लॉकडाउन के असमंजस ने बढ़ाई वन गुर्जरों की मुसीबत

वन गुर्जरों को जंगल में रुकने के लिए ब्रिटिश शासनकाल से ही परमिट दिया जाता आ रहा है। यह परमिट 31 मार्च तक के लिए होता है
खुले आसमान के नीचे खाना बनाती वन गुर्जर परिवार की महिला। फोटो: रौबिन सिंह चौहान
खुले आसमान के नीचे खाना बनाती वन गुर्जर परिवार की महिला। फोटो: रौबिन सिंह चौहान
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रौबिन सिंह चौहान 

उत्तराखंड में वन गुर्जरों पर वन विभाग की कार्रवाई को लेकर रोष है। इससे पहले आप पढ़ चुके हैं कि वन गुर्जरों पर 'सरकारी' हमले बढ़ रहे हैं। पढ़ें, दूसरी कड़ी-  

वन गुर्जर पीढ़ियों से जंगलों में रहने वाला घुमंतू समुदाय है, जो शीतकाल के दौरान तराई के जंगलों में झोपड़ी बना कर रहता है तथा गर्मियों में ठंडे इलाकों में रहने चला जाता है। जीवन यापन के लिए ये समुदाय पशुपालन कर दूध का व्यवसाय करता है।

वन गुर्जरों को जंगल में रुकने के लिए ब्रिटिश शासनकाल से ही परमिट दिया जाता आ रहा है। ये परमिट 31 मार्च तक के लिए होता है। इस दौरान वन गुर्जर वन प्रभाग के इलाके को छोड़ कर दूसरे स्थानों को चले जाते हैं और फिर वापस आकर मार्च तक का परमिट लेकर पहले की तरह जीवन यापन करते हैं।

बीस वर्षों से वन पंचायत संघर्ष मोर्चे से जुड़े एक्टिविस्ट तरुण जोशी बताते हैं कि कानून के मुताबिक वनों में रहने वाले किसी भी वनवासी को उनकी जगह से हटाया नहीं सकता है। सुप्रीम कोर्ट में भी इससे जुड़ा एक वाद चल रहा है। कोर्ट का कहना है कि जब तक इस केस का निपटारा नहीं हो जाता किसी भी वन गुर्जर या वनवासी को हटाया नहीं जा सकता।

तरुण जोशी बताते हैं कि उत्तराखंड सरकार के आदेश के बाद बड़ी संख्या में वन गुर्जर अलग-अलग इलाकों में फंसे हुए हैं। देहरादून जिले में यमुना नदी के किनारे लगभग 93 परिवार और हरिद्वार में गंगा किनारे लगभग 120 परिवार सरकारी आदेश के बाद फंसे हुए हैं। वे बताते हैं कि लॉकडाउन की कोई भी रियायत उनके काम नहीं आ रही है।

वन गुर्जरों की परेशानी का ये महज एक पहलू है। इसका दूसरा पहलू और भी भयावह है जो इनकी रोजी रोटी से जुड़ा हुआ है। दरअसल मौसमी पलायन रुक जाने से आर्थिक रुप से वन गुर्जरों की हालत बेहद कमजोर हो गई है। ऋषिकेश के वन गुर्जर रफी बताते हैं कि वो जब सर्दियों में पहाड़ों का रुख करते हैं तो वहां के बाजारों में दूध बेचते हैं। इस दौरान जितना वो कमाते है उससे अगले छह महीने उसी से घर चलाते हैं। लेकिन इस बार गर्मियों में वो पहाड़ों का रुख नहीं कर पाए हैं। इस बार उन्हे 800 से 900 रुपये प्रति क्विंटल दर पर चारा भी खरीदना पड़ रहा है। रफी बताते हैं कि एक परिवार के पास 10 से 100 तक पशु होते है । अगर वो पहाडों में चले गए होते तो उन्हे चारे के लिए पैसा खर्च नहीं करना पड़ता ।

देहरादून के राजाजी नेशनल पार्क में रहने वाले 65 साल के मोहम्मद शमीम कहते हैं, ‘कोरोना लॉकडाउन के शुरुआती दौर में दिल्ली में तबलीगी जमात से जुड़ी अफवाहों के बाद लोगों ने यह कह कर हमसे दूध लेना छोड़ दिया कि हम दूध में थूकते हैं।’

टिहरी जिले के घनसाली में मिठाई की दुकान चलाने वाले यशपाल पंवार जो कि नगर पंचायत के सभासद भी हैं बताते हैं कि इस मौसम में वन गुर्जर प्रतिदिन चार से पांच क्विंटल मावा और दूध टिहरी और रुद्रप्रयाग जिलों में ये सप्लाई करते थे, मगर इस बार मामला चौपट है। इस बीच गर्मी बर्दाश्त न कर पाने के चलते कई गुर्जरों के पशु बीमार हो रहे हैं।

इन सभी मुद्दों को लेकर जब हमने उत्तराखण्ड़ के प्रमुख वन संरक्षक जयराज से बात की तो उनका कहना था कि विभाग वन गुर्जरों की समस्याओं का समाधान करने के लिए प्रतिबद्ध है। उत्तराखंड के वन मंत्री डाक्टर हरक सिंह रावत तो उस आदेश को ही नकार रहे हैं जो जिसमें गुर्जरों को मौसमी पलायन से रोका गया है । उनका कहना है कि मुख्य सचिव मेरे विभाग से जुड़े फैसले कैसे ले सकते है। सिस्टम की संवेदनहीनता के चलते कि पीढ़ियों से जंगलों में रहने वाले वन गुर्जरों के लिए यह कोरोना कालमें ऐसी स्थितियां पैदा हो गई हैं, जहां से  वे आगे बढें या पीछे हटें, दोनों ही स्थितियों में उनके हिस्से नुकसान ही आना है।

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