ऐसे तो झारखंड का आदिवासी भविष्य में अदालत ही नहीं जा पाएगा‌?

झारखंड सरकार ने कोर्ट फीस अधिनियम 2021 में संशोधन कर कोर्ट फीस में छह से लेकर 10 गुना तक की वृद्धि कर दी है
फोटो: सुगंध जुनेजा/सीएसई
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केंद्र सरकार की बात मानें तो लोकसभा में एक सवाल के जवाब में दिए गए उत्तर में कहा गया कि आदिवासियों के खिलाफ मामलों में तेजी से वृद्धि हो रही है। लेकिन दूसरी ओर आदिवासी बाहुल राज्य झारखंड में राज्य सरकार इस प्रकार के हालात पैदा कर देना चाहती है कि भविष्य में आदिवासी कभी अदालत का मुंह ही न देख पाएं।

आदिवासी अपने खिलाफ होने वाले अत्याचारों को बस सहन करता जाए लेकिन अदालत का रूख न करे। एक तो वेसे भी उनके पास कोई पैसा-कौड़ी होता नहीं और अधिक शिक्षा नहीं होने की ऐसी स्थिति में पहले से ही उनके समुदाय के अदालत में जाने की संख्या कमतर है। लेकिन झारखंड सरकार ने अपने कोर्ट फीस वृद्धि विधेयक में तो ऐसे ही हालात पैदा कर दिए हैं कि भविष्य में कोई भी आदिवासी अपने किसी मामले में अदालत में जाने के बारे में सोच ही नहीं पाएगा।

कारण स्पष्ट है क्योंकि सरकार ने इस विधेयके माध्यम से कोर्ट फीस में दस गुना से अधिक की वृद्धि कर दी है। जी हां अब इस विधेयक के पास होने जाने के बाद संपत्ति विवाद संबंधित मामला फाइल करने में जहां पूर्व में 50 हजार रुपये लगते थे, अब अधिकतम तीन लाख रुपये तक की कोर्ट फीस लगेगी। राज्य सरकार यही नहीं रुकी अब तक एक आम आदमी जनहित याचिका दायर करने के लिए उसे केवल ढाई सौ रुपए खर्च करने पड़ते थे, अब राज्य सरकार को यह भी मंजूर नहीं कि उसके हर आदेश के खिलाफ हर कोई जनहित याचिका दायर कर उसके फैसले पर सवाल उठाए।

अब एक आम आदिवासी यदि सरकार के किसी फैसले के खिलाफ कोई जनहित याचिका दायर करना चाहता है तो उसे अब एक हजार रुपए जमा करने होंगे। यह चार गुना अधिक है। वकालतनामा बनाने की फीस भी चार गुना से अधिक बढ़ा दी गई है।

यही कारण है कि अब झारखंड की अदालतों में सुनवाई-कार्यवाही के लिए फीस बढ़ोतरी को लेकर राज्य सरकार की ओर से लाए गए कोर्ट फीस अमेंडमेंट एक्ट पर विवाद और गहरा गया है। बुधवार 28 सितंबर को झारखंड के राज्यपाल ने कोर्ट फीस अमेंडमेंट बिल पर राज्य सरकार को दोबारा विचार करने का निर्देश दिया है। इधर इसी मुद्दे को लेकर झारखंड हाईकोर्ट में दायर जनहित याचिका पर 28 सितंबर को हुई सुनवाई के दौरान राज्य सरकार ने बताया कि इस एक्ट की समीक्षा के लिए तीन सदस्यीय कमेटी बनाई गई है।

राजभवन की ओर से बताया गया कि कोर्ट फीस (झारखंड संशोधन अधिनियम) को 22 दिसंबर 2021 को विधानसभा से पारित कराया गया था। इस पर 11 फरवरी 2022 को राज्यपाल की स्वीकृति मिली थी। लेकिन गजट प्रकाशित होने के बाद से कोर्ट फीस वृद्धि को लेकर राज्यभर में जबरदस्त जनविरोध हो रहा है। केवल जनहित याचिकाएं ही दायर नहीं की गईं बल्कि राजभवन ने भी कहा है कि उसके पास भी इस मामले को लेकर कई आवेदन आए हैं। 22 जुलाई 2022 को झारखंड स्टेट बार काउंसिल ने भी राजभवन को आवेदन देकर कोर्ट फीस में हुई बढ़ोतरी को वापस लेने की मांग की है।

ध्यान रहे कि झारखंड सरकार ने कोर्ट फीस अधिनियम 2021 में संशोधन कर स्टांप फीस छह से लेकर दस गुणा तक की वृद्धि की है। संपत्ति विवाद संबंधित मामले फाइल करने में जहां 50 हजार रुपये लगते थे, अब अधिकतम तीन लाख रुपये तक की कोर्ट फीस लगेगी। जनहित याचिका दाखिल करने में पहले ढाई सौ रुपये कोर्ट फीस लगती थी। अब इसके लिए एक हजार रुपये की फीस तय की गई है।

कोर्ट फीस में इस तरह बढ़ोतरी को वापस लेने की मांग को लेकर झारखंड स्टेट बार काउंसिल की ओर से हाईकोर्ट में जनहित याचिका दाखिल की गई है। इस पर झारखंड हाईकोर्ट में हुई सुनवाई के दौरान सरकार की ओर से बताया गया कि इसकी समीक्षा के लिए कमेटी बनाई गई है, जिसकी रिपोर्ट के अनुसार आगे कदम उठाया जायेगा।

दूसरी ओर झारखंड बार काउंसिल का कहना है कि इस एक्ट को गरीबों पर आर्थिक बोझ बढ़ाने वाला और न्याय में यह विधेयक बाधक है इसलिए इसे तुरंत निरस्त किया जाना चाहिए। काउंसिल का कहना है कि यह अप्रत्याशित वृद्धि अतार्किक और अव्यावहारिक है। इससे राज्य की गरीब आदिवासी जनता न्याय से दूर हो जाएगी। कोर्ट फीस बढ़ाने से पहले सरकार को एक ड्राफ्ट बनाना चाहिए था, जिस पर सभी लोगों से आपत्ति मांगनी चाहिए थी लेकिन सरकार ने इस महत्वपूर्ण कार्य को नजरअंदाज कर विधेयक बना दिया।

ध्यान रहे कि देश में आदिवासियों के खिलाफ अपराध के मामलों में तेजी से बढ़ोत्तरी दर्ज की गई है। यह बात सरकार ने संसद के बीते मॉनसून सत्र के दौरान लोकसभा में दिए गए अपने आंकड़ों के माध्यम से कही। सरकारी आंकड़ों के अनुसार 2018 से 2020 के बीच आदिवासियों के खिलाफ अपराधिक मामले बढ़े हैं।

केंद्रीय गृहराज्य मंत्री अजय कुमार मिश्रा ने लोकसभा में ये आंकड़े तब पेश किए जब तेलंगाना से कांग्रेस के सांसद कोमाती रेड्डी और टीआरएस के सांसद मन्ने श्रीनिवास रेड्डी ने इस मामले को लेकर सवाल पूछा था। मंत्री ने बताया कि 2018 में आदिवासियों के खिलाफ 2018 में 6,528 मामले सामने आए थे जो 2020 में बढ़कर 8,272 हो गए। लोकसभा में पेश किए गए आंकड़ों के अनुसार 2019 में आदिवासियों के खिलाफ 7,570 केस दर्ज हुए। झारखंड की कुल आबादी में 26.2 प्रतिशत आदिवासी हैं जबकि देश में कुल आदिवासियों की संख्या दस करोड़ से अधिक है।

झारखंड के वे जंगल जहां खनिज अधिक हैं, उन इलाकों में माओवाद के आरोप में हजारों आदिवासियों की गिरफ्तारी हुई है। एक आरटीआई से पता चलता है कि झारखंड में बीते 13 सालों (2009 से 2021 तक) में यूएपीए यानी गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम की धाराओं के तहत 704 मामले दर्ज किए गए हैं। इसमें 52.3 प्रतिशत केस आदिवासियों पर दर्ज हुए हैं, जबकि इसके मुकाबले 23.1 प्रतिशत ओबीसी और 6.7 प्रतिशत दलितों पर दर्ज हुए। सीपीआई (एम) झारखंड इकाई के सचिव प्रकाश विप्लव को यह सूचना आरटीआई के माध्यम से मिली है।

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