अपनी जन्मभूमि में 'अपराधी' बन कर रह रहे हैं आदिवासी

आदिवासी कहते हैं कि धीरे-धीरे हमें विश्वास होता गया कि अपनी चुनी हुई सरकार और सरकार की चुनी हुई कंपनी में कोई भी अब अपना नहीं है
विकास के नाम पर आदिवासियों को उनकी ही जमीन से बेदखल कर दिया गया। Photo: Agnimirh Basu
विकास के नाम पर आदिवासियों को उनकी ही जमीन से बेदखल कर दिया गया। Photo: Agnimirh Basu
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दसरू आदिवासी 80 साल के हैं। उनका जन्म किसमरधा गांव में हुआ था। आजा पुरखा से उसने कहानी सुनी कि उनकी 11 पीढ़ियां किसमरधा गांव में ही रहती आई है। दसरू बताते हैं कि तब गोंड और बैगा समाज के सब लोग खुशहाल थे। अन्नदा खेत खलिहान और फल-फूल से भरपूर जंगल था और तब हम सब अपने आप को सुखवासी कहते थे।

यह महज संयोग नहीं है कि 1 नवम्बर 2000 को जिस आदिवासी अस्मिता और अधिकारों के महान नारों के साथ छत्तीसगढ़ का नये राज्य के रूप में गठन किया गया और उसमें जो सबसे पहली नीति घोषित हुई, वह बहुसंख्यक आदिवासी समाज की अपनी ‘आदिवासी नीति’ नहीं, बल्कि बल्कि आदिवासियों के विकास के लिये प्रतिबद्ध सरकार की 'औद्योगिक नीति-2000' थी।

उस समय का सबसे प्रमुख राजनैतिक दर्शन मानता था कि छत्तीसगढ़ की अमीर धरती में रहने वाले आखिर गरीब क्यों होने चाहिये? छत्तीसगढ़ की अमीर धरती के गरीबों के लिए सामाजिक न्याय, आर्थिक सम्पन्नता, संसाधनों के अधिकार जैसे नये पैमानों के सुलझे-उलझे तर्कों और तथ्यों के साथ विकास की अंधाधुंध योजनायें बननी शुरू हुई। और किसमरधा जैसे अमीर धरती वाले गांवों से तथाकथित विकास की महानदी बह निकली।

भारतीय संदर्भों में विकास की एक कीमत होती है, जिसे राजनेताओं, उद्योगपतियों, प्रशासकों और निवेशकों का गठजोड़ निर्धारित करता है और उसका भुगतान- अमीर धरती के गरीबों को ही गिरवी रखकर किया जाता रहा है। छत्तीसगढ़ जैसे आदिवासी बाहुल्य राज्य के बीस बरसों का संक्षिप्त इतिहास और वर्तमान उनके अपने विकास की कही-अनकही कहानी है। छत्तीसगढ़ जैसे नए और प्राकृतिक संपदा से भरपूर राज्य में विकास की तमाम योजनाएं बनी, योजनाओं को लागू करने समर्पित लोगों का पूरा महकमा खड़ा किया गया, महकमे को बनाए रखने के लिए नए कायदे-कानून निर्धारित किए गए और फिर अमीर धरती के गरीब लोगों को यह बताया गया कि विकास की ‘कुछ कीमत’ चुकानी होगी। नए संदर्भों मे विकास, स्थापित लोकतंत्र की नैतिक-राजनैतिक आवश्यकता है, लेकिन हरेक विकास लोकतांत्रिक ही होना चाहिए या नहीं, यह चुनाव उनके हाथ में तो कतई नहीं है, जिन्हें विकास के लाभार्थी के रूप में अक्सर स्थापित अथवा विस्थापित किया जाता रहा है।

किसमरधा, छत्तीसगढ़ के कबीरधाम जिले के आदिवासी बहुल दलदली बोदाई क्षेत्र का एक बेहद खूबसूरत गांव हुआ करता था। मैकाल की पहाड़ियों के शिखर पर बसे किसमरधा, रपदा, सेमसाता, मुंडादादर आदि गावों में वर्ष 2003 से वेदांता - बालको कंपनी के द्वारा बॉक्साइट उत्खनन शुरू किया गया। इन गांवों के निहत्थे नागरिक दसरू, लेमरू, उजियारो बाई और परमा बाई जैसे वो बुज़ुर्ग जिन्होंने इस विकास के दंश को अपने दिलो-दिमाग से महसूस किया। वो बताते हैं कि - छत्तीसगढ़ के विकास और आदिवासी अधिकारों के नाम पर निर्वाचित सरकारों द्वारा, किस बेहियाई के साथ उनकी अमीर धरती का सौदा कर दिया गया।

लेमरू बैगा कहते हैं कि धीरे-धीरे हमें विश्वास होता गया कि अपनी चुनी हुई सरकार और सरकार की चुनी हुई कंपनी में कोई भी अब अपना नहीं है। किसमरधा, रपदा, सेमसाता और मुंडादादर के लोगों को विकास के चौसर में दांव पर लगा दिया गया। दसरू, लेमरू, उजियारो बाई और परमा बाई एकस्वर मे कहते हैं कि हमारे जंगल जमीन के सौदे की असलियत मालूम होते-होते कंपनी के बड़े-बड़े मशीन, धरती के सीने को छलनी करने लगे। और फिर डायनामाइट की गंध और गर्द से हमारे आंखों के सामने अंधेरा छाने लगा।

‘छत्तीसगढ़ में अंजोर’ (उजाला) शीर्षक से विकास की रिपोर्टें छपी और बरस दर बरस छपती चली गयी। विकास की इन रिपोर्टों में दसरू, लेमरू और उजियारो के अस्तित्व, अब संज्ञाहीन आंकड़ों में बदल चुके थे। हरे भरे आंकड़ों के रंगबिरंगे रिपोर्टों में किसमरधा, रपदा, सेमसाता और मुंडादादर – विकास के गर्दिश में गुमनाम होते चले गये। बेबस गांवों के मुट्ठीभर लोगों ने मिलकर घोषणा कर दी कि वो अपनी जमीनों से कभी भी और किसी भी कीमत पर नहीं हटेंगे। तब तक कंपनी के रिकॉर्ड में लगभग 261 परिवारों की जमीन, तथाकथित 'सहमति' के शर्तों पर खरीदी गई और लगभग 182 लोगों का कागजी पुनर्वास भी पूरा कर दिया गया। लेमरू सहित अधिकांश बैगा आदिवासी परिवार खदेड़ दिए गए, क्योंकि उनके पास अपनी जमीनों का पट्टा ही नहीं था। उनके अपने आजा-पुरखा के जंगल, विकास के लिये कुर्बान कर दिए गए। बेजमीन हो चुके लोगों ने यह मान लिया कि अब खुला आकाश ही उनका नया आशियाना है।

दुनिया को बताया गया कि ‘छत्तीसगढ़ की पुनर्वास नीति’ सबसे बेहतर और प्रभावशाली है। उजियारो और परमा बाई ने कभी इस पुनर्वास नीति की कोई कथा नहीं सुनी। दुर्भाग्यवश उनकी व्यथा, कभी पुनर्वास नीति का हिस्सा ही नहीं हो सकी। इसीलिए उन जैसे बेजमीन कर दिए गए लोगों के लिए विकास के सपने और पुनर्वास के यथार्थ दोनों ही अर्थहीन रह गये।

मगनू जैसा नौजवान उन चंद किस्मत वालों में शामिल रहा जिसे हाड़तोड़ मज़दूरी के लिये खदान के ठेकेदारों ने अपेक्षाकृत उपयुक्त व्यक्ति माना। मगनू बताते हैं कि धरती के चीथड़ों से बॉक्साइट के पत्थर ढोते ढोते हाथ- रक्तिम लाल हो जाते थे, कभी कभी ऐसा महसूस होता था कि मैं बॉक्साइट के टुकड़े नहीं, मानो अपने ही हाथों से धरती के रक्त से सना कतरा निकाल रहा हूँ। बहरहाल, विकास के सतरंगी शब्दकोष, अर्थतंत्र के अकड़ते हुये आंकड़ों और पुनर्वास के भरे-पूरे आश्वासनों में बेज़मीन हो चुके लोग, शनैः शनैः समाप्त होते चले गये। छत्तीसगढ़ के विकास की कथायें रायगढ़, रायपुर और राजनाँदगाँव जैसे विकास मे जगमगाते शहरों के लैम्पपोस्टों पर लटकते इश्तेहारों मे पूरा देश देखता और आश्वस्त होता रहा। लेकिन- दसरू, लेमरू और उजियारो के गांव - बरस दर बरस - रायपुर से और दूर होते गये।

उत्खनन के लगभग 15 बरस बाद बेजमीन हो चुका लेमरू बैगा, आज अपनी ही जन्मभूमि में किसी अपराधी की तरह रहने को अभिशप्त है। उसे अब भी विश्वास है कि एक दिन वो और उस जैसे तमाम बेज़मीन लोग, अपने आजा-पुरखा के उस पवित्र भूमी पर लौट सकेंगे जहाँ उनका इतिहास और भूगोल दफ़न है। बैगा आदिवासियों के अपने जीवनदर्शन में भविष्य की कोई परिकल्पना नहीं है। दरअसल उनका इतिहास ही है जो संपन्न विरासत की जीवित दंतकथा है। वो मानते हैं कि प्रकृति के प्रति उनका प्रेम ही आने वाले अपने भविष्य की एकमात्र आवश्यकता है। विचित्र विरोधाभास है कि इतिहास में जीने वाला एक आदिवासी समाज तो ऐसा मानता है लेकिन भविष्य के सपनों पर अपना एकाधिकार मानने वाला तथाकथित आधुनिक समाज, अब तक छद्म विकास के मुग़ालते में जी रहा है।

आज का नया छत्तीसगढ़ गढ़ने वालों के समक्ष चुनौती केवल यह नहीं है कि वह आंकड़ों के बाजीगरी से परे आदिवासी अस्मिता और अधिकारों के भूले-बिसरे सवालों का नया जवाब तराशे, बल्कि अवसर इस बात के भी हैं कि विकास के लिए नए जवाब अब उन हजारों भूले-बिसरे लोगों से भी/ही पूछे। छत्तीसगढ़ के लगभग आधे भू-भाग से उठते आदिवासी अस्मिता और अधिकारों के सवालों का समाधान स्थापित करने का अर्थ होगा कि विकास की आपाधापी में बहुत पीछे छूट चुके सर्वहारा समाज को उनके अपने छत्तीसगढ़ के पुनर्निर्माण के अवसर और अधिकार दोनों देना। नये छत्तीसगढ़ की नई यात्रा यहीं से शुरू होगी। कल - आज और कल के बीच खड़ा आदिवासी समाज इस नई यात्रा के ख़ातिर अब किसी सार्थक उत्तर की प्रतीक्षा में है।

(लेखक एकता परिषद के राष्ट्रीय समन्वयक हैं)

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