों से पिटाई की और महिलाओं से बदतमीजी की। बाद में 17-18 जून को महिलाओं, बच्चों, बुजुर्गों को गिरफ्तार करके जेल ले गए। वन गुर्जरों की तरफ से प्राथमिकी दर्ज़ करने की कोशिश हुई, मगर पुलिस ने उनकी रिपोर्ट दर्ज नहीं की। 

दरअसल, राजाजी नेशनल पार्क में इन दिनों लगभग 231 वन-गुर्जर परिवार बसे हुए हैं। मई के महीने में भी यहां झोपड़ियों में आग लगा दी गई।जिसके कारण उनके समान के साथ-साथ लगभग 36000 रुपए भी जल गए।

इस पूरे मसले को समझने के लिए सबसे पहले बात करते हैं कि 13 फरवरी 2019 को सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा था। अपने एक ऐतिहासिक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जिन आदिवासियों और पारंपरिक वनवासियों के दावे खारिज हो चुके हैं, उन्हें वन विभाग विस्थापित कर सकता है। लेकिन बाद में 28 फरवरी, 2019 को सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश पर रोक लगा दिया जो कि अब तक जारी है। 

तो फिर यह कार्रवाई क्यों की गई? आइए, इसे समझते हैं। लॉकडाउन के दौरान ही उत्तराखंड वन विभाग ने राजाजी नेशनल पार्क और नरेंद्र नगर वन खंड के 778 हेक्टेयर ज़मीन को वर्ष 2021 में होने वाले कुम्भ मेले हेतु अस्थायी निर्माण के लिए कुम्भ मेला समिति को हस्तांतरित करने का प्रस्ताव किया है।

मशहूर स्वतन्त्रता सेनानी सी राजगोपालाचारी के नाम पर राजा जी नेशनल पार्क की स्थापना 1983 में हुई थी। अपनी समृद्ध जैव विविधता के लिए मशहूर, राजा जी नेशनल पार्क देश भर के 50 टाइगर रिज़र्व में से एक है, जो 315 से ज़्यादा पक्षी-प्रजातियों और लगभग 23 से ज़्यादा स्तनधारी-प्रजातियों जिसमें हाथी, तेंदुआ, बाघ, हिरण आते हैं – का निवासस्थान है। 

ज्ञातव्य है कि जनवरी 2020 में पर्यावरण और वन मंत्रालय ने कहा कि वन भूमि को अस्थायी उपयोग के लिए देने से पहले, यह सुनिश्चित किया जाएगा कि वन भूमि का ऐसा उपयोग सार्वजनिक प्रयोजन के लिए अपरिहार्य है और प्रस्तावित अस्थायी उपयोग के लिए कोई वैकल्पिक गैर वन भूमि उपलब्ध नहीं है। अधिसूचना के अंतर्गत वन भूमि के अस्थायी उपयोग की अवधि अधिकतम दो सप्ताह तक तय की गयी थी।  

हालांकि कुम्भ मेले की गतिविधियों के लिए प्रस्तावित वन-भूमि को जो संरक्षित क्षेत्र के भीतर आती है - 9 महीने (1 सितंबर, 2020 से 31 मई 2021 तक) के लिए कुम्भ मेला समिति को दिये जाने का प्रस्ताव किया गया है। 

यहां यह भी समझ लेना आवश्यक है कि वन्य संरक्षण अधिनियम 1980 के अनुसार ‘गैर-वन-उद्देश्य’ का अर्थ चाय, कॉफी, रबर, औषधीय पौधों आदि की बागवानी-खेती के रूप में है। वन भूमि में प्रस्तावित कुम्भ मेले का आयोजन ‘गैर-वन-उद्देश्यों’ के अंतर्गत नहीं आता है। 

राजाजी नेशनल पार्क बाघों की आबादी वाला एक बाघ अभयारण्य है और किसी भी दूसरे ‘गैर-वन उद्देश्यों’ की पूर्ति के लिए इसका उपयोग वन्य जीव संरक्षण अधिनियम 1972 और वन्य संरक्षण अधिनियम 1980 का सरासर उल्लंघन है। 

कुम्भ के मेले का आयोजन 12 साल में एक बार होता है जहां लगभग 10 करोड़ लोगों की भीड़ लगती है। ऐसे में इतनी संख्या में आने वाले लोगों के लिए बड़े पैमाने पर अस्थायी ढांचा भी खड़ा करना होगा।  

मेले की तैयारी के लिए उत्तराखंड सरकार ने केंद्र सरकार के राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन से 850 मिलियन के आर्थिक मदद की मांग की है, जिसका उपयोग 16,075 सामुदायिक शौचालयों, 20,000 यूरिनल के निर्माण के लिए किया जाना है। हालांकि कचरा प्रबंधन के संबंध में अधिक जानकारी के अभाव में अभी इसे अंतिम रूप नहीं दिया गया है।

स्थानीय लोगों का कहना है कि सरकार के लिए कुम्भ एक व्यावसायिक घटना से अधिक कुछ भी नहीं। पहले ही हरिद्वार में कुम्भ मेले के कुप्रबंध ने शहर के विनाश को सुनिश्चित किया है। कुम्भ के लिए बनाई गयी अस्थायी संरचना भू-माफिया के लिए एक अवसर बन सकती है। हरिद्वार में भू माफियाओं द्वारा अतिक्रमण इसका एक बड़ा उदाहरण है। सरकार अब तक खनन और पत्थर क्रशर गतिविधियों से जुड़े इन अवैध अतिक्रमणों को हटाने में विफल रही है। 

उत्तराखंड वन विभाग के कुम्भ मेले के इस प्रस्ताव और वन गुर्जरों पर होने वाली कार्रवाइयों को साथ में देखना जरूरी है। 

राजाजी नेशनल पार्क के संरक्षण में दखल देने वाले कौन हैं? वन विभाग, सरकार या स्थानीय निवासी?

पूंजीवाद के निर्माण ने पर्यावरण और लोगों के बीच एक कृत्रिम विभाजन खड़ा कर दिया है। नव उदारवादी नीतियों के अंतर्गत बड़े पैमाने पर प्राकृतिक दोहन ने जलवायु परिवर्तन जैसा वैश्विक संकट खड़ा कर दिया है। ऐसे में प्रकृति के साथ स्थानीय समुदायों के जुड़ाव ने जैव विविधता को बनाए रखने और प्रबंधित करने में सबसे प्रभावी परिणाम दिये हैं। 

प्राकृतिक संसाधनों के प्रति आत्मिक जुड़ाव, पीढ़ीगत संबंध, जैव-विविधता और सामाजिक-आर्थिक संदर्भों की व्यापक समझ ने स्थानीय समुदायों को बिना नुकसान पहुंचाए संसाधनों की रक्षा करने के साथ-साथ उनके भरण में भी मदद की है। जलवायु परिवर्तन के इस दौर में समुदायों और संसाधनों के बीच सहजीविता और अन्योन्यश्रित संबंध को समझने की ज़रूरत है। 

वन अधिकार कानून 2006 वन और स्थानीय समुदायों के बीच इसी अन्योन्याश्रित संबंध को मान्यता प्रदान करने वाला एक कानून है, जिसने वन भूमि पर लोगों को नियंत्रण, प्रबंधन, संरक्षण, निवास, जीविका के लिए उपयोग का व्यक्तिगत और सामूहिक अधिकार दिया।  

ऐसे में उत्तराखंड वन विभाग द्वारा वन-गुर्जरों के अधिकारों को अतिक्रमण ठहराते हुए कार्रवाई न सिर्फ प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण-प्रबंधन में खलल पैदा करता है, बल्कि स्थानीय समुदायों के खिलाफ आपराधिक कदम है। 

राजाजी नेशनल पार्क में एक तरफ वन विभाग द्वारा स्थानीय समुदायों के वनाधिकारों के विरुद्ध बर्बर कार्रवाई और दूसरी ओर गैर-कानूनी रूप से वन भूमि का 778 हेक्टयर ज़मीन कुम्भ मेले के इस्तेमाल के लिए हस्तांतरित करना, सरकार की मंशाओं को स्पष्ट करता है और वन-भूमि पर अतिक्रमणकारियों के वास्तविक चेहरे को उजागर करता है।

कोरोना काल के सबसे महत्वपूर्ण सबक में से एक – वन्य जीवों और संसाधनों के साथ अनुचित छेड़छाड़ पर नियंत्रण – को महामारी के दौर में ही गैरकानूनी निष्कर्षण का सबसे सुनहरा ‘अवसर’ मान लिया गया। 

महामारी और लॉकडाउन के बहाने राजाजी नेशनल पार्क में जो कुछ घट रहा है, वह आपदा में पूंजीवाद, निष्कर्षण, उत्पीड़न के ‘अवसर’ को उद्घाटित करता है। जनता आपदा में ‘निर्माण’ ‘आत्मनिर्भरता’ के अवसरों से अब भी कोसों दूर है। 

लेखिका श्वेता त्रिपाठी पिछले 16 वर्षों से जल-जंगल-ज़मीन के विषयों पर जनांदोलनों से जुड़कर काम कर रही हैं

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